मोदी की जीत भारतीय राजनैतिक चेतना का तीसरा सोपान है

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पिछड़ों और दलितों की राजनीति ने 20 साल में ही वह गलती दुहरा दी, जिसे करने में कांग्रेस ने करीब 40 साल लगाए थे. यानी वे उन्हीं पुराने मुहावरों और मुद्दों पर चुनाव लड़ते रह गए जो कब के बासी हो चुके थे और वर्तमान जनमानस की हसरतों से मेल नहीं खाते थे.
लोकसभा चुनाव 2019 में भारतीय जनता पार्टी को मिली 300 से अधिक सीटों की व्याख्या करने के लिए लगातार रूपक और संदर्भ गिनाए जा रहे हैं. यह गिनती कराते समय ज्यादातर पत्रकार और विद्वानों के सामने शब्दों का टोटा पड़ रहा है. इसलिए वे ज्यादतर चीजों के लिए ऐतिहासिक और महा शब्द का इस्तेमाल करने लगते हैं. जैसे ऐतिहासिक जीत या महाविजय. लेकिन इन दोनों विशेषणों का इस्तेमाल इतना आम हो गया है कि इनसे असल में कोई अर्थ निकलता नहीं है. और दूसरा नुकसान यह होता है कि ज्यादा सार्थक अर्थ व्यक्त करने वाले विशेषणों की खोज बंद हो जाती है, जबकि बहुत संभव है कि दूसरे विशेषण जीत की तीव्रता को ज्यादा सटीक ढंग से व्यक्त कर पाते.
खासकर इस जीत को ऐतिहासिक कहने में कई तरह की समस्याएं हैं. मसलन यह कहना कि 48 साल बाद देश में पूर्ण बहुमत की सरकार दुबारा चुनकर आई है. तो किसी के मन में सवाल आ रहा है कि अब तक हर चीज की तुलना 70 साल से होती थी, अब 48 साल से क्यों हो रही है. इसे सबसे बड़ा बहुमत भी नहीं कह सकते, क्योंकि इससे पहले भी कइयों बार इससे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी को सत्ता मिली है. बल्कि जब राहुल गांधी के पुरखों के नेतृत्व में सरकार बनी तो इससे ज्यादा बहुमत से ही बनी है. प्रधानमंत्री का दुबारा गद्दी पर बैठना तो कोई बात ही नहीं हुई, क्योंकि यह भी देश में होता ही रहा है. इसलिए अगर इस तरह के स्थूल आंकड़ों से इस जीत को ऐतिहासिक कहेंगे तो मामला न सिर्फ हास्यास्पद हो जाएगा, बल्कि तथ्यों से छेड़छाड़ करनी ही पड़ेगी.
इसलिए बड़ी बात करते हैं. यह जीत आपको बड़ी लग रही है, क्योंकि यह जीत वाकई बड़ी है. असल में यह भारतीय राजनीति के तीसरे सोपान की शुरुआत है.
पहला सोपान…
भारत की राजनीति का पहला सोपान जाहिर तौर पर भारत का आजाद होना और पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री बनना था. नेहरू के 17 साल के राज में राष्ट्र निर्माण और लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण हुआ, यह सबको पता है. लेकिन यहां यह देखना पड़ेगा कि उनकी राजनीति का केंद्र बिंदु क्या था. जनता क्या किसी चीज पर मोहित होकर उन्हें या कांग्रेस को वोट देती थी. तो साफ समझ में आएगा कि उस समय नेहरू और कांग्रेस ही राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रतीक थे. उन्होंने 30 साल तक आजादी की लड़ाई लड़ी थी और उनके साथियों ने भी. यह एक गहरा भरोसा था. यही भरोसा समय के साथ कमजोर होता रहा और जब तक बहुत क्षीण नहीं पड़ गया तब तक नेहरू और कांग्रेस के उत्तराधिकारी राज करते रहे. यही भारतीय राजनीति का पहला सोपान है.
