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अक्सर खामोश रहने वाले गुलजार की बोली को समझने की कोशिश करनी ही होगी

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कहीं पढ़ा था कि गुलजार साहब टॉलस्टॉय के एक वाक्य से बेहद प्रभावित हैं। ‘ तब तक मत लिखो, जब तक उसे लिखे बिना रह नहीं सकते हो।’ माने तब तक मत कहो जब तक कहे बिना रह नहीं सकते हो। तो अब अपने जीवन के 81 वें साल में अगर वो कुछ कह रहे हैं, तो बहुत ज़रुरी है कि उनके कहे को सुना जाए। गुलजार के बारे में एक बात मशहूर है कि उन्हें कभी तेज ग़ुस्सा नहीं आता। ‘जला दो मिटा दो टाइप…’ गाने कभी नहीं लिखे। उनका लहज़ा नर्म है और तल्खी में भी एक अदब है। पिछले 50 साल से कलम को ही अपनी जुबां बना लेने वाले गुलजार को अब कहना पड़ रहा है, कि हालात तसल्ली लायक नहीं हैं, बेचैनी है ?
क्यों गुलजार ने ऐसा तब नहीं कहा जब उनकी फिल्म आंधी को बैन किया गया था? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलते-जुलते किरदार वाली इस फिल्म को रिलीज के 20 हफ्ते बाद बैन किया गया और कुछ सीन हटाए जाने के बाद ही फिल्म फिर से पर्दे पर उतर पाई। लेकिन तब भी गुलजार साहब ने नहीं कहा कि हालात ठीक नहीं ? गुलजार की कलम से राजनीति और उसके इर्द गिर्द बुनीं ऐसी कई कहानियां पर्दे पर उतारी गईं जिन्होंने सवाल उठाए…बेचैन किया।

‘मेरे अपने ‘से लेकर हुतूतू एक लंबी कड़ी है। लेकिन एक भी बार उन्होंने ये नहीं कहा कि घुटन है, बेचैनी है। किस को याद नहीं फिल्म मेरे अपने का ये गीत

आबोहवा, आबोहवा देश की बहुत साफ है,
कायदा है, कानून है, इंसाफ है
अल्लाह मियाँ जाने कोई जिये या मरे
आदमी को खून वून सब माफ है.

तब सवाल ये कि क्यों एक रचनाकार को सामने आना पड़ता है, और वह कहना पड़ता है। जिसे वो अपनी रचनाओं, कहानियों, कविताओं के जरिए कह सकता है। समाज को आईना दिखा सकता है, कहते हैं यूनान के स्पार्टा में स्पर्धा कैसी भी हो जीतता वही था, जो सबसे ज्यादा शोर मचाता था। कहीं न कहीं आज के समय की सच्चाई भी यही है।  जो शोर मचाता है वो जीतता है। साहित्यकारों, शायरों के विरोध का भी विरोध करने वाले साहित्यकारों ने दिल्ली की गलियों में जितना शोर मचाया वहीं अवॉर्ड लौटाने वाले साहित्याकारों का प्रतिकार भी खामोश था।
दरअसल खामोशी अभिव्यक्ति की सबसे तीखी जुबां है, जो बहुत कुछ कहती है…चीखती चिल्लाती भी है। लेकिन दिक्कत ये कि ये जुबां हर किसी की समझ में आती नहीं। खासकर सियासत की गलियों में तो खामोशी की ये गूंज बिना अपना वजूद दर्ज कराए लौट आती है। असल दिक्कत तभी होती है, जब कोई समाज आईना भी देखना नहीं चाहता तो उसे सच्चाई कोई दिखाए कैसे, जब कोई सुनना न चाहे तो उसे सुनाए कैसे? इसीलिए किस्से, कहानियों की भाषा बोलने और समझने वाले साहित्यकारों को अब ‘बोलना’ पड़ रहा है।
इसीलिए 47 के विभाजन की कहानियों में (पुश्तैनी गांव, जो अब पाकिस्तान में है) आज भी अपना बचपन तलाशने वाले संपूर्ण सिंह कालरा अगर कहते हैं, कि पहले किसी का धर्म ऐसे पूछा नहीं जाता था। तो समझना होगा कि वो क्या कहना चाहते हैं। साहित्यकार कब बोलते हैं,चाहे वो लेखनी के जरिए हो या मुंह के, और वो कब खामोश होते हैं। ये समझने की कोशिश करनी होगी, समाज को भी, सियासत को भी। इसीलिए सालों से खामोशी की पैहरन ओढ़े गुलजार की बोली को समझने की कोशिश करनी ही होगी।