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वे डरते हैं, कि एक दिन लोग उनसे डरना बंद कर देंगे

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भीमा कोरेगांव में दलितों पर हमले और उसके बाद महाराष्ट्र में घटी घटनाओं पर बयान

मुझे महाराष्ट्र में एक कार्यक्रम के लिए और भी समाजसेवकों एवं बुद्धजीवियों के साथ बुलाया गया था. और हम सभी वहां मेहमान के तौर पर गए थे. मैं मुंबई और पुणे में मुझे मिले अपार समर्थन एवं प्यार को ताउम्र याद रखूंगा. मुझे वहां मौजूद लोगों के द्वारा मनुवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने की ऊर्जा और आतुरता से काफी हिम्मत मिली है और मैं इसे भी ताउम्र याद रखूँगा. मुझे पुणे में ज्योतिबा फूले एवं सावित्रीबाई फूले को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भी अपार प्रेरणा मिली और इसे भी मैं याद के तौर पर संजो चुका हूँ. और मैं इन तमाम यादों को उन चंद मीडिया प्रवक्ताओं के जाहिल बर्ताव की वजह से नहीं भुलाऊँगा. मैं किसी प्रकार से उन प्रवक्ताओं द्वारा मेरे और जिग्नेश के ऊपर लगाए गए आरोपों-प्रत्यारोपों की वजह से इन यादों को नहीं भुला सकता.
आज महाराष्ट्र के अलावा पूरे देश में जो हालात हैं वो एक कठिन समय की बानगी दे रहे हैं. एक ओर सत्ता में वो ताकतें हैं जो देश को सदियों पीछे अतीत में धकेलना चाह रही हैं और एक ओर वो लोग भी हैं जो नव-पेशवाई, और बीजेपी-आरएसएस की जातिवादी एवं फासीवादी सोंच का विरोध कर रहे हैं. 31 दिसंबर 2018 को एल्गार परिषद् में दिए गए मेरे भाषण में मैंने कहा था की साल 2018 हम सभी के लिए चुनौतियों से भरा साल होगा. पिछले 3.5 सालों में मोदी सरकार के अच्छे दिन और विकास वाले जुमलों का अब भांडा फूट चुका है और यह साबित हो चुका है की इस सरकार ने जनता के बीच केवल भ्रम और झूट ही फैलाया है और बस खोखले वादे ही किये हैं.
जैसे-जैसे 2019 के आम चुनाव नजदीक आते जायेंगे, वैसे वैसे बीजेपी और आरएसएस लोगों में नफरत फ़ैलाने का काम करना शुरू कर देंगे और धर्म और जाती के नाम पर ध्रुवीकरण करने की साजिश भी करेंगे और इसके लिए दलित एवं मुसलमानों पर अत्याचार भी किया जायेगा. हाल के दिनों में कुछ घटनाओं ने मुझे परेशान और बेचैन किया है. महाराष्ट्, कृषि सम्बन्धी संकटों का गढ़ बनकर उभर रहा है. मोदी और फडणवीस की किसानों को लेकर जो नीतियां हैं उससे सबसे ज्यादा नुकसान मराठाओं एवं दलितों का हो रहा है. बीजेपी आरएसएस के पास इस संकट से उबरने का कोई रास्ता मौजूद नहीं है. इसलिए दलितों पर लगातार हो रहे हमलों को बीजेपी और आरएसएस मराठाओं और दलितों के विवाद के रूप में पेश कर रही जिससे ध्रुवीकरण संभव हो सके और उनकी नाकामी छुप सके.
एल्गार परिषद् में हुए सम्मलेन के बाद भीमा कोरेगाव की हिंसा चौंकाती बिलकुल नहीं है. और जैसा बताया जा रहा है की एल्गार परिषद् में केवल दलितों और अम्बेडकर-वादियों की भीड़ जुटी थी वह बिलकुल सत्य नहीं है. हाँ यह सत्य है की वो जरूर इस सम्मलेन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे, लेकिन उनके अलावा वहां पर कई आदिवासी, महिलाएं, अल्पसंख्यक और कुछ मराठा संघठनों के लोग भी जुटे थे. इस ऐतिहासिक सम्मलेन में वो सभी लोग आये थे जो भूतकाल में किसी न किसी प्रकार के दमन से गुजर चुके हैं.