यह सोपान कब का बीत चुका है. लेकिन कांग्रेस पार्टी आज भी इसी में जी रही है. नेहरू भले ही कांग्रेस को समझा गए हों कि अतीत की कमाई से भविष्य की गृहस्थी नहीं चल सकती. अगर नया नहीं कमाएंगे और पुराने के भरोसे रहेंगे तो बड़े से बड़ा धन्ना सेठ कंगाल हो ही जाता है. लेकिन कांग्रेस नई कमाई के तरीके यानी जनता से जुड़ने का कोई नया तरीका नहीं ढूंढ पाई. वह तार्किक हो सकती है, लेकिन उसके पास कोई नया सपना नहीं है और न ही उसके पास भावनात्मक कनेक्ट बचा है. राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस की सरकार 15 साल चली, लेकिन वह राजनैतिक विकल्पहीनता के कारण बनी, न कि जनता की उस जबदरस्त चाहत से जो नेहरू और इंदिरा के लिए हुआ करती थी. जनता के भीतर जब अपने नेता के प्रति जुनून मर जाता है तो नेता भी मर जाता है. कांग्रेस उसी दौर से गुजर रही है.
दूसरा सोपान
दूसरा सोपान समाजवादी, दलित और वामपंथी राजनीति का है. जब नेहरू और कांग्रेस की लोकप्रियता चरम पर थी, उस समय भी जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, डॉ. भीमराव आंबेडकर और कई प्रमुख वामपंथी नेता एक नई राजनीति की शुरुआत कर रहे थे. ये सब लोग कांग्रेस के खिलाफ थे. उनके पास जनता के सामने पेश करने के लिए एक सपना था. ये लोग चुनाव नहीं जीत पाते थे, लेकिन उनका विचार जनता तक जाता था. यह विचार मध्यमवर्ग के एक तबके में भी लोकप्रिय था. भले ही उनकी बात लोग मानें या न मानें.
इनके पास वही नैतिक बल था जो गांधी और नेहरू की कांग्रेस में हुआ करता था. यह नैतिक बल इनके पास भी आजादी के उसी संघर्ष से आया था, जो कांग्रेस पार्टी में आया था. लेकिन कांग्रेस सत्ता में थी और ये लोग विपक्ष में, इसलिए उनका रहन-सहन, बोलचाल और जनता से जुड़ाव ज्यादा सादा और आत्मीय था. लेकिन इस सोपान को सिरे चढ़ने में वक्त लगा.
इनका पहला वक्त तो तब आया जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया और इन लोगों को आजाद भारत में पहली बार आजादी की लड़ाई लड़ने का दूसरा मौका मिला. संघर्ष में जोश और भावनाएं दोनों होती हैं, जो राजनीति की अनिवार्य खुराक हैं. यहां इनके साथ पहली बार बड़े पैमाने पर देश का नौजवान जुड़ा. यानी देश का भविष्य अब उनके साथ हुआ. 1980 के दशक के अंत में जब देश में बहुत से मामले गरमाए और कांग्रेस का वह नेतृत्व दुनिया से विदा हो गया जिसने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, तो इन नए योद्धाओं के पास ज्यादा नैतिक बल था. इसी के दम पर लोहिया और जेपी के समाजवादी चेले राजनीति में कामयाब होने शुरू हुए.
लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेता यहीं से आए. चौधरी देवीलाल, थोड़े अलग तरह से कांग्रेस से अलग हुए बीजू पटनायक और कांग्रेस समाजवादी गोत्र के बहुत से नेता इसी धारा से निकले. वीपी सिंह के नेतृत्व में 1989 में जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के बाहर के सहयोग से जनता दल की सरकार बनी तब इस विचार को सत्ता मिली. इस समय लालू प्रसाद और मुलायम मुख्यमंत्री बने. यूपी और बिहार जैसे बड़े राज्य स्थायी रूप से कांग्रेस की पकड़ से छूट गए.
इन नेताओं का उभार भारत की पिछड़ी और वंचित जातियों के उभार के तौर पर था. इससे पूरे पिछड़े समाज के सामने सत्ता में बराबर भागीदारी का सपना पैदा हुआ. इस सपने में भी जोश और भावनात्मक अपील थी. यह सपना पूरे भारत में जबरदस्त तरीके से फैला. प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की सूची में धड़ाधड़ पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के नाम जुड़ गए. इससे पहले यह नाम ज्यादातर ब्राह्मण उपनाम वाले होते थे.
