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दलितों के इस गुस्से और बेचैनी को समझिए

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एक अप्रैल को जब यह खबर आई थी कि दलित संगठन एससी/एसटी ऐक्ट में सुप्रीम कोर्ट के बदलाव के खिलाफ ‘भारत बंद’ करेंगे तो शायद ही किसी ने इसे गंभीरता से लिया होगा। सच तो यह है कि ज्यादातर लोगों को यह पता ही नहीं चला कि दो अप्रैल को ‘भारत बंद’ भी है। देश में ‘बंद’ का मतलब निकाला जाता है, बाजारों का बंद होना। कमोबेश देश के सभी व्यापार संगठनों पर एक तरह से भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है। व्यापारी वर्ग शुरू से ही भाजपा समर्थक माना जाता है। किसी व्यापारी संगठन ने भारत बंद में शामिल होने का ऐलान भी नहीं किया था। समझा जा रहा था कि दो अप्रैल का दिन सामान्य दिनों की तरह शुरू होगा। कुछ दलित संगठन सड़कों, चौराहों पर नारेबाजी करेंगे और अपने घर चले जाएंगे। लेकिन सवेरे से ही जिस तरह से दलित संगठनों से जुड़े युवाओं के जत्थे सड़कों पर निकले और उन्होंने तोड़फोड़ की, उससे न सिर्फ आम आदमी, बल्कि शासन प्रशासन भी सकते में आ गया। उसे कहीं से भी उम्मीद नहीं थी कि हालात इस हद तक बदतर हो जाएंगे।
सवाल यह है कि दलितों को इतना गुस्सा क्यों आया? क्या दलितों में अंदर ही अंदर गुस्सा पनप रहा था, जो एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के बहाने बाहर आया है? याद नहीं पड़ता कि कभी दलितों ने इतने बड़े पैमाने पर हिंसक वारदातें की हों। दरअसल, मोदी सरकार के चार साल के दौरान जिस तरह से दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं और उनकी तरफ से सरकारों ने आंखें मूंदें रखी हैं, उससे दलितों में गुस्सा बढ़ता चला गया। शुरुआत हुई गुजरात के ऊना में गाय की चमड़ी उतारे जाने पर दलितों की बेरहमी पिटाई से। उस वक्त दलितों ने गुजरात में जबरदस्त गुस्सा दिखाया था। लेकिन मोदी सरकार में शामिल दलित नेताओं ने उसकी अनदेखी की। जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेता ने उनके गुस्से को आवाज दी।
जगह जगह से दलितों पर अत्याचार के मामले सामने आते रहे। हाल फिलहाल में ही भावनगर (गुजरात) में उमराला तालुका के गांव तिम्बी में एक 21 वर्षीय दलित युवक प्रदीप राठोड़ ने एक घोड़ा खरीद लाया। यह गांव के क्षत्रियों को पसंद नहीं आई। प्रदीप पर घोड़ा बेचने के लिए दबाव बनाया गया। जब वह नहीं माना तो बीती 29 मार्च को उसी के खेत पर उसकी व उसके घोड़े की हत्या कर दी गई। क्या किसी दलित को घोड़ा खरीदना और उसकी सवारी करना मना है?
