एक अमीर मिल मालिक का बेटा अपने दोस्त को, मजदूरों के बीच लीडर बनाकर बिठा देता है। दोस्त मजदूरों की बस्ती में रहता है। जब मजदूरों का दर्द समझता है, तो अपने ही दोस्त.. याने मिल मालिकों के खिलाफ हो जाता है। राजेश खन्ना और अमिताभ की इस मूवी को आपने जरूर देखा होगा।
कर्तव्य औऱ मित्रता के बीच राजेश खन्ना की उस कशमकश से गांधी को भी गुजरना पड़ा था। दक्षिण अफ्रीका से लौटे मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने गुजरात को अपना बेस बनाया, प्रमुखतः अहमदाबाद में रहे। शहर में 51 कपड़ा मिलें थी, और इनके मालिक गांधी के मुरीद। आश्रम बनाने चलाने के लिए दिल खोलकर दान दिया।
और गांधी राजनीति के साथ सामाजिक परिवर्तन भी करने चले थे। तो एक दिन एक अछूत परिवार लाकर, आश्रम में रख लिया। अब ये तो अच्छी बात नही थी, पैसे वाले दानदाता पीछे हटने लगे। आना जाना कम कर दिया। दान घट गया, तो आश्रम चलाना कठिन होता गया।
ऐसे मुश्किल वक्त में एक दिन आश्रम के गेट में एक मोटर घुसी। अम्बालाल साराभाई, शहर की कई फैक्ट्रियों के मालिक, सधे कदमो से गांधी के कक्ष में आये। कुशल क्षेम पूछते हुए गांधी के करीब पहुंचे, और 13 हजार रुपये नगद उनके हाथों में रख गए। यह 1916 था।
तब सोने का भाव 20 रुपये तोले से कम हुआ करता था। रकम किसी को भी अनुग्रहित करती, गांधी भी अहसानमंद हुए, आभार दिखाया।
दो साल के भीतर अहमदाबाद में तबाही आयी। यह प्लेग था, लोग शहर छोड़ भागने लगे। मजदूर भी भाग जाएं तो अमीरों की फैक्ट्री कैसे चले?? लालच दिया कि रूक कर काम करने का “रिस्क बोनस” मिलेगा।तो मजदूरों को दोगुना पैसा मिलने लगा, प्लेग के दौर में भी मिलें बदस्तूर चलती रही।
कुछ माह में प्लेग का कहर कम हुआ, लोग अहमदाबाद वापस आने लगे। खतरा हटा, तो रिस्क बोनस भी हटा लिया गया। मजदूरों की इनकम वापस घट गयी।
पर इस दौर में आर्थिक हालात खराब थे। पहला विश्वयुद्ध, जरूरी सामान शॉर्टेज, मुद्रास्फीति ने गरीबों के हालात बिगाड़ रखे थे। मांग हुई कि बोनस जारी रखा जाए। मिल मालिक तैयार न थे।
नतीजा मांग करने वालो को नौकरी से निकाला जाने लगा। नये मजदूर भर्ती होने लगे। अब मजदूरों की बात गाँधीजी तक गयी। सबको पता था, की गांधी की इज्जत तो मिल मालिक भी करते हैं। यह खबर मिल मालिकों तक पहुँची, तो वे उल्टे निश्चिन्त हो गया। गांधी तो उनका अपना आदमी था।
गांधी के पास मजदूरों की फरियाद पहुचीं। वे अगर फिल्मी हीरो होते, तो अपने “वित्तपोषक मित्रो” के खिलाफ जाने पर कशमकश का सीन जरूर बनता। पर यह हीरो असली था। गांधी ने मामले में दखल देना तय किया, और मजबूती से दिया भी।
मीटिंग हुई, तो मिल मालिकों ने ज्यादा से ज्यादा 20% बोनस देना तय किया। उधर मजदूर पक्ष 50% से कम पर राजी नही था। गाँधीजी ने खुद केस स्टडी की। बाजार, मूल्य, मिलों की आर्थिकी, इन्फ्लेशन देखकर तय किया कि 35% बोनस देना होगा। नही तो मजदूर हड़ताल करेंगे।मालिकों ने प्रस्ताव खारिज किया।