इसी के समानांतर एक और विचार था जो डॉ. आंबेडकर से शुरू हुआ था, दलित चेतना का. डॉ. आंबेडकर भी कभी चुनाव नहीं जीते, लेकिन कांशीराम ने इस विचार को राजनैतिक ताकत दी. कांग्रेस के कमजोर होने के दौर में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी खड़ी की. एक ऐसी पार्टी जिसका नेतृत्व दलितों के पास था. दलितों के साथ अतिपिछड़ा वर्ग भी इस पार्टी से जुड़ा. इस पार्टी को खड़ा करने में कॉर्पोरेट पैसा नहीं, बल्कि नौकरीपेशा और मजदूर वर्ग के दलितों का चंदा लगा था. वे उस वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने जा रहे थे, जिसने उन्हें अछूत बनाकर रख दिया था. यह प्रयोग भी कामयाब रहा और मायावती दलित चेतना की मुख्यमंत्री बनीं.
पिछड़े और दलितों के इस उभार ने 1989 से लेकर 2019 तक भारतीय राजनीति को एक ध्रुवीय से बहुध्रुवीय बनाया. इसमें से एक ध्रुव भाजपा का भी था जो ठीक इसी समय पैदा हुआ था, उसकी चर्चा आगे करेंगे. लेकिन पहले 2014 और अब 2019 में हमने देखा कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, चौधरी देवीलाल का परिवार, उधर कर्नाटक में देवगौड़ा का जेडीएस सब हाशिये पर आ गए. नवीन पटनायक उड़ीसा में बचे हुए हैं, लेकिन कब तक. ये सब नेता न सिर्फ हारे, बल्कि बुरी तरह हारे. क्यों!
शायद इसलिए कि जिस बात को 1990 के दशक में सामाजिक बराबरी और दलित चेतना कहा जाता था वह दो दशक में छीज गई. वे भी कांग्रेस की तरह सत्ता की बीमारी और सत्ता बचाने के लिए समीकरणों के सहारे हो गए. सामाजिक न्याय का मतलब जातिगत राजनीति हो गया. लेकिन 2019 में हमने देखा कि सपा और बसपा साथ मिलकर भी बीजेपी से हार गए. यानी उनका जो जातिगत वोट बैंक था, वह भी वे संभाल नहीं पाए. उनके वोटर में यह वितृष्णा कहां से आई. वे कैसे अपनी जाति के खूंटे से हट गए. उनके नेताओं में वह नैतिक बल क्यों नहीं बचा जो 30 साल पहले हुआ करता था. आखिर ये लोग भी नया सपना क्यों नहीं दे पाए!
पिछड़ों और दलितों की राजनीति ने 30 साल में ही वह गलती दुहरा दी, जिसे करने में कांग्रेस ने करीब 40 साल लगाए थे. यानी वे उन्हीं पुराने मुहावरों और मुद्दों पर चुनाव लड़ते रह गए जो कब के बासी हो चुके थे और वर्तमान जनमानस की हसरतों से मेल नहीं खाते थे. लेकिन जनता को कहीं तो मेल खाना था.
तीसरा सोपान…
आज जो चुनाव परिणाम दिख रहे हैं, उनकी नींव चाहे अनचाहे मुझे 2011 में दिखाई देती है. क्योंकि जहां तक विचार का सवाल है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उम्र करीब 100 साल की हो गई है. हिंदू राष्ट्र का उनका सपना आधिकारिक रूप से कम से कम इतना पुराना तो है ही. लेकिन इस सपने की राह में भारत के आजाद होते ही महात्मा गांधी और पंडित नेहरू आ गए. उन्होंने इसे हिंदू राष्ट्र बनने के बजाय सेक्युलर देश बनाया. सेक्युलर शब्द के चाहे जितने झूठे सच्चे अर्थ गढ़े जाएं, लेकिन भारत के संविधान और संविधान सभा की बहसों में साफ है कि इसका मतलब नास्तिक होना नहीं है. इसका यही मतलब है कि भारत में हर आदमी अपने धर्म का पालन करने को आजाद है, देश की सरकार का कोई धर्म नहीं होगा. वह सभी धर्मों को फलने फूलने देगी और किसी धार्मिक काम में न तो मदद करेगी और न अड़ंगा डालेगी. यानी धर्म को व्यक्ति और समाज के लिए छोड़ दिया. जिन लोगों ने यूरोप का इतिहास पढ़ा होगा, वह जानते होंगे कि जब राज्य किसी धर्म विशेष में बंध जाता है तो किस कदर अन्यायी और क्रूर हो जाता है.