उत्तर प्रदेश के कासगंज का एक दलित युवक संजय कुमार हाईकोर्ट में यह गुहार लगाता है कि सवर्ण जाति के लोग उसे गांव में बारात नहीं ले जाने दे रहे हैं। उस गांव में आज तक कोई दलित घोड़ी पर सवार होकर बारात लेकर नहीं आया। उसे छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक गुहार लगाई कि उसे घोड़ी पर सवार होकर बारात ले जाने की इजाजत दी जाए। लेकिन उसकी नहीं सुनी गई। थक कर उसने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका डाली हाईकोर्ट ने 2 अप्रैल को उसकी याचिका यह कह कर खारिज कर दी कि अदालत में इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अगर सवर्ण जाति के लोग बारात में अड़ंगा डालते हैं, तो वह पुलिस की मदद ले सकता है। विडंबना यह है कि केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्यों में ऐसे मामलों अनदेखी की जाती रही।
रोहित वेमूला की आत्महत्या ने भी दलितों को विचलित किया था। सहारनपुर के शब्बीरपुर में दलितों के खिलाफ हिंसा अभी लोगों के दिलों में ताजा है। भीम आर्मी का चंद्रशेखर उर्फ रावण अभी तक जेल में है। दलितों पर अत्याचारों की बाढ़ इसके बावजूद आई, जब देश में एससी/एसटी एक्ट लागू था।
जब सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट को एक तरह से निष्प्रभावी कर दिया, तो दलितों को लगा कि जब एक्ट के रहते इतना अत्याचार होता है, तो एक्ट की धार कुंद हो जाने के बाद क्या हाल होगा। एक्ट के निष्प्रभावी होने की सूरत में दलितों में सुलग रही चिंगारी शोला बनकर सामने आई। दलितों को लगा कि केंद्र की मोदी सरकार आहिस्ता आहिस्ता उनका हक छीनती जा रही है। उन्हें यह भी लगा कि शायद एक दिन उनसे आरक्षण की सुविधा भी छीन ली जाए। यूं भी गाहे बगाहे संघ परिवार के अंदर से आरक्षण खत्म करने की आवाजें आती रहती हैं। यह बात दूसरी है कि खुद आरएसएस आरक्षण के मुद्दे पर बार बार बैकफुट पर जाता रहा है। दो अप्रैल के आंदोलन के बाद संघ ने दलितों के पक्ष में बोलकर यह जताने की कोशिश की है कि वह दलितों के हक कायम रखने के पक्ष में है।
दरअसल, केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें दलितों का मूड भांपने में नाकाम रहीं। गोरखपुर और फूलपुर की करारी हार के वक्त भी उसे एहसास नहीं हुआ कि दलित उससे छिटक चुका है। इससे शायद की किसी को इंकार हो कि 2014 के लोकसभा और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की शानदार जीत में दलित वोटों का भी बहुत बड़ा हाथ था। हिंदुत्व के नाम पर सभी पिछड़ी और दलित जातियों को भाजपा ने अपने झंडे के नीच कर लिया था। इन जातियों का एक बड़ा वर्ग इस आस में भी भाजपा से जुड़ा था, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने उन्हें ऊंचे ख्वाब दिखाए थे। चार साल बीतते-बीतते इन जातियों का भाजपा से मोहभंग हो गया। न तो उन्हें कोई आर्थिक लाभ हुआ, न ही सामाजिक बराबरी और सुरक्षा का एहसास हुआ। कोई भी राजनीतिक दल किसी जाति को महज जुमलों के आधार पर लंबे वक्त तक भरमाए नहीं रख सकता। उन्हें भी नहीं, जो उसके कट्टर समर्थक माने जाते हों।
मोदी सरकार को दलितों के गुस्से और बेचैनी को समझना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भारतीय जनता पार्टी इस मुगालते में रही कि दलित वोट उससे जुड़ चुका है, वह उसे बाहर नहीं जा सकता। भाजपा अगड़ी जातियों में दलितों के प्रति नरम रवैया अपनाने की भावना पैदा नहीं कर सकी। किसी दलित के यहां भोजन करने से सामाजिक समरसता नहीं आती। इस पर भी सितम जरीफी यह कि जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री दलित एक बस्ती में गए तो उस बस्ती के लोगों को साबुन और परफ्यूम वितरित किए गए, जिससे वह नहा धोकर ‘खुशबू’ के साथ मुख्यमंत्री से मिल सकें। दलितों के अंदर से उठने वाली ‘बदबू’ का एहसास मुख्यमंत्री को न हो सके। यह खबर मीडिया में खूब चली। क्या इससे दलितों ने अपने आपको अपमानित महसूस नहीं किया होगा?
दलितों के इस आंदोलन के बड़े राजनीतिक मायने हैं। 2019 के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। दलित वोटों के लिए मारामारी शुरू हो चुकी है। गोरखपुर और फूलपुर में सपा और बसपा का गठबंधन कामयाब होने के बाद विपक्ष को यह लगने लगा है कि अगर सही तरीके से गंठबंधन करके चुनाव लड़ा जाए तो 2019 में मोदी को रोका जा सकता है। उत्तर प्रदेश और बिहार लूज करने का मतलब है केंद्र से भाजपा सरकार की बेखदखली।
भाजपा भले की यह कहे कि गोरखपुर और फूलपुर सपा बसपा के गठबंधन की वजह से भाजपा हार गई, लेकिन बिहार के अररिया सीट के बारे में क्या कहेगी, जहां राजद ने भाजपा-जदयू गठबंधन को करारी शिकस्त दी है।
दलितों के आंदोलन के जरिए जो गुस्सा और बेचैनी सामने आई है, उसे भाजपा कितना कम कर पाती है और विपक्ष कितना इसे अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब होता है, यह देखना बहुत दिलचस्प होगा।