वो पत्र, जो नेहरु और सरदार पटेल ने एक-दूसरे को लिखा था?

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आज सरदार पटेल का जन्मदिन है। आज गुजरात मे उनकी एक विशालकाय प्रतिमा का अनावरण हो रहा है और देश मे एकता दिवस मनाया जा रहा है। कही रन फ़ॉर यूनिटी निकालीं जा रही है तो कहीं उन्हें किसी और तरह से याद किया जा रहा है। आज भारत का जो भौगोलिक स्वरूप हम नक्शे पर देख रहे हैं वह स्वरूप सरदार पटेल का ही दिया हुआ है। 600 से अधिक देसी रियासतों का एकीकरण करना कोई सामान्य प्रतिभा की बात नहीं थी। यह दमखम सरदार में ही था।
अक्सर एक भ्रम जानबूझकर कर फैलाया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और बल्लभभाई पटेल के बीच वैमनस्य था। जब हम दो बड़े राजनेताओं के मत वैभिन्यता की चर्चा करते हैं तो उनके विपरीत मत मतांतर को विवाद के रूप में देखने लगते है। नेहरू और पटेल दोनों ही कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता थे। दोनों ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया, गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले थे। दोनों ही का मूल पेशा वकालत था। वकालत के मामले में पटेल नेहरू से बड़े वकील थे। वे उम्र में भी बड़े थे और नेहरू को उनके प्रथम नाम जवाहर से ही बुलाते थे। गांधी के दोनों ही प्रिय थे। लेकिन गांधी का अनुराग नेहरू के प्रति अधिक था। इसीलिए 1946 में जब कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात चली तो यह पद जवाहरलाल नेहरू को मिला जो बाद में प्रधानमंत्री के रूप में बदल गया। प्रधानमंत्री भले ही नेहरू रहे हों पर सरदार की बात कभी भी नहीं कटी। नियति ने उन्हें 1950 में उठा लिया पर उन्होंने 1947 से 1950 तक उन तीन साल के अवधि में जो किया वह उन्ही के बस की बात थी। उनकी दुर्दम्य लौह इच्छाशक्ति के कारण ही उन्हें देश का लौह पुरुष कहा गया।

आज़ादी के पहले जब मंत्रिमंडल बन रहा था तो सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में शामिल करने हेतु जो अनुरोध पत्र नेहरू ने पटेल को भेजा था उसके कुछ अंश पढ़ें। नेहरू ने लिखा था,

”कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं।’
जब नेहरू को मंत्रिमंडल का गठन करने और उसके सदस्यों की सूची भेजने के लिए कहा गया तो उन्होंने अपनी प्रथम सूची में सरदार पटेल को कोई स्थान नहीं दिया था। बाद में जब सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री के रूप में शामिल किया गया तो उन्होंने अपने एक कनिष्ठ सहकर्मी को सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेहरू ने स्वयं भी अहसास किया कि उनका प्रधानमंत्री बनना सरदार पटेल की उदारता के कारण ही संभव हो सका।

इस पत्र के जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा-

” आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।”

यह दो महान नेताओं के आपसी सम्बंध से जुड़े पत्राचार के अंश हैं। सरदार पटेल ने पत्र का जवाब किसी औपचारिकतावश नहीं लिखा था बल्कि यह उन दोनों के साझे संघर्ष की प्रगाढ़ता थी ।

अब पढिये सरदार पटेल ने अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले 2 अक्टूबर 1950 में नेहरू के बारे में क्या कहा था,

“अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।” (सरदार पटेल का पत्र व्यवहार, 1945-50, प्रकाशक नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद )
यह एक दुष्प्रचारित तथ्य है कि सरदार पटेल कांग्रेस के तीन दिग्गजों महात्मा गाँधी, नेहरु और सुभाष बाबू के खिलाफ थे। किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति के मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर ये मतभेद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक अंग थे न कि किसी की खिलाफत थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में शामिल करने के लिए नेहरु को तैयार किया था; यद्यपि नेहरु पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे। जहाँ सुभाष बाबू के साथ उनके संबंधों की बात है, वे सन् 1939 में दूसरी बार सुभाष बाबू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के खिलाफ थे। लेकिन इन सारे राजनैतिक मतभेदों के बावजूद भी सुभाषचंद्र बोस ने किस प्रकार सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल जिनका विएना में निधन हो गया था, के अंतिम संस्कार में मदद की थी, उससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम और सम्मान की भावना का पता चलता है।
नेहरू पटेल के बीच मतभेदों को दुष्प्रचारित करते हुए यह अक्सर कहा जाता है कि सरदार पटेल के संतानों को नेहरू ने पटेल की मृत्यु के बाद कभी भी सम्मान नहीं दिया। लेकिन वे यह तथ्य भूल जाते हैं कि,  नेहरू के रहते ही, मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला, और सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपने देहांत तक राज्यसभा के सदस्य रहे. उस समय पटेल के पुत्र के विरोध में कौन था, भारतीय जनसंघ। एक समय ऐसा भी आया जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे । जिस नेहरू को वंशवादी कह कर कोसा जाता है उनकी ही एकमात्र पुत्री इंदिरा गांधी को नेहरू के जीवित रहते तक लोकसभा और राज्यसभा का टिकट तक नहीं मिला। इंदिरा पहली बार राज्यसभा के लिये 1965 में जब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे तो चुनी गयी थी। जबकि 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने  मणिबेन 1952 के पहले ही आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया. और वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं. 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं. 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा. वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
गांधी और नेहरू संघ परिवार के सदैव निशाने पर रहे हैं और आज भी हैं। संघ परिवार के पटेल अनुराग का एक कारण यह भी है पटेल और नेहरू में कई  मामलों में वैचारिक मतभेद था। उन्ही लोकतांत्रिक मत मतांतर को संघ परिवार एक प्रतिद्वंद्विता के रूप में देखता है। ग़ांधी नेहरू के विरुद्ध प्राप्त हर तर्क और प्रसंग को यह लपक लेता है। संघ परिवार की मुख्य समस्या एक यह भी है कि उसे कांग्रेस की गाँधी-नेहरू विरासत की काट के लिए कुछ ऐसे नेता चाहिए जिनका उपयोग वह अपने हिन्दुत्व के एजेंडे के लिए कर सके। उसके अपने वैचारिक पुरखे इस काबिल नहीं हैं कि वे गाँधी-नेहरू की धर्मनिरपेक्ष विरासत का मुकाबला कर सकें, इसलिए संघ टोली ने सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस से लेकर भगतसिंह तक को अपने पुरखों से जोड़ने की नाकाम कोशिश कई बार की, जबकि पटेल, सुभाष और भगतसिंह आदि का संघ परिवार से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था।
नेहरू से कई मुद्दों पर मतभेद के बावजूद पटेल ने कभी नेहरू का साथ नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि नेहरू-लियाकत समझौते के बढ़ते विरोध पर जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश की तो पटेल ने ही उन्हें ऐसा न करने के लिए मनाया और कहा कि देश को आपके नेतृत्व की जरूरत है। 1947 में दिल्ली में दंगाई जब हजरत निजामुद्दीन की दरगाह तोड़ने के लिए बढ़ रहे थे, तब गृहमंत्री होते हुए पटेल खुद दरगाह में जाकर बैठ गए थे और सारे अधिकारियों को वहीं बुला लिया था। जहाँ तक संघ पर पाबंदी लगाने की बात है तो सरदार पटेल ने बतौर गृहमंत्री, न सिर्फ संघ पर पाबंदी लगाई बल्कि तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को गिरफ्तार करने में जब मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने कमजोरी दिखाई तो पटेल ने ही राज्य के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री द्वारकाप्रसाद मिश्र को 48 घंटे के भीतर गोलवलकर को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

गांधी हत्याकांड में संघ की भूमिका पर सरदार पटेल के यह शब्द पठनीय हैं

आरएसएस को हिंदुओं का संगठन कहना, उनकी सहायता करना एक प्रश्न है पर उनकी मुसीबतों का बदला निहत्थे व लाचार औरतों, बच्चों व आदमियों से लेना अलग प्रश्न है, उनके अतिरिक्त यह भी था कि उन्होंने (आरएसएस स्वयंसेवकों ने) कांग्रेस और समाज के एक खास वर्ग में विरोध करके बेचैनी पैदा कर दी थी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक द्वेष से भरे थे। हिन्दुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए यह आवश्यक न था कि वह जहर फैले। उस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गाँधीजी की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। इसके बाद जनता और देश की सहानभूति जरा भी आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ हो गई। महात्मा गाँधी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने हर्ष प्रकट किया व मिठाई बाँटी। इससे विरोध और भी बढ़ गया तथा सरकार को इस हालत में आरएसएस के खिलाफ कार्रवाई करना जरूरी थी।”
आज एकता दिवस है। पर एकता दिवस का संकल्प लेने के पूर्व हमे यह भी संकल्प लेना होगा कि हम हर उस विचार, संगठन, और व्यक्ति के विरुद्ध सरदार पटेल जैसी ऊंचाई और लौह इच्छाशक्ति के साथ खड़े हों जो देश, समाज और लोगों को किसी भी प्रकार के कठघरों में बांटने के लिये षडयंत्र और प्रयास कर रहे हैं। आज जब घृणा और विभाजनवाद एक स्थायी भाव बनता जा रहा है तो सरदार पटेल अचानक प्रासंगिक हो गए हैं।

© विजय शंकर सिंह
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