इस तरह हिंदू राष्ट्र बनाने की ट्रेन 1947 में चूक गई. लेकिन संघ ने भी अपने समर्पण और अभियान में कोई कमी नहीं रखी. उनके लोगों ने भी उसी सादगी और अपरिग्रह के साथ हिंदू राष्ट्र के विचार को बड़े तबके में फैलाया. यह विचार बहुत से लोगों के अंदर पहले से ही था, भले ही वे राजनैतिक रूप से कांग्रेस या समाजवादी पार्टियों से जुड़े हों. इन लोगों को संघ से कोई स्पष्ट अरुचि नहीं रही.
संघ के इस अथक प्रयास को 1987 के आसपास एक बार फिर मंजिल मिलती दिखी, जब कांग्रेस कमजोर पड़ी और राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी का चुनावी मुद्दा बना. राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को राष्ट्रीय पार्टी बना दिया. पहले मध्य प्रदेश और राजस्थान और बाद में उत्तर प्रदेश में उसकी सरकारें बनीं. लेकिन इसी समय समाजवाद का भी उभार हुआ. इन ताकतों ने जल्द ही बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने की तैयारी को ध्वस्त कर दिया. खासकर यूपी में तो मुलायम और कांशीराम ने बीजेपी को लंबे समय के लिए कमजोर कर दिया. 1996 में वाजपेयी सरकार इसी वजह से गिरी. उसके बाद वाजपेयी साढ़े छह साल पीएम रहे, लेकिन समाजवादी गोत्र की ताकतों ने सरकार के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम से धारा 370, राम मंदिर और समान आचार संहिता जैसे मुद्दे बाहर कर दिए.
फिर आया 2011 जहां से चीजें बदलीं. कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. समाजवादी गोत्र की सरकारों को पहले ही भ्रष्टाचारी और वंशवादी घोषित कर दिया गया था. लोगों में जबरदस्त गुस्सा उठा. वे एक आदर्श राष्ट्र के सपने को लेकर सड़कों पर उतरने को तैयार थे. इस समय बीजेपी भी लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में निढाल थी. देश में राजनीतिक नेतृत्व का शून्य था.
ऐसे में मध्यम वर्ग से अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का आंदोलन पैदा हुआ. इस आंदोलन ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार की मूर्ति बना दिया. लोकसभा चुनाव आने से पहले विधानसभा चुनाव में आंदोलन से बनी पार्टी ने दिल्ली में अपन दम भी दिखा दिया. लेकिन यह पार्टी राष्ट्रीय विकल्प नहीं हो सकती थी, उसके लिए संसाधन चाहिए थे.
यहीं बीजेपी ने खुद को रीलॉन्च किया और राजनैतिक शून्य को भरने 2013 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बीजेपी का प्रधानमंत्री कैंडिडेट बनाया.
2014 में नरेंद्र मोदी की जीत सबको याद है. लेकिन उसको समीकरणों में समेटना कठिन है, क्योंकि वह स्पष्ट रूप से कांग्रेस के खिलाफ गुस्से की जीत थी. हां, इसमें एक बात और हुई कि नरेंद्र मोदी समाज के बहुत बड़े वर्ग में प्रिय हो गए. उनके पास वह नैतिक ताकत और जोश था जो राजनीति की जरूरी खुराक है. उन्होंने अपने इस नैतिक उच्च स्तर को लगातार ऊपर ही रखा. उनके हर फैसले को लोगों ने स्वीकार किया भले ही उससे उनका अच्छा हुआ हो या बुरा. धीरे-धीरे लोग उन्हीं में अपने देश की मूर्ति देखने लगे. मोदी देश हो गए. हालांकि आबादी का बड़ा हिस्सा इस मूर्ति से दूर ही रहा.
