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धारा 144 का इस्तेमाल विचारों की वैध अभिव्यक्ति को रोकने के टूल के रूप में नहीं किया जा सकता

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भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप, ब्रिटिश राज ने 1858 में जब 1857 के विप्लव के बाद सीधे अपने आधीन कर लिया था तब बनाया। दंड प्रक्रिया संहिता, सीआरपीसी भी उसी समय संहिताबद्ध हुई। चूंकि भारत एक औपनिवेशिक दासता में था और 1857 का विप्लव हो चुका था, और अंग्रेज इस बात से सदैव आशंकित रहते थे कि कहीं भारतीय जनमानस पुनः न संगठित होकर उबल पड़े इसलिए उन्होंने उन दंडात्मक प्राविधानों को पहले रखा जो राज्य के विरुद्ध अपराध थे और लोगों को संगठित होने से रोकते थे।
ऐसे जमावड़े को विधिविरुद्ध जमाव या सम्मेलन कहा गया और उसे हतोत्साहित करने के लिये धारा 144 की शक्ति मैजिस्ट्रेट को दी गयी। यह कानून 1986 में ब्रिटिश दंड प्रक्रिया संहिता से हटा दिया गया है। वहां विधिविरुद्ध जमाव की कोई अवधारणा ही नहीं है। इसे राज्य के लिये कोई खतरा ही नहीं माना गया है, बल्कि लोगो को एक जगह पर एकत्र होने पर रोक को अभिव्यक्ति और निजता पर राज्य का अतिक्रमण माना गया है। लेकिन हमारे यहां पहला कदम है जो राज्य किसी भी आकस्मिकता या शांतिभंग की संभावना पर उठाता है।
1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 कार्यकारी मजिस्ट्रेट को एक क्षेत्र में चार से अधिक व्यक्तियों की एक सभा को प्रतिबंधित करने का अधिकार देती है। विधिविरुद्ध सम्मेलन या गैरकानूनी सभा, जानबूझकर शांति भंग करने के आपसी इरादे लेकर सम्मिलित होने वाले लोगों के एक समूह का वर्णन करने के लिए एक कानूनी शब्द है। धारा 144 के वास्तुकार, ईएफ देबू जो बड़ौदा रियासत में एक अधिकारी थे। इन्होंने इसे लगभग सन 1861 में जब सीआरपीसी संहिराबद्ध की जा रही थी, तो इसे रखने का प्रस्ताव रखा था। उनकी इस पहल के लिए उन्हें बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ ने स्वर्ण पदक से सम्मानित किया था।
कश्मीर में अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद वहां लंबे समय तक धारा 144 के अंतर्गत निषेधाज्ञा लगी है। उसे लेकर एक कानूनी प्रश्न उठ खड़ा हो गया कि, क्या 144 का अबाध रूप से लगाये रखना न्यायोचित है ? क्या राज्य शांति व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर इस प्राविधान का दुरूपयोग नहीं कर रहा है ? क्या लोगों की निजता और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाधित करने के लिये राज्य इस कानून का उपयोग तो नहीं कर रहा है ? इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ याचिकाओं का निपटारा किया है जिसका उल्लेख इस लेख में है। लेख लाइव लॉ में अंकित मुकदमो के निष्कर्ष पर आधारित है।
सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि तब भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो। कश्मीर लॉकडाउन मामले में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों को विचारों की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि, “सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति में और कानूनन नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने से रोकने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से लागू होगें। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दोहराए गए आदेश, अधिकारों का दुरुपयोग माना जाएगा।”

पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के बारे में अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि

”जैसा कि आपात स्थिति, सरकार के कार्यों का पूरी तरह से बचाव नहीं करती, असहमति अस्थिरता को उचित नहीं ठहराती, कानून का शासन हमेशा चमकता है।”
न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति बी.आर गवई की पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति के प्रयोग के सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत किया।

  • सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि वहां भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो।
  • हालांकि, खतरे का चिंतन ”आपातकाल” की प्रकृति का होना चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होना चाहिए।
  • सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति का उपयोग विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता है।
  • सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, में आवश्यक और भौतिक तथ्यों को बताया जाना चाहिए ताकि उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सके।
  • शक्ति का प्रयोग वास्तवकि और उचित तरीके से किया जाना चाहिए, और यह आदेश भौतिक तथ्यों पर भरोसा करके दिया जाना चाहिए, जो समझदारी से लिये गए निर्णय का सूचक भी हो। यह पूर्वोक्त आदेश की न्यायिक जांच को सक्षम बनाएगा।
  • सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति का प्रयोग करते समय, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह आनुपातिकता के सिद्धांतों के आधार पर अधिकारों और प्रतिबंधों को संतुलित करे और उसके बाद कम से कम हस्तक्षेप करने वाले उपाय लागू करे।
  • सीआरपीसी की धारा 144 के तहत बार-बार दिए गए आदेश, शक्ति का दुरुपयोग होगा।
  • सीआरपीसी की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों का प्रयोग उस समय भी किया जा सकता है,जब खतरे की आशंका हो।

याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दलीलों में से एक यह थी कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दिए गए ऐसे आदेश महज आशंका के चलते पारित किए गए जो कानून की नजर में बरकरार नहीं रह सकते।

इस को खारिज करते हुए, पीठ ने बाबूलाल परते नामक मामले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि

  • इस धारा के तहत दी गई शक्ति न केवल वहां प्रयोग की जा सकती है, जहां वर्तमान में खतरा मौजूद है, बल्कि खतरे की आशंका होने पर भी प्रयोग करने योग्य है।

लेकिन न्यायालय ने यह कहकर उसे सीमित बना दिया कि खतरे की प्रकृति

  • आपातकाल”की होनी चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होनी चाहिए।
  • किसी भी विचार या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं की जा सकती।

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल द्वारा व्यक्त की गई चिंता कि ” भविष्य में कोई भी राज्य इस प्रकार के पूर्ण प्रतिबंध पारित कर सकता है, उदाहरण के लिए, विपक्षी दलों को चुनाव लड़ने या भाग लेने से रोकने के लिए।”

इस पर पीठ ने कहा कि-

  • इस संदर्भ में, यह नोट करना पर्याप्त है कि सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति को विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
  • हमारा संविधान भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति, वैध अभिव्यक्तियों और अस्वीकृति की रक्षा करता है और यह सब सीआरपीसी की धारा 144, के आह्वान का आधार नहीं हो सकते हैं। जब तक यह दिखाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं न हो कि हिंसा होने या सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा को खतरा या भय पैदा होने की आशंका है।
  • यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि (”बाबूलाल परते मामला (सुप्रा)”) सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति और कानूनन नियुक्त किसी भी व्यक्ति को बाधा और परेशान करने या चोट पहुंचाने से रोकने के उद्देश्य से लागू होंगे।
  • यह ध्यान देने के लिए पर्याप्त है कि याचिकाकर्ता की आशंकाओं को दूर करने के लिए सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पर्याप्त सुरक्षा के उपाय मौजूद हैं, जिनमें इस धारा के तहत शक्ति के दुरुपयोग को चुनौती देने वाली न्यायिक समीक्षा भी शामिल है।”

एक और विवाद यह था कि

  • ‘कानून और व्यवस्था’ ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ की तुलना में एक संकीर्ण दायरे में है और ‘कानून और व्यवस्था’ का आह्वान सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के एक संकीर्ण सेट को ही उचित ठहराएगा।

