देश बदल रहा है। अब बोलने पर पाबंदी आयद की जा रही है। तरीका अलग है। यूं संवैधानिक तौर पर बोलने की आजादी है, लेकिन बोलना गुनाह बना दिया गया है। कह दिया गया है कि अगर बोलना है, तो सत्ता के समर्थन में बोलिए। हमारी हर नीति का समर्थन कीजिए। जो नहीं करेगा, वह देश विरोधी है, पाकिस्तान का एजेंट है। अगर बोलने वाला मुसलमान है, तो उसे पाकिस्तान भेजने की बात की जाती है। दूसरे लोग विरोध में बोलेंगे तो गालियां दी जाएंगी, ट्रोल किया जाएगा। अगर बोलने वाली महिला है तो उसे भी नहीं बख्शा जाएगा। बलात्कार की धमकी दी जाएगी। गुरमेहर और साक्षी जोशी उदाहरण हैं इस बात के। एक उदाहरण जाकिर अली त्यागी है। जाकिर ने अपनी फेसबुक पर कुछ लिखा। उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करके जेल में डाल दिया गया। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि उसने प्रोफाइल पिक में अपनी नहीं, शहीद दरोगा अख्तर अली की तस्वीर लगा रखी थी। इसे 420 का केस बना दिया गया। उसकी जमानत के लाले पड़े हुए हैं। जाकिर अकेला नहीं है, जो इस अघोषित सेंसरशिप का शिकार बना हैं। देश के अलग अलग हिस्सों से इस तरह की खबरें आती रहती हैं। कुछ खबरें दब कर रह जाती हैं। यह संदेश है, जो हमारे खिलाफ बोलेगा, उसका यही हश्र किया जाएगा। इन बातों से अगर किसी को डर नहीं लगता तो वह मूर्खों की दुनिया में रहता है। बात यहीं खत्म नहीं होती। अरसे से जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी का जितना विरोध किया जाएगा, उनकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती जाएगी। प्रचार का असर यह हुआ है कि जो लोग मोदी का विरोध करते थे, वे भी अब समझने लगे हैं कि मोदी का विरोध करके वे गलती कर रहे हैं। इसलिए अब वे दूसरों को भी सलाह दे रहे हैं कि मोदी के खिलाफ मत लिखिए। लिखते हुए डर पसर गया है। जो लोग मुखर होकर लिख रहे हैं, उनके दोस्त और घर वाले चुप बैठने की सलाह दे रहे हैं। कॅरियर और बाल बच्चों का वास्ता दिया जा रहा है। लिबरल ताकतों को खामोश रहने का संदेश दिया जा रहा है। हम किस अंधे युग में जा रहे हैं? इमरजेंसी के बाद पहली बार इतना खौफ देखा है। इमरजेंसी घोषित थी, लेकिन ये इमरजेंसी अघोषित है। जनता अभी हनीमून पीरियड में है। जिन लोगों पर खौफ का साया नहीं मंडराया है, वे खुश हैं कि मुसलमानों का सही इलाज कर दिया गया है। वे नहीं जानते कि अगर देश के एक बड़े वर्ग को हाशिए पर डाला जाएगा तो उसका असर उन पर भी पड़ेगा। खासतौर से दलित और पिछड़ी जातियों पर इसका असर होगा। अभी बहुत लोगों को यह बात समझ में नहीं आएगी। जब आएगी तो बहुत देर हो चुकी होगी। फिलहाल वे गाय, मीट बंदी और ट्रिपल तलाक की खुमारी में हैं। उन्हें वही डोज दी जा रही है, जिसकी मांग बहुत अरसे ये लोग करते आ रहे हैं। गाय, मीट बंदी और ट्रिपल तलाक की बहस के बीच वे क्या खोते जा रहे हैं, इसका अभी उन्हें इल्म नहीं है। उनका रोजगार छीना जा रहा है। नौकरियां खत्म की जा रही हैं। श्रम कानून पूंजीपतियों के हक में बनाए जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात बोलने की आजादी छीनी जा रही है।
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