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"दलित" शब्द के पीछे क्यों पड़े है कट्टरपंथी समूह ?

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दलित शब्द दलन से अभिप्रेत है , जिनका दलन हुआ ,शोषण हुआ ,वो दलित के रूप में जाने पहचाने गये।
दलित शब्द दुधारी तलवार है ,यह अछूत समुदायों को साथ लाने वाला एकता वाचक अल्फ़ाज़ है, इससे जाति की घेराबंदी कमजोर होती है और शोषितों की जमात निर्मित होती है, जो कतिपय तत्वों को पसंद नहीं है।

दलित शब्द कुछ समूहों को अपराध बोध भी करवाता है कि तुमने दलन किया,इस वजह से लोग दलित है , जिन पर दलन का आरोप यह शब्द स्वतः मढ़ता है ,उन्हें यह शब्द कभी पसन्द नहीं रहा ,वे सदैव इस शब्द को मिटा देने को कमर कसे रहे है।

दलित शब्द का सबसे पहले प्रयोग सन 1831 में ‘मोल्सवर्थ डिक्शनरी’ में हुआ था ,बाद में यह 1920 के बाद तब ज्यादा प्रचलित हुआ जब स्वामी श्रद्धानंद ने ‘दलित उद्धार सभा ‘ बनाई।

साहित्य में दलित शब्द सन 1929 में ‘अणिमा’ पत्रिका में छपी एक कविता ‘ दलित जन करे पुकार’ से जानकारी में आता है ,जिसे हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा था , बाद में 70 के दशक में महाराष्ट्र से दलित साहित्य की बेहद मजबूत धारा विकसित हुई ,जो साहित्य की कथित मुख्यधारा के लिये चुनोती बन गई । दलित साहित्य ने अपनी विशिष्ट पहचान कायम की ,जिससे भी बुद्धिजीवी वर्ग का वर्चस्व शाली तबका भयंकर आहत हुआ, वह भी दलित शब्द से खफा हो गया।
बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने भी दलित शब्द का प्रयोग किया, वे अंग्रेज़ी में अधिकांश समय ‘डिप्रेस्ड ‘ शब्द काम मे लेते थे, जिसका हिंदी अनुवाद दलित के रूप में किया जाता रहा है।
1972 में महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर्स’ नामक संगठन बना, जिसके संस्थापक नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले थे ,इसने आम जनता की जबान पर दलित शब्द को लोकप्रियता प्रदान की।
उत्तर भारत में मान्यवर कांशीराम ने दलित शब्द को प्रचलन में लाने का काम किया ,उन्होंने ‘दलित शोषित संघर्ष समिति'(डी एस 4) गठित की ,जिसका प्रसिद्ध नारा था – ” ठाकुर, ब्राह्मण , बनिया छोड़ – बाकी सब है डी एस फोर ”

80 के दशक में ‘दलित साहित्य अकादमी’ अस्तित्व में आई, जगह जगह दलित साहित्य सम्मेलन होने लगे , दलित राजनीति , दलित मीडिया , दलित विमर्श जैसी अवधारणाएं संज्ञात हुई।

1990 में उदारीकृत आर्थिक नीतियों की शुरुआत के बाद एनजीओ जगत फला फूला ,जिसने खुद को सिविल सोसायटी कहा ,नागरिक समाज की इस दुनिया ने अनुसूचित जातियों के लिए’ दलित’ और अनुसूचित जनजातियों के लिए ‘आदिवासी’ पहचानों को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पंहुचाया।

21 वीं सदी के शुरुआती समय में डरबन में हुई नस्ल विरोधी अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जातिजन्य भेदभाव का मुद्दा गुंजा ,जो दलित संगठनों की बड़ी सफलता थी ,इसमें राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान तथा नैक्डोर जैसे सिविल सोसायटी ऑर्गेनाइजेशन की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
सन 2006 के बाद दलित शब्द प्रतिरोध का पर्याय बन गया, देश भर में दलित अधिकार अभियान शुरू हुए, मीडिया में दलित अत्याचारों पर काफी चर्चा होने लगी, कुलमिलाकर दलित एक स्वतंत्र सांस्कृतिक,सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक धारा बन गई, इस जागृति को दलित चेतना कहा गया।

निरन्तर बलवती होती जा रही ‘दलित चेतना’ ने प्रभुत्व संपन्न वर्ग को असहज कर दिया , वे इस दलित चेतना को पलट देना चाह रहे थे ,लेकिन डरते भी थे कि कहीं उन्हें ही दलित विरोधी नही मान लिया जाये , इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को आगे किया, आयोग के अध्यक्ष बूटा सिंह ने मोर्चा संभाला और उन्होंने एक परिपत्र जारी किया कि – “दलित शब्द संविधान में नहीं है ,इसलिए यह असंवैधानिक है”.