देश होना बड़ी चीज है. इसके साथ एक बड़ी चीज और थी, वह यह कि 1989 में जब सामाजिक न्याय और हिंदू राष्ट्र की ताकतें उभर रहीं थीं, तब उदारीकरण नहीं आया था. आज 2019 में देश का मध्यम वर्ग उस जमाने की तुलना में चार गुना हो चुका है. अब वह पहले का अनमना वोटर न होकर, कतार में लगकर वोट डालता है और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स से ओपिनयन निर्माण का हिस्सा बनता है. इस वर्ग में पहले सवर्ण ही हुआ करते थे. लेकिन इन 30 साल की सरकारों ने सरकारी के साथ निजी क्षेत्र से भी मध्यम वर्ग पैदा किया. यह अब सवर्ण के साथ दूसरी जातियों से भी आया.
पिछड़े वर्ग से पनपे इन नए मध्यम वर्ग की हसरतें भी सवर्ण मध्यम वर्ग जैसी हुईं. इसके जीवनमूल्यों में साफ सुथरे कपड़े, इंग्लिश मीडियम में बच्चों को पढ़ाना, नए किस्म की दुकानों से सामान खरीदना, टीवी देखकर अपना मानस बनाना और भीड़ में खुद को सुरक्षित मानना शामिल हो गया. यह उस पिछड़े नेतृत्व से अलग था जो 1989 के आसपास संघर्ष करना चाहता था. इसी तरह दलित निम्न मध्यम वर्ग भी संघर्ष के आंबेडकरवादी विचार की जगह अब खाते पीते मध्यम वर्ग की नकल करना चाहता है.
पहले पलायन और फिर टीवी और मोबाइल ने शहर और गांव के बीच का बड़ा फर्क खत्म किया. अब गांव की हसरतें भी शहरी ही हैं. चूंकि विकास का मॉडल एक सा है इसलिए हर छोटे शहर को महानगर जैसा बनने की और हर गांव को छोटे शहर जैसा बनने की इच्छा है. नरेंद्र मोदी ने खुद को विकास की इन आकांक्षाओं का महापुरुष बनाकर पेश कर दिया.
इस तरह जो हिंदू समाज पहले अगड़े पिछड़े और दलित में बंटा था. गांव और शहर में बंटा था. अपने सामाजिक सम्मान को हासिल करने के लिए संघर्षरत था. उसको मोदी के रूप में ऐसा नायक मिला था जो उनकी हर हसरत पूरा करने का वादा करता था. साथ ही यह नायक अल्पसंख्यक शब्द से परहेज करता था. वह खुले तौर पर कहता था कि सेक्युलरिज्म ने देश को बरबाद किया. यह बात अल्पसंख्यकों के प्रति हमेशा से शंकालु रहे हिंदुओं को एक साथ आने के लिए और प्रेरित करती गई. और जब उन्होंने पाकिस्तान को लेकर आक्रामक रुख का जबरदस्त प्रचार किया तो राष्ट्रवाद, विकास और हिंदुत्व ने मिलकर ऐसी चुनावी वज्र तैयार किया जिसने क्षेत्र और राजनीति के समीकरणों को ध्वस्त कर दिया.
इस समय भारत का यही सपना है. पिछले दो सपनों की तरह इसकी लड़ाई सिर्फ जमीन पर नहीं हो रही है, इसकी लड़ाई जमीन से ज्यादा प्रचार माध्यमों में हो रही है. लोग इससे मानसिक रूप से जुड़े हुए हैं. इसके लिए खून पसीना नहीं बहाना है, अपने घर में बैठकर टीवी देखनी है और व्हाट्सअप पर मैसेज फॉरवर्ड करने हैं. आपस की चर्चाओं में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की तारीफ करनी है. किसी भी कमी के लिए पुराने लोगों की गलतियां गिनाना है. खुद को और दूसरों को यह महसूस कराना है कि पूरी दुनिया में हमारा डंका बज रहा है, हम हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं, हम किसी रूप में अल्पसंख्यकों को अतिरिक्त मदद नहीं कर रहे हैं. यह एक जबरदस्त सपना है. इस सपने के रूप में भारतीय राजनीति के तीसरे सोपान की शुरुआत हुई है. यह सिर्फ शुरुआत है.

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