पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी आज महत्वपूर्ण हो या न हो पर उनकी हैसियत आज के फर्जी डिग्री और हलफनामा देने वाले आधुनिक अवतारों से कहीं बहुत अधिक थी। वे भले ही मात्र चार महीने ही देश के प्रधानमंत्री रहे हों, पर उनकी व्यक्तिगत हैसियत देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में प्रमुख थी। 1977 में चन्द्रशेखर तत्कालीन सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। और बाद में जब यह पार्टी बिखर गयी तो उन्होंने एक नयी पार्टी बनायी समाजवादी जनता पार्टी। वे इसके अध्यक्ष रहे औऱ अकेले ही अपने दल से बलिया से सांसद चुने जाते रहे। उन्हें लोग अध्यक्ष जी के ही नाम से संबोधित भी करते थे। अपने गांव इब्राहिम पट्टी जिला बलिया से वे अपने जीवन के अंतिम समय तक जुड़े रहे। बाद में उनके सुपुत्र नीरज, बलिया से लड़े बाद में सपा से राज्यसभा में भी पहुंचे पर अब वे भाजपा से राज्यसभा में एमपी हैं।
भारतीय समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेन्द्र देव् एक शिखर पुरुष थे। फैज़ाबाद के रहने वाले आचार्य जी 1937 मे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रूप में कांग्रेस के अंदर समाजवादियों का एक मजबूत धड़ा बनाने में अग्रणी थे। उनके साथ डॉ राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन आदि समाजवादी नेता थे। कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाद भी तब थे पर वे बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए।
आज़ादी के बाद सबसे अधिक बिखराव अगर किसी राजनीतिक दल या आंदोलन में हुआ तो वह समाजवादी आंदोलन था। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण एक तरफ थे और डॉ लोहिया दूसरी तरफ। केरल में पहली गैर कांग्रेस सरकार बनी थी। समाजवादी नेता थाणुपिल्लई वहां के मुख्यमंत्री बने। छात्रों का एक आंदोलन हुआ और उस आंदोलन पर पुलिस ने गोली चला दी। पुलिस जब आज तक औपनिवेशिक हैंग ओवर से मुक्त नही हो पायी है, तब तो आज़ादी मिले अधिक साल भी नहीं हुये थे। नशा तारी था।
डॉ लोहिया का कहना था कि आंदोलन करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है और पुलिस को शांतिपूर्ण प्रदर्शकारियों पर किसी भी दशा में गोली नहीं चलानी चाहिए थी। उन्होंने कहा सरकार जाती है तो जाय पर उन कदमों पर नहीं चलना है जिनपर अंग्रेजी हुकूमत चलती थी। समाजवादी पार्टी में मतभेद हो गया और लोहिया अलग हो गये। सुधरो या टूटो के मंत्र में टूटो का मार्ग लोहिया ने चुना। यहीं से जेपी एक तरफ और लोहिया दूसरी तरफ हो गए।
जेपी बाद में मुख्य राजनीति से किनारा कर लेते हैं और वे सर्वोदय की राजनीति में आ गए। लोहिया के अनुसार, जेपी मठी गांधीवादी बन गए। लोहिया खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। अचार्य जी भी इतने सक्रिय नहीं रहे। मूलतः वे अकादमिक व्यक्ति थे। बाद में बीएचयू के कुलपति भी कुछ समय के लिये रहे। लोकतांत्रिक समाजवाद उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उस समय चन्द्र शेखर जी नरेंद्र देव और जेपी के दल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी पीएसपी में शामिल हो गए। वे आजीवन जेपी के विश्वस्त शिष्य बने रहे। आचार्य नरेन्द्र देव के बारे में आप को व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में कुछ नहीं मिलेगा इसीलिए मैं यह सब आप को बता दे रहा हूँ। नरेंद्र देव की हैसियत और उनके अकादमिक ज्ञान का एक उदाहरण भी नीचे पढ़ लीजिए।
फैज़ाबाद में आमचुनाव था। नरेंद देव जी अपनी पार्टी पीएसपी से चुनाव में खड़े थे। उनका चुनाव चिह्न झोपड़ी था। उनके खिलाफ कांग्रेस से एक अल्पज्ञात सज्जन चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की तरफ से चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू फैज़ाबाद पहुंचे थे। उन्होंने चुनावी सभा मे जाने के पहले पूछा कि कांग्रेस के खिलाफ कौन चुनाव लड़ रहा है। तो उत्तर मिला कि आचार्य नरेंद्र देव। उन्होंने, तुरन्त कहा कि, ‘आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ कौन अहमक खड़ा हो गया।’ वे सभा मे तो गए पर वोट डालने की अपील उन्होंने नरेंद्र देव के लिए की। उनका कहना था कि भले ही नरेंद्र देव विरोधी दल से हों पर वे सबसे बेहतर प्रत्याशी हैं। लेकिन वह कांग्रेस के एकक्षत्र राज का जमाना था, आचार्य जी चुनाव हार गए।
इन्ही आचार्य नरेन्द्र देव के नाम पर दिल्ली में चंद्रशेखर जी ने नरेंद्र निकेतन के नाम से एक भवन में अपनी पार्टी समाजवादी जनता दल का मुख्यालय बनाया था। नरेंद्र निकेतन को शुक्रवार की शाम को सरकार द्वारा जमींदोज कर दिया गया। शहरी विकास मंत्रालय की इस कार्रवाई से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से जुड़े सारे दस्तावेज तहस नहस हो गए। इसी दफ्तर में पिछले माह 30 जनवरी को गांधी शांति यात्रा के बाद पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिंन्हा, शरद यादव और पृथ्वीराज चव्हाण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। यशवंत सिन्हा, चन्द्रशेखर के ही कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आये थे। दफ्तर ढहाने के विरोध में समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोगों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया है। समाजवादी जनता पार्टी (चंद्रशेखर) के नेताओं का आरोप है कि इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से नाराज होकर 12 फरवरी को शहरी विकास मंत्रालय ने आफिस की जगह को रद्द किया और दो दिन बाद इस आफिस को गिरा दिया गया।
भाजपा के मित्रों को आज़ादी के आंदोलन, उसके नेताओं, आंदोलन की विचारधाराओं औऱ प्रतीको से स्वाभाविक चिढ़ है। इसका एक बड़ा कारण उस दौरान आज़ादी के आंदोलनों से अलग रहना भी है। यह एक प्रकार की हीनग्रंथिबोध है, जो आप गौर से देखेंगे तो तुरंत समझ लेंगे। यही कारण है कि लोकतांत्रिक धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, विरोध, प्रतिरोध, असहमति जैसे शब्द और कार्य इन्हें असहज करते हैं। जब वे इन सबका राजनीतिक उत्तर नहीं ढूंढ पाते हैं तो सीधे धर्म और साम्प्रदायिकता पर कूद जाते हैं। यही आज भी हो रहा है।
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