मैंने उन्हें एक खुला पत्र लिखा ,जो बाद में प्रकाशित भी हुआ ,जिसमें मैने बूटा सिंह से कहा कि – संविधान कोई शब्दकोश नहीं है कि उसमें हर शब्द हो और यह कहना भी मुर्खता की पराकाष्ठा ही है कि जो शब्द संविधान में नहीं है ,वो सब असंवैधानिक ही है । मैंने सरदार जी को याद दिलाया कि उनका और उनके पिताजी का नाम भी मुझे संविधान की किताब में नहीं मिला तो क्या उन्हें गैर संवैधानिक मान लिया जाये?

खैर,सन 2008 से ही सुनियोजित तरीके से दलित शब्द को खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं ,मगर यह शब्द बड़ा ताकतवर मालूम पड़ता है , यह मिटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है , भारी विरोध के बावजूद आज दलित एक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त शब्द है ,ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी से लेकर दुनियाभर की तमाम यूनिवर्सिटीज में दलित एक अकादमिक शब्द के रूप में प्रचलित है।

हालांकि यह जातिवाचक संज्ञा नहीं है ,मगर इससे भारत में हजारों साल से जारी घृणित जातिजन्य भेदभाव, अन्याय और अत्याचार वाली व्यवस्था की जानकारी मिल जाती है, जो कि इस देश के शोषक समुदाय को गिल्टी फील करवाता रहता है ,इसलिए उसने इस शब्द को मिटा देने का प्रण ले लिया।

दलित विरोधी कट्टरपंथी संगठन दलित शब्द से बहुत नफरत करते हैं, वे उन्हें ‘वंचित’ कहना पसन्द करते है ,अब उन्होंने अपनी सरकारों और निर्दयी न्यायिक व्यवस्था के ज़रिए मिटाने का अभियान छेड़ दिया है।

छत्तीसगढ़ और राजस्थान के बाद अब केंद्र सरकार ने सरकारी कामकाज में दलित शब्द के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी है । राजस्थान की भाजपा सरकार ने तो यहाँ तक घोषणा की है कि वह न दलित शब्द का प्रयोग करेगी और ना ही करने देगी!

दरअसल इस सख्ती के पीछे आरएसएस है ,जो 2 अप्रेल के भारतबन्द में लगे ‘ दलित मुस्लिम एकता ज़िन्दाबाद ‘ के नारों से बेहद ख़फ़ा है ,उन्होंने तय किया है कि दलित शब्द ही मिटा दो तो नारे अपने आप ही नष्ट हो जायेंगे , न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी ! सारा टंटा ही खत्म!

पर क्या यह शब्द किसी सरकार की कृपा का मोहताज है ? यह तो लोक में मान्य ओर प्रचलित शब्द है ,जो हर तरह की रोक के बावजूद जिंदा भी रहेगा और बोला तथा लिखा भी जायेगा ,इसे कोई खत्म नही कर पायेगा।

जिस तर्क से दलित पहचान को नष्ट किया जा रहा है ,अगर हमने उन्हें स्वीकार किया तो दलित ही नही बल्कि बहुजन और मूलनिवासी शब्द भी प्रतिबंधित किये जायेंगे , क्योंकि संविधान तो उंनको भी मान्यता नही देता है ,वहाँ तो सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति जैसी जातिवाचक पहचाने ही उल्लेखित है.

तो क्या करें? भूल जाएं दलित, बहुजन और मूलनिवासी शब्द ! बन जायें वंचित, शुद्र, अछूत, अधम …ढोर, गंवार ..ताड़न के अधिकारी ??

-भंवर मेघवंशी

(स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता )