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23 मार्च को शहीद हुए थे "भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु"

by Team TH · March 23, 2018

23 मार्च 1931.. शहीद दिवस के रूप में जाना जाने वाला यह दिन यूं तो भारतीय इतिहास के लिए काला दिन माना जाता है, पर स्वतंत्रता की लड़ाई में खुद को देश की वेदी पर चढ़ाने वाले यह नायक हमारे आदर्श हैं. इन तीनों वीरों की शहादत को श्रद्धांजलि देने के लिए ही हर साल 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है.
23 मार्च 1931 की शाम करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई.फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आख़िरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए.कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले.”
फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो.”
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, माय रँग दे बसन्ती चोला.
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा.गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये. इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये.जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया.
दरअसल यह पूरी घटना भारतीय क्रांतिकारियों की अंग्रेज़ी हुकूमत को हिला देने वाली घटना की वजह से हुई. 8 अप्रैल 1929 के दिन चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली’ में बम फेंका गया.जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगतसिंह ने बम फेंका. इसके पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला.
26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया. 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई.
आज हम इन अमर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए इनके नाम के पीछे की कहानी बताते हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं..

भगत सिंह

सरदार किशन सिंह और विद्यावती कौर के घर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली बालक का जन्म हुआ, यही बालक आगे चल कर शहीद-ए-आज़म भगतसिंह कहलाये.भगतसिंह का नाम भगतसिंह कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक कहानी है.
शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के परिवार में वतन परस्ती कूट-कूट कर भरी हुई थी.उनके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह भी स्वतन्त्रता सेनानी थे. 28 सितंबर, 1907 के दिन जब भगत सिंह का जन्म हुआ तो उसी दिन उनके पिता और चाचा जेल से रिहा हो कर घर आए थे.घर में एक नन्हा सा सदस्य आने से घर में ख़ुशी का माहौल था.
जब भगत के पिता और चाचा घर आए तो भगत की दादी जय कौर ने कहा “ए मुंडा बड़ा ही भाग वाला है.” पिता और चाचा ने अपनी माँ की यह बात सुनी तो निर्णय लिया कि इस बच्चे का नाम भाग या इस से मिलता जुलता रखेंगे.परिवार में आम सहमति के बाद इस बच्चे का नाम भगत सिंह रखा गया.
इसी भगत सिंह ने आगे चल कर मात्र 23 साल की ज़िन्दगी जी कर एक ऐसा स्वर्णिम इतिहास लिख दिखाया जो आज भी हर भारतीय को देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत कर देता है.

राजगुरु

24 अगस्त, 1908 को खेड़ा पुणे (महाराष्ट्र) में पण्डित हरिनारायण राजगुरु और पार्वती देवी के घर इस महान क्रांतिकारी और अमर बलिदानी का जन्म हुआ.शिवराम हरिनारायण अपने नाम के पीछे राजगुरु लिखते थे. यह कोई उपनाम नहीं है बल्कि यह एक उपाधि है.
इनके पिता पण्डित हरिनारायण राजगुरु, पण्डित कचेश्वर की सातवीं पीढ़ी में जन्मे थे. इनका उपनाम ब्रह्मे था.यह प्रकांड ज्ञानी पण्डित थे.एक बार जब महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा तो पण्डित कचेश्वर ने इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किया. लगातार 2 दिनों तक घोर यज्ञ करने के बाद तीसरे दिन सुबह बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई.जो कि बिना रुके लगभग एक सप्ताह तक चलती रही.इससे पण्डित कचेश्वर की ख्याति पूरे मराठा रियासत में फैल गई.
जब इसकी सूचना शाहू जी महाराज तक पहुंची तो वह भी इनकी मंत्र शक्ति के प्रशंसक हो गए.इस समय मराठा सम्राज्य में शाहू जी महाराज और तारा बाई के बीच राज गद्दी को लेकर टकराव चल रहा था. इसमें शाहू जी महाराज की स्थिति कमजोर थी. क्योंकि मराठा सरदार ताराबाई की सहायता कर रहे थे.
इसी घोर विकट परिस्थिति में शाहू जी महाराज को पण्डित कचेश्वर एक आशा की किरण लगे। इसी के चलते शाहू जी महाराज इनसे मिलने चाकण गाँव पहुंचे और शाहू जी महाराज ने अपने राज के खिलाफ हो रहे षडयन्त्रों से अवगत करवाते हुए उनसे आशीर्वाद माँगा.पण्डित कचेश्वर ने आशीर्वाद देते हुए युद्ध में इनके जीतने की घोषणा की.
जिसके बाद शाहू जी महाराज की अंतिम युद्ध में जीत हुई. शाहू जी ने इस जीत का श्रेय पण्डित कचेश्वर को दिया और उन्हें अपना गुरु मानते हुए राजगुरु की उपाधि दी. तभी से इनके वंशज अपने नाम के पीछे राजगुरु लगाने लगे.

सुखदेव

इनका जन्म पंजाब के लुधियाना जिले में 15 मई, 1907 में रामलाल और रल्ली देवी के घर हुआ था. इनके जन्म से 3 महीने ही इनके पिता का निधन हो गया था. इसलिए इनके लालन पोषण में इनके ताऊ अचिंतराम ने इनकी माता को पूर्ण सहयोग दिया.
सुखदेव को इनके ताऊ व ताई ने अपने बेटे की तरह पाला पोसा.यह शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के परम मित्र थे.क्योंकि भगत सिंह और सुखदेव ने लाहौर नेशनल कॉलेज से एक साथ शिक्षा ली थी.
सुखदेव ने लाला लाजपत राय की मौत का बदल लेने के लिए अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की योजना रची थी.जिसे 17 दिसम्बर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने अंजाम दिया था. इन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों को नाकरे जाने के फलस्वरूप अंग्रेजी में गाँधी जी को एक खुला पत्र लिखा था जो कि तत्कालीन समय में बहुत ही चर्चाओं में रहा और युवा वर्ग में काफी लोकप्रिय भी हुआ.
यह एक संयोग ही है कि यह तीनों अमर शहीद 1 साल(1907-1908) के भीतर ही पैदा हुए और 23 मार्च, 1931 को एक दिन एक साथ ही शहीद हो गए.इनकी इस शहादत को भारत का हर एक बच्चा आज तक भी नहीं भूल पाया है और आनी वाली कई सदियों तक नहीं भूल सकेगा.भारत माता के इन अनमोल रत्नों की शहादत को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है.


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