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पहले भी साथ आई हैं, अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां

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द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार के भारतीय सैनिकों को युद्ध में शामिल किये जाने के विरोध के दौरान जब देश भर की कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफ़ा दिया था, तब बंगाल, सिंध और खैबर पख्तूनख्वा में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकारें बनीं थीं। बंगाल की सरकार में तो वो श्यामाप्रसाद मुखर्जी मंत्री थे, जिन्हे भाजपा अपना वैचारिक रूप से पित्रपुरुष मानती है। बाद में यही श्यामाप्रसाद मुखर्जी आज़ाद भारत की पहली सरकार में पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल किये जाते हैं।
एक दौर वो भी था, जब जनता पार्टी सरकार का गठन किया गया, जिसमें जनसंघ का विलय हुआ था। यहीं से जनसंघ के नेताओं को व्यापक स्वीकार्यता देने का कार्य किया गया। ये वही जनसंघ था, जिसकी स्थापना श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की थी। बाद में जब जनता पार्टी में कलह हुई तो उसी जनसंघ की विचारधारा से 1980 में भारतीय जनता पार्टी आस्तित्व में आई थी।
अब आते हैं उस दौर में जब 1999 में भाजपा ने देश की कई ऐसी पार्टियों से गठबंधन कर राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए ) का गठन किया जो वास्तविकता में भाजपा की विचारधारा से कोसों दूर थीं और खुद को संघ की विचारधारा का विरोधी बताते हुए धर्मनिरपेक्ष पार्टियां कहलवाती रही हैं। नीतीश कुमार की जदयू से बिहार में गठबंधन कर सरकार बनाना हो या फिर मायावती के साथ उत्तरप्रदेश में। ऐसे ही कई उदाहरण हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा और इससे पूर्व जनसंघ और अज़ादी से पहले हिंदू महासभा के हमें मिलते हैं।
जम्मू एवं कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबंधन कौन भूल सकता है, भले ही बाद में वो गठबंधन टूट गया। पर एक लंबे वक्त तक वैचारिक रूप से दो परस्पर विरोधियों ने सरकार चलाई। जिसमें पहले मुफ्ती मुहम्मद सईद तो बाद में मेहबूबा मुफ्ती भी सरकार में रही हैं।
अब आते हैं महाराष्ट्र के ताज़ा घटनाक्रम पर, शिवसेना एनडीए से अलग हो चुकी है और ऐसी चर्चा है, कि एनसीपी व कांग्रेस के साथ सरकार बना रही हैं। ऐसे में ये सवाल उठता है, कि क्या वैचारिक रूप से दो परस्पर विरोधी पार्टियां शिवसेना और कांग्रेस एक साथ सरकार चला पाएंगे ? यह सवाल कई लोग कर रहे हैं।

सवाल ये उठता है कि आखिर शिवसेना और कांग्रेस एक दूसरे से कितने अलग हैं ?

हिन्दुत्व

जब हम इस सवाल का जवाब खोजने जाते हैं, तो हमें पता चलता है, कि शिवसेना हिन्दुत्व के मुद्दे मुद्दे में एनसीपी और कांग्रेस से अलग है। वहीं हाल ही के दिनों की कांग्रेस सॉफ्ट हिन्दुत्व को अपना चुकी है।
मराठी और गैरमराठीवाद
शिवसेना जब आस्तित्व में आई थी, तभी से शिवाजी के नाम पर बनी इस पार्टी का मुख्य एजेंडा मराठी राजनीति ही रहा है। पहले मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में कन्नड़ भाषियों के विरुद्ध शिवसेना का आंदोलन, फिर मराठी वर्सेज़ गुजराती , या फिर हाल ही के कुछ वर्षों में उत्तर भारत (बिहार और यूपी) से आए लोगों के विरुद्ध शिवसेना के कार्यकर्ताओं का रवैया। सभी जगह शिवसेना को मराठी फर्स्ट की राजनीति करते पाया गया है। एक समय था, जब शिवसेना ने महाराष्ट्र में आकार कार्य करने अन्य राज्यों के लोगों के लिए वर्क परमिट लागू करने की बात भी कही थी।
वहीं कांग्रेस और एनसीपी का रवैया इस मामले में हमेशा से ही शिवसेना के विरुद्ध आलोचनात्मक रहा है। पर पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस नेताओं के अंदर भी हर राज्य में स्थानीय लोगों को रोजगार में प्राथमिकता देने की रही है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी इस तरह का एक नियम बनाया है, जिसमें स्थानीय लोगों को नौकरियों मे प्राथमिकता देने वाली कंपनियों को कुछ रियायतें दी गई हैं।

जनमानस से जुड़े मुद्दे

वहीं जब बात जनमानस से जुड़े मुद्दों की हो तो फिर शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस में समानता नज़र आती है। कृषि, रोज़गार और स्वास्थ्य के साथ ही विकास के मुद्दों पर तीनों ही पार्टियां पहले से एक ही तरह के विचार रखती हैं। आपको शायद याद होकि मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में सत्ता में होते हुए भी शिवसेना किसानों के मुद्दे हों या बेरोज़गारी, सभी मुद्दों पर मुखर रही है। नोटबंदी के फ़ैसले पर भी शिवसेना ने विरोध किया था।
जिस तरह से खबरें आ रही हैं, कि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत सरकार का गठन किया जाएगा। अब देखना ये है, कि ये मुहब्बतें कितने दिन तीनों ही पार्टियों को साथ रख पाती हैं। देश सेवा के लिये तीनों दल दलगत राजनीति से ऊपर उठ देश की सेवा करते हैं,तो किसे एतराज़ है। ये समय आशंकाओं की नहीं सम्भावनाओं की तलाश करने का है।