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ईरान अमरीका विवाद और भारत

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कुछ मित्र इसे भी एक उपलब्धि मान रहे हैं कि अमेरिका ईरान के विवाद में हमे किसी महत्वपूर्ण भूमिका के लिये पूछा जा रहा है। विशेषकर वे मित्र जो 2014 के बाद ही संबोधि को प्राप्त हुए हैं, उन्हें यह बात अधिक लगती है कि यह एक महान उपलब्धि है। जबकि हम दुनिया के विकासशील देशों में प्रमुख स्थान रखते हैं। सबसे उभरते हुए बाजार के रूप में विश्व के निवेशकों में जाने जाते हैं। हमें ऐसी हीनभावना से मुक्त होना चाहिए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के विदेश नीति का इतिहास देखें। जब दुनिया दो ध्रुवीय थी, एक तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी खेमा था और दूसरी तरफ सोवियत रूस के नेतृत्व में कम्युनिस्ट खेमा था । शीत युद्ध का काल था। सीआईए और केजीबी के जासूस एक दूसरे के खिलाफ लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे, तब जवाहरलाल नेहरू ने यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो और मिश्र के राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासिर के साथ मिलकर औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त हुये एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों का एक संगठन बनाया था जो गुट निरपेक्ष आंदोलन Non Alligned Movement NAM कहलाता था। उद्देश्य, दोनों प्रतिद्वंद्वी खेमों से अलग रहते हुये शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के साथ अपने अपने देश का विकास करना। अब यह उद्देश्य कितना सफल हुआ यह अलग बात है।
उसी पंचशील के युग मे हमे चीन का हमला भी झेलना पड़ा। इसे नेहरू की कूटनीतिक विफलता या उनका गलत आकलन भी कह सकते हैं। धीरे धीरे दुनियाभर के सौ से ऊपर छोटे बड़े देश उसमे शामिल हो गए थे। हालांकि 1971 में हुई भारत सोवियत रूस परस्पर सैन्य संधि को कुछ कूटनीतिक विशेषज्ञ, गुट निरपेक्ष आंदोलन से एक विचलन भी मानते हैं। एनएएम देशों में  अधिकतर देश एशिया अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के थे। भारत, अपने आकार, आबादी, विविधता और बढ़ती हुयी आर्थिकी के काऱण से उस संगठन में एक प्रमुख ताक़त था। नेहरू की निजी हैसियत, अपने समय मे, किसी भी महाशक्ति के प्रमुख से कम नहीं थी।
धीरे धीरे 1995 96 के बाद भारत खुद ही अमेरिकन लॉबी में चला गया। उधर सोवियत संघ बिखर गया था। दुनिया एक ध्रुवीय हो रही थी। भारत एशिया में चीन के साथ एक आर्थिक ताक़त बन कर उभरने लगा था। इसका एक बड़ा कारण 1991 में आर्थिक नीतियों में खुलापन लाना था और मुक्त बाजार ने तरक़्क़ी के मायने बदल दिये।
अचानक 2016 में नोटबंदी के मूर्खता पूर्ण निर्णय के बाद हमारी आर्थिक स्थिति गड़बड़ होनी शुरू हो गयी। यह कदम क्यों, किसके और किस उद्देश्य से उठाया गया यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका। आज हालत यह है कि, सभी आर्थिक सूचकांकों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। विकास दर यानी जीडीपी के 5 % या हो सकता है इससे भी कम रहने के अनुमान हैं। और यह अनुमान खुद रिज़र्व बैंक का है।
दुनियाभर में कोई भी देश आर्थिक ताक़त में अगर स्वावलंबी और मजबूत है तो उसकी पूछ है अन्यथा आत्ममुग्धता की पिनक तो है ही। समस्या एशिया की है तो, हम, पूछे ही जाएंगे। अमेरिका तो पहले इसलिए पूछेगा कि उसे मालूम है हम फिलहाल अमेरिकी लॉबी में हैं। उससे कई समझौते किये बैठे हैं। और अमेरिका को हमारी ज़रूरत भी है। साथ ही हमें भी उसकी। सरकार को पहले आर्थिक रूप से मजबूती हेतु कदम उठाने चाहिये। इसी से विश्व कूटनीति में भारत की हैसियत तय होगी।

© विजय शंकर सिंह
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