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नज़रिया – क्या शहरी माओवादी वाला सारा मामला 2019 का चुनाव प्रचार है ?

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मोदी को मारने वाली पहले की तमाम कहानियां झूठी साबित हो चुकी हैं. कोई आदमी राजनीतिक फ़ायदे के लिए “ख़ुद की हत्या” तक की कहानी कैसे लगातार ठेल सकता है? कितना असंवेदनशील आदमी है ये?

Rona Wilson प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या का प्लॉट रच रहे थे! सीरियसली?

मोदी साहब को अपनी जान का ख़तरा दिखाने की पुरानी आदत है. 2005-06 में एक समूचा संगठन ही मोदी जी के चलते मीडिया में पैदा हो गया. सारे एनकाउंटर्स फर्जी निकले.
रोना के बारे में मीडिया किन बातों को इल्ज़ाम की तरह पेश कर रहा है? वो UAPA का विरोधी है. मतलब अब इस देश में UAPA का विरोध करना भी अपराध हो गया? जो मीडिया राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई की मांग करता था. इसे भी मीडिया अपराध टाइप पेश कर रहा है.

रोमा विल्सन, सोमा सेन और अधिवक्ता सुरेन्द्र गाडलिंग


शहरी नक्सल की थियरी दिल्ली को छुए बिना पूरी नहीं होती. सारा काम शुरू हुआ पुणे से, लेकिन नागपुर के रास्ते दिल्ली आकर पूरा हुआ. Shoma SenSurendra Gadling के बारे में पुलिस वही घिसी-पिटी बातें कर रही हैं कि इन लोगों का माओवादियों से संपर्क है.

अब कोई वकील मुक़दमा भी न लड़े! साईंबाबा का केस अगर गाडलिंग लड़ रहे हैं तो टीवी वाले इसे अपराध मान रहे हैं.

Sudhir Dhawale को तो पुलिस ने इससे पहले भी पकड़ा था. हाई कोर्ट ने रिहा किया. पुलिस की किरकिरी हुई. लेकिन मामला पुलिस डील नहीं कर रही.

दलित चिन्तक सुधीर ढवले


अरुण जेटली ने फटाक से ये लिख दिया कि माओवादी कितने तरह के होते हैं. चार तरह के माओवादी के बारे में देश को उन्होंने शिक्षा दी है. माओवादी न हुआ बिरयानी हो गई.
पुलिस वाले चिट्ठी ऐसे बरामद कर रहे हैं कि बस सारे सबूत लेकर घर में ये सारे लोग बैठे हुए थे कि पुलिस जी आओ और पकड़ लो. मेहनत नहीं पड़ेगी सबूत जुटाने में!

शहरी माओवादी वाला सारा मामला 2019 का चुनाव प्रचार है.

  1. शहर में रहने वालों के पास मेल, Whatsapp जैसी तकनीक नहीं है कि वो चिट्ठी लिखेंगे? डिजिटल इंडिया फेल हो गया क्या?
  2. प्रधानमंत्री को मारने जैसी बात लोग खुल्लमखुला काग़ज़ पर लिखेंगे? शहर में रहकर कोड भी नहीं सीखा?
  3. हत्या या हत्या की आशंका गहरी सहानुभूति जगाती है. मोदी का रिकॉर्ड रहा है कि उन्होंने इसे प्रचार के लिए इस्तेमाल किया है. असंवेदनशील हैं वो.
  4. ‘नोटबंदी ने माओवादियों की कमर तोड़ दी’ जैसी बातें लोगों को पची नहीं, लिहाजा कुछ ‘करने’ की रणनीतिक ज़रूरत थी सरकार को.
  5. प्रचारित ऐसे किया जा रहा है कि बीजेपी की कई राज्यों में सरकार बनने से माओवादी परेशान हो गए थे, इसलिए मोदी जी को मारना चाहते थे. इससे घटना को सच्चा दिखाने में मदद मिलती है.
  6. यानी, बीजेपी की सरकार से जो परेशान हैं उनमें से कोई भी माओवादी की श्रेणी में फिट हो सकता है. नहीं तो असहमतों के लिए ज़रूरी है कि वो माओवादियों को गरियाए. उनको भी गरियाए जिन्हें माओवादी कहकर पकड़ा गया है.
  7. माओवाद के मामले पर किसी की गिरफ़्तारी पर विपक्षी राजनीतिक पार्टियां मुंह नहीं खोलती. खोलेगी तो बीजेपी माइलेज लेगी ऐसे बयानों से.
  8. सरकार ने चार साल में कुछ किया नहीं जिसे वो उपलब्धि के तौर पर जनता के सामने पेश कर सके. अब फुर्र-फुर्र तरीक़े से ‘राष्ट्रवाद’ में ‘आंतरिक दुश्मन’ वाली तस्वीर बना रही है.
  9. ये ध्यान रखा गया कि उन्हीं लोगों को पकड़ा जाए जो uapa विरोधी, मानवाधिकार के समर्थक और पहले से गिरफ़्तार किसी भी व्यक्ति का जानने वाला हो. इससे पब्लिक परसेप्शन बनाना आसान रहता है.
  10. गिरफ़्तारी के फ़ौरन बाद पहले मीडिया और फिर सारे मंत्री-संतरी जिस तरह एलर्ट होकर मामले को हवा देने लगे, उससे मालूम पड़ता है कि बीजेपी इस मामले को सहानुभूतिपूर्ण प्रचार में भुनाएगी.

नोट : यह लेख, लेखक की फ़ेसबुक वाल से लिया गया है

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