मुख्यधारा के मीडिया के कुछ समूहों ने एक ढोंग रचा जिसमे मुझे और जिग्नेश को वहां हिंसा भड़काने के आरोप में दोषी करार दिया. यह अपने में एक हास्यास्पद कोशिश है क्यूंकि जो भी उस हिंसा से जुड़े वीडियो हमारे सामने आये हैं उसमे साफ़ तौर पर भगवा झंडा लिए लोगों को दलितों पर अत्याचार और उनके साथ मारपीट करते हुए देखा जा सकता है. मीडिया द्वारा मेरे और जिग्नेश पर केवल इसलिए ध्यान केंद्रित किया गया है जिससे असल आरोपी,जिसमे की शम्भाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे का नाम शामिल है, साफतौर पर बचकर निकल पाएं. यह ध्यान देने वाली बात है की भिड़े कोई छोटे मोटे व्यक्ति नहीं हैं, उन्हें वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देवेंद्र फडणवीस की उपस्थिति में ‘महापुरुष’ और ‘तपस्वी’ कहकर सम्बोधित किया गया था. जो भी मीडिया मुझे और जिग्नेश को जबरदस्ती आरोपी बनाने में लगी है, वो केवल मोदी सरकार के लिए काम करते हैं और बीजेपी को पूजते हैं. उनका काम केवल झूठ और गलत ख़बरें फैलाना ही है. उन्ही चैनल्स ने लोगों को यह बताया की मेरे और जिग्नेश के बयानों की वजह से भीमा कोरेगाव में हिंसा भड़की.
उन्होंने मेरे और जिग्नेश के बयान को अच्छे से देखा होगा और चूँकि उसमे उन्हें कुछ आपत्तिजनक मिला नहीं तो वो मन मसोस के रह गए होंगे. इसलिए उन्होंने अंततः जिग्नेश के भाषण का एक हिस्सा उठाया जिसमे वो कह रहे थे की ‘हमे सड़कों पर लड़ाई करने की जरुरत है’ जिससे जाति और वर्ग के आधार पर किये गए अत्याचारों को रोका जा सके. उनके इस बयान को इस तरह दिखाया गया की वहां हुई हिंसा जिग्नेश के इसी वाक्य, इसी भाषण की वजह से हुई. लेकिन आइये मैं उन्हें ‘सड़कों की लड़ाई’ का मतलब समझाता हूँ.
आईआईटी मद्रास में अम्बेडकर-पेरियार-स्टडी सर्किल पर लगे बैन के खिलाफ देश व्यापी छात्र आंदोलन, एफटीआईआई के छात्रों दवरा 100 दिन का ऐतिहासिक धरना, यूजीसी द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में की गयी कटौती के विरोध में छात्रों द्वारा ऐतिहासिक 114 दिनों का धरना, रोहित वेमुला को न्याय दिलाने हेतु छात्रों का आंदोलन, जान माना स्टैंड विथ जेएनयू आंदोलन, बीएचयू की छात्राओं द्वारा विरोध प्रदर्शन और भी ऐसे कई सारे आंदोलन और धरने असल मायनों में ‘सड़क की लड़ाई’ हैं.
अभी रुकिए और भी ऐसे किस्से हैं, दलितों द्वारा ऊना का आंदोलन, देश व्यापी मुस्लिमो की लिंचिंग के विरोध में प्रदर्शन, किसानों और अन्य दमन सहने वाले समूहों द्वारा विरोध प्रदर्शन असल मायने में ‘सड़क की लड़ाई’ है. जब मोदी सरकार सत्ता में आयी तब ऐसा कहा गया की कोई भी ठोस विपक्ष देश में मौजूद नहीं है. लेकिन उसके बावजूद, लोग सड़कों पर उतरे और फासीवादी सोंच रखने वाली सरकार के खिलाफ विरोध करके यह जता दिया की असल विपक्ष होता क्या है.
भले ही मुख्यधारा के मीडिया और प्रसिद्ध न्यूज़ चैनलों ने ऐसे आंदोलनों को अपने टीवी पर खबर के रूप में न दिखाया हो लेकिन इन सभी आंदोलनों ने उन्हें कई रातें जागने पर मजबूर जरूर किया है. क्यूंकि उन्हें पता है की भले ही ऐसे आंदोलन उनके टीवी के स्क्रीन पर नहीं आ रहे लेकिन वो सड़कों पर जरूर आ रहे हैं और लोगों को जोड़ भी रहे हैं. और ‘वो व्यक्ति’ तो इन न्यूज़ चैनल्स से भी ज्यादा परेशान हैं इसीलिए उन्होंने इन मीडिया प्रवक्ताओं को काम पर लगा दिया है जो हमे डराएं, धमकाएं और अंत में चुप करा दें. लेकिन हम नहीं, बल्कि अब वही डर गए हैं, वो हमारी एकता को देख कर डर गए हैं और हमारे जज्बे से सहमे भी हुए हैं. वो हमसे इसलिए भी डरते हैं क्यूंकि हम अम्बेडकर और भगत सिंह के सपनों को जीने वाले युवा हैं. और मैं अंत में सत्ता में बैठे लोगों के डर को गोरख पांडेय की इन पक्तियों के जरिये बयान करना चाहूंगा:-

वे डरते हैं, किस चीज से डरते हैं

वे तमाम धन-दौलत,

गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?

वे डरते हैं, कि एक दिन निहत्थे और गरीब

लोग उनसे डरना, बंद कर देंगे