आसमान छू रही है बेरोज़गारी, राष्ट्रवाद के सहारे हवा हवाई प्रधानमंत्री मोदी – रविश कुमार

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एक तरफ बेरोज़गारी ( Unemployment in india ) बढ़ रही है तो दूसरी तरफ काम मांगने वालों की संख्या घटती जा रही है। काम मांगने वालों की संख्या को लेबर पार्टिसिपेशन रेट कहते हैं मतलब यह रेट तभी बढ़ता है जब काम मिलने की उम्मीद हो। 2018 की तुलना में 2019 के पहले दो महीने में काम मांगने वालों की संख्या घटी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की ताज़ा रिपोर्ट बता रही है कि लेबर पार्टिसिपेशन रेट अब 43.2 से 42.5 के रेंज में ही रहने लगा है। दो साल तक इस दर में गिरावट से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बेरोज़गारी कितनी भयंकर रूप ले चुकी है।
अब आप इस तरह से समझिए। कम लोग काम मांगने आ रहे हैं तब भी काम नहीं मिल रहा है। लेबर पार्टिसिपेशन रेट की गिनती में 15 साल से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया जाता है। जनवरी 2019 में बेरोज़गारी की दर 7.1 प्रतिशत थी फरवरी में बढ़ कर 7.2 प्रतिशत हो गई है। फरवरी 2018 में 5.9 प्रतिशत थी। फरवरी 2017 फरवरी में 5 प्रतिशत थी।
यही हालत विकास दर की है। लगातार गिरावट ही आती जा रही है। आर्थिक स्थिति में गिरावट का असर उपभोग पर पड़ा है। पिछले कुछ महीनों में आर्थिक रफ़्तार काफी बिगड़ी है। आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में नीलकंठ मिश्रा ने लिखा है। कच्चे तेल के दामों में कमी के बाद भी आर्थिक रफ़्तार तेज़ नहीं पकड़ सकी है। जबकि यह कहा जाता है कि मोदी सरकार में आर्थिक क्षेत्र में बुनियादी रुप से कई ठोस कदम उठाए गए मगर उनका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन बदलावों को पोजिटिव बताया जा रहा है उनमें ही बहुत ज़्यादा संभावना नहीं है।
बैंकों की हालत यह है कि एक लाख करोड़ से अधिक की पूंजी देने के बाद भी खास सुधार नहीं है। बैंक पूंजी जमा करने के लिए अपने कर्मचारियों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे उनके रद्दी हो चुके शेयर को ख़रीदें। बैंकर आए दिन अपने दफ्तर के आदेश की कापी भेजते रहते हैं कि उन्हें अपने बैंक का शेयर खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। हिन्दू मुसलमान के चक्कर में बैंकरों ने अपने लिए गुलामी ओढ़ ली। कंपनियां शेयर देती हैं लेकिन 1500 शेयर खरीदना ही पड़ेगा, पैसे नहीं होंगे तो लोन लेकर खरीदना पड़ेगा, यह सीधा-सीधा आर्थिक अपराध है। जो मिल गया उसे लूटने का जुगाड़ है ताकि बैंकों के शेयर को उछलता हुआ बताया जा सके।
आप समझ सकते हैं कि क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेरोज़गारी पर बात नहीं कर रहे हैं। पुलवामा के बाद एयर स्ट्राइक उनके लिए बहाना बन गया है। देश प्रेम देश प्रेम करते हुए चुनाव निकाल लेंगे और अपनी जीत के पीछे भयावह बेरोज़गारी छोड़ जाएंगे। प्रधानमंत्री का एक ही देश प्रेम है जो चुनाव में जीत प्रेम है।
मोदी सरकार के पांच साल में शिक्षा क्षेत्र का कबाड़ा हुआ। जो यूपीए के समय से होता चला आ रहा था। दिल्ली से बाहर के कालेजों के स्तर पर कोई सुधार नहीं हुआ। क्लास रूम बग़ैर शिक्षकों के चलते रहे। एक साल पहले भी 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम के खिलाफ अध्यादेश लाया जा सकता था मगर इसके चलते सरकार को यूनिवर्सिटियों में नौकरी नहीं देने का बहाना मिल गया। पांच साल में यह सरकार नई शिक्षा नीति नहीं ला सकी। अमीर लोगों के लिए इंस्टीट्यूट आफ एमिनेंस का ड्रामा किया। मगर साधारण परिवारों के बच्चों को अच्छा कालेज मिले इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने ज़ीरो प्रयास किया। आप सदा मुस्कुराते रहो के टैगलाइन की तरह मुस्कुराते रहने वाले मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से भी पूछ कर देख लीजिए।
भारतीय कृषि शोध परिषद की 103 संस्थाएं हैं। इनमें से 63 संस्थाओं के पास 2 से 4 वर्षों से नियमित डायरेक्टर नहीं है। ICAR का सालाना बजट 8000 करोड़ है। 5 मार्च के इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है। क्या आप यकीन करेंगे कि दिल्ली में जो पूसा संस्थान है वहां पिछले चार साल से कोई नियमित निदेशक नहीं नियुक्त हो सका। 100 से अधिक पुराने इस संस्थान की देश की कृषि शोध व्यवस्था में अग्रणी भूमिका रही है। करनाल स्थित नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में भी निदेशक नहीं है। यही नहीं शोध प्रबंधकों के 350 पद हैं मगर 55 प्रतिशत खाली हैं।
इस देश की खेती संकट में है। क्या किसी को नहीं दिखता है कि कृषि को लेकर सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह पटना मे मारे गए आतंकियों की संख्या 400 बता रहे थे। बेहतर है आतंकी गिनने की जगह वे अपने विभाग का काम गिनें और उसे करें। 103 रिसर्च संस्थाओं में से 63 संस्थाओं का कोई नियमित निदेशक न हो, आप समझ सकते हैं कि देश की खेती को लेकर सरकार कितनी गंभीर है। प्रचार प्रसार की भी हद होती है।
ऐसा लगता है कि पूरी सरकार को पुलवामा के बाद आपरेशन बालाकोट बहाना मिल गया है। पब्लिक में बीच जाकर इसी पर नारे लगवा कर सवालों से बच निकलना है। देश की सुरक्षा को लेकर जितना सवाल विपक्ष से नहीं आ रहा है उससे कहीं ज़्यादा इनकी अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए सुरक्षा का सवाल महत्वपूर्ण हो गया है। बेरोज़गारी चरम पर है। शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है। खेती में कोई सुधार नहीं है। अब ऐसे में राष्ट्रवाद ही प्रधानमंत्री के भाषण में कुछ नयापन पैदा कर सकता है। मगर इन नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए राष्ट्रवाद का इस्तमाल ही बता रहा है कि प्रधानमंत्री का राष्ट्रवाद सच से भागने का रास्ता है। वोट पाने का रास्ता है।

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