अपनी आंखें बंद कीजिए और सोचिए। क्या आजाद भारत में कभी आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक की भागीदारी के बगैर कोई आंदोलन कामयाब हुआ है? आजादी के लिए हुए आंदोलनों में जरूर आरएसएस अलग रहा, लेकिन आजादी के बाद हुए आंदोलनों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसकी हर उस आंदोलन में भागीदारी रही है, जो गैरभाजपाई सरकार या कांग्रेस की सरकार रहते हुए हैं। कल्पना कीजिए कि अगर आज आरएसएस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में होती तो पेट्रोल-डीजल की बेलगाम होती कीमतों और रुपये के रसातल में जाने पर इतनी ही शांति रहती? अगर हम यूपीए के दूसरे कार्यकाल के अंतिम साल 2013 को देखें तो भारतीय जनता पार्टी महंगाई, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और भारतीय रुपये के गिरने पर सड़कों पर थी। मीडिया भी पूरी तरह भाजपा के साथ था।
70 के दशक में इमरजेंसी के दौरान हुआ जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरी तरह से आरएसएस ने कैप्चर कर लिया था। उसके कार्यकर्ता पूरी तरह से जेपी आंदोलन के साथ जुड़े हुए थे। यहां तक कि जेपी भी आरएसएस को एक सांस्कृतिक और देशभक्त संगठन कह बैठे थे। दरअसल, जब भी गैरभाजपाई सरकारों के खिलाफ कोई संगठन आंदोलन शुरू करता है, उससे अभूतपूर्व रूप से आरएसएस के लोग जुड़ जाते हैं। ऐसा लगता है कि देश की जनता सड़कों पर उतर आई है। आम आदमी, जिसका किसी विचारधारा से कुछ लेना देना नहीं होता, वह भी सड़कों पर आ जाता है।
2012 में दिसंबर में जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ तो चंद लोगों द्वारा शुरू किया गया आंदोलन आरएसएस की ही बदौलत कामयाब हुआ था। जरा सोचिए। क्या मोदी सरकार के दौरान देश में कोई निर्भया सरीखा वीभत्स रेप कांड नहीं हुआ? हुए हैं, कई हुए हैं, लेकिन चूंकि केंद्र और अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, इसलिए आरएसएस के कार्यकर्ताओं का खून नहीं खौला। बिहार में मुजफ्फरपुर शेल्टर कांड अगर राजद सरकार के दौरान हुआ होता तो क्या बिहार शांत रह पाता? यूपी के देवरिया कांड के बाद उत्तर प्रदेश में क्या इतनी ही इतनी शांति रहती?
गौर करें तो अब उल्टा हो रहा है। आरएसएस एक तरह से रेपिस्टों के समर्थन में उतर आता है, जिस पर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का मुखौटा लगा दिया जाता है। जम्मू के कठुआ में आसिफा के साथ हुए दुष्कर्म उसकी जघन्य हत्या में नामजद लोगों के समर्थन में जिस तरह से आरएसएस ने तिरंगा यात्राएं निकालीं, वह दुनिया की पहली मिसाल होगी कि कोई रेपिस्टों के समर्थन में सड़कों पर उतरा हो। उन्नाव में गैंगरेप के आरोपी भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के पक्ष में रैलियां निकालने वाले कौन लोग थे?
6 सितम्बर को एससी/एक्ट के विरोध में किया बंद क्या इतना ही शांतिपूर्वक निपट जाता है, अगर इसमें आरएसएस की भागीदारी होती? ये ठीक है कि संघ अंदरूनी तौर पर एससी/एससी एक्ट के खिलाफ ही होगा, लेकिन जब केंद्र में सरकार अपनी हो तो कैसे संघ सड़कों पर आ सकता था। हां, अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कांग्रेस सरकार पलट देती तो देश में आग लगनी तय था। याद कीजिए 1990, जब वीपी सिंह की जनता दल सरकार ने, जिसे भाजपा का भी समर्थन हासिल था,मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं थीं तो आरएसएस ने आरक्षण विरोधी आंदोलन के नाम पर देश में कितना तांडव किया था? 80 और 90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के दौरान न जाने कितने बंद किए गए, सबके सब कामयाब रहे। इतने कामयाब कि गली मोहल्ले की दुकानें भी बंद रहती थीं। मुसलमान दहशत के चलते खुद ही बंद कर देते थे। कई बंद हिंदू मुसलिम दंगों की वजह भी बने।
याद कीजिए अन्ना आंदोलन। कैसे आरएसएस ने उसमें अपनी भागीदारी करके उसे विश्वस्तर का आंदोलन बना दिया था। वही आंदोलन था, जिसने कांगे्रस की विदाई की पटकथा लिखी और कांग्रेस को 44 सीटों पर पहुंचा दिया। इसी आंदोलन की वजह से आज भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। पिछले दिनों एक बार फिर अन्ना हजारे केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ धरने पर बैठे। धरना क्यों सुपर फ्लॉप रहा, क्या यह बताने की जरूरत है?
तो क्या यह मान लिया जाए कि आरएसएस की भागीदारी के बगैर कोई आंदोलन सफल नहीं होता? जी, यह एक सच्चाई है। अपनी विचाराधारा के प्रति जितना समर्पित आरएसएस है, कोई दूसरा संगठन नहीं है। वामपंथी पार्टियां भी अब असरहीन होती जा रही हैं।
10 सितम्बर को कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल महंगाई, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और रुपये के लगातार नीचे जाने के विरोध में ‘भारत बंद’ कर रहे हैं। इस बंद का फ्लॉप होना तय है, क्योंकि कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों के पास आरएसएस से जैसे समर्पित कार्यकर्ता नहीं हैं। दूसरा, जितने भी व्यापार संगठन हैं, सब आरएसएस समर्थित हैं या उनके सभी पदाधिकारी संघ के पदाधिकारी है। ऐसे में कोई व्यापार संगठन बंद का समर्थन करेगा?
कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों को यह सोचना चाहिए कि क्यों वे मुद्दों पर सड़कों पर उतरने में पीछे हैं? क्यों उनके पास आरएसएस जैसा संगठन नहीं है, जो जनता के बीच जाकर अपनी बात कह सके?