इस पर पीठ ने विभिन्न मिसालों का जिक्र करते हुए कहा-

  • कानून और व्यवस्था’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ और ‘राज्य की सुरक्षा’ के अलग-अलग कानूनी मानक हैं और मजिस्ट्रेट को स्थिति की प्रकृति के आधार पर प्रतिबंधों का पालन करना चाहिए। यदि दो परिवार सिंचाई के पानी को लेकर झगड़ा करते हैं, तो यह कानून और व्यवस्था को भंग कर सकता है ,
  • लेकिन ऐसी स्थिति में जब दो समुदाय एक दूसरे से लड़ाई करते हैं, तो स्थिति सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति में परिवर्तित हो सकती है।
  • हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि उपरोक्त दो अलग स्थितियों का निर्धारण करने के लिए एक समान दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता। मजिस्ट्रेट मौजूदा परिस्थितियों के गंभीरता का आकलन किए बिना पूर्ण प्रतिबंध वाला सूत्र लागू नहीं कर सकता प्रतिबंध संबंधित स्थिति के लिए आनुपातिक होना चाहिए।”

शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए। पीठ ने यह भी देखा कि इस तरह के आदेश को किसी व्यक्ति विशेष या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि

  • सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित आदेश, सामान्य रूप से जनता के मौलिक अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव ड़ालता हैं।

पीठ ने कहा-

  • इस तरह की शक्ति, अगर एक आकस्मिक और लापरवाह तरीके से उपयोग की जाती है, तो इसका परिणाम गंभीर अवैधता होगा। इस शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से केवल कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के उपाय के रूप में किया जाना चाहिए।

इस सवाल पर कि क्या इस तरह के आदेशों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, पीठ ने कहा कि

  • यह सच है कि हम अपील में नहीं बैठते हैं, हालांकि, न्यायिक समीक्षा की शक्ति का अस्तित्व निर्विवाद है।
  • यह मजिस्ट्रेट और राज्य पर निर्भर है कि सार्वजनिक शांति और कानून के लिए संभावित खतरे और 113 आदेश के बारे में एक उपयुक्त या सूचना देने वाला निर्णय लें।

सार्वजनिक शांति और प्रशांति या कानून और व्यवस्था के लिए खतरे का आकलन करने के लिए राज्य को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। हालांकि, कानून के तहत उनको इस बात की आवश्यकता है कि इस शक्ति को लागू करने के लिए भौतिक तथ्यों को बताएं।
इससे न्यायिक जांच सक्षम होगी और इस बात की जांच हो पाएगी कि क्या पॉवर के आह्वान या लागू करने को सही ठहराने के लिए पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं।
ऐसी स्थिति में जहां नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा रहा है, उसे दी गई शक्ति से मनमानी के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह वस्तुनिष्ठ तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत निवारक/ उपचारात्मक उपाय, परिश्रम के प्रकार, प्रादेशिकता की सीमा, प्रतिबंध की प्रकृति और उसी की अवधि के आधार पर होना चाहिए।
तात्कालिकता की स्थिति में, प्रतिबंध या उपायों को तत्काल लगाने के लिए प्राधिकारी को अपनी राय बनाने के लिए ऐसी सामग्री के बारे में संतुष्ट होने की आवश्यकता होती है जो निवारक / उपचारात्मक हैं। हालांकि, यदि प्राधिकरण एक बड़े प्रादेशिक क्षेत्र पर या लंबी अवधि के लिए प्रतिबंध लगाने पर विचार करता है, तो सीमा रेखा या दहलीज की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक है।
सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, दिमाग के उचित अनुप्रयोग का संकेत होना चाहिए, जो 114 भौतिक तथ्यों और निर्देशित उपाय पर आधारित होना चाहिए। उचित तर्क, मामले में शामिल विवाद और उसके निष्कर्ष से संबंधित अधिकारी के दिमाग के प्र्योग को जोड़ता है। बुद्धिरहित या एक गुप्त तरीके से पारित आदेशों को कानून के अनुसार पारित आदेश नहीं कहा जा सकता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ और गुलाम नबी आजाद बनाम भारत संघ के मुक़दमे में जो कश्मीर लॉकडाउन के संदर्भ में दिया है। यह केस नंबर- डब्ल्यूपी(सी) 1031/19, 1164/19 है और पीठ में, जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस बीआर गवई थे।

( विजय शंकर सिंह )