हड़ताल शुरू हुई। कुछ दिन उत्साह रहा, मगर मजदूर धीरे धीरे अधीर होने लगे। उनकी जगह दूसरो की भर्ती का डर भी था। तो बहुतेरे मजदूर, मालिकों से जो मिल रहा था उसी पर ड्यूटी जॉइन करने लगे। गांधी जिनके लिए लड़ने गए, वही साथ छोड़ कर भाग रहे थे।
देखा जाए, तो किसी आम नेता के लिए यह खिसकने का माकूल वक्त था। मिल मालिक उन्हें दुआएं ही देते। पर यह बंदा तो गांधी था न .. बैठ गया अनशन पर। अब, जब तक सारे मजदूर काम छोड़कर हड़ताल पर नही लौटते, वह कुछ नही खाएंगे।
जरा मजा देखिये, हड़ताल मजदूरों के लिए थी, पर उनका अनशन मिल मालिकों के खिलाफ नही था। ये तो मजदूरों के ही खिलाफ था। उनकी अवसरवादिता, कमजोरी और स्वार्थ के खिलाफ था।
तो अपने समर्थकों के खिलाफ गांधी का अनशन तीन दिन चला। शर्मिंदा मजदूर हड़ताल पर लौट आये। मिलों की चिमनी से निकलता धुआं, एक बार फिर रुक गया। हड़ताल मजबूत हो गयी।
यह अनशन गांधी के दृढ़ निश्चय का परिचायक था। मिल मालिक भी समझ गए कि बन्दा डिगेगा नहीं। एक एक कर 35% बोनस पर सहमति देते गए। यह गांधी की प्रभावशाली जीत थी। सरकार पर नही, पूंजी पर।
साल भर पहले यह बन्दा चंपारण में सरकार से भी भिड़ गया था। वहां किसानों को उनका हक दिलवाया। इस बार वह मजदूरों के लिए लड़ा, मजदूरों से भी लड़ा, उद्योगपतियों से भी भिड़ा, निस्संकोच, निर्भीक। उन्हीं उद्योगपतियों से जिनके चंदे से उनका आश्रम चलता था।
जिन मिल मालिकों ने 35% बोनस दिया, क्या वे गांधी से डर गए? नाराज हो गए? क्या उन्हे बदनाम करने का कैम्पेन किया?? बिल्कुल नही। बल्कि उनकी नजर में, गांधी का दर्जा और ऊंचा हो गया था। तो आने वाले दौर में गुजरात सहित देश भर के उद्योगपतियों ने, खुले हाथ गांधी की मदद की। कांग्रेस और आजादी के आंदोलन के लिए खुले हाथ चंदे दिये।
इसलिए कि इंसान की नैतिक ईमानदारी, उसके चरित्र की मजबूती उसकी कीमत बढ़ाती है। समर्थन बढ़ाती है। कद बढ़ाती है।
गुजरात मे आज भी मिलें है, उद्योग हैं, उद्योगपति हैं। वे गांधी के दौर से ज्यादा धनी, ज्यादा बड़े औऱ ज्यादा ताकतवर हैं। इतने ताकतवर कि सरकारें बनवाते हैं, अपनी दुकान की तरह चलाते हैं। जब चाहे दुकानदार भी बदल देते हैं।
अब उनकी जेब मे पल रहे छोटे कद के लीडर्स में नैतिक ईमानदारी नही। उसकी हिम्मत नही की पूंजीपति का नुकसान करके भी उससे समर्थन पा सके। इसलिए कि पूंजीपतियों को इन नेताओं की वकत पता है। कीमत, कद और किरदार पता है।
उन्हें पता है कि उनके दिए पैसे, अछूतों के किसी आश्रम में या राष्ट्रीय आंदोलन में नही, हर जिले-हर गली में बन रहे सात सितारा पार्टी कार्यालयों में लगना है। मीडिया का एयरटाइम खरीदने, विज्ञापनों और सीधा प्रसारण हो रही रैलियों में लगना है।
दल बदलने वाले विधायको-सांसदों की खरीद फरोख्त में लगना है। चुनावो के औजार और निजी अय्याशियों में लगना है। जनता का भरोसा, चुनावी चंदे की बोटियों पर बेचने वाले लीडर.. क्या कहिएगा इस लीडरशिप को…?
आप सोचिये। मैं बताता चलूं कि अमिताभ और राजेश खन्ना की उस मूवी का नाम “नमक हराम” था ।