आह को चाहिये, इक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है, तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
( ग़ालिब )
आह, का असर हो, इसके लिए, एक उम्र यानी एक लंबा वक़्त चाहिए। तुम्हारे सुन्दर कुंतल राशि पर मेरा अधिकार हो , यह इस जन्म में संभव नहीं है। जितना समय उस कुंतल पर अधिकार करने या उसे अपना बना लेने के लिए चाहिए, उतनी तो मेरी उम्र भी नहीं है। आह , जीवन के अवसान तक मुझे तडपाती रहेगी।
ग़ालिब का यह बेहद प्रसिद्ध शेर है। यह उनकी एक लंबी ग़ज़ल का एक अंश है। ग़ालिब की यह ग़ज़ल , मुहम्मद रफ़ी, तलत महमूद , जगजीत सिंह, मेहंदी हसन , नुसरत अली खान, आदि प्रसिद्ध गायकों द्वारा गायी गयी है। पुरानी फ़िल्म मिर्ज़ा ग़ालिब में इसे भारत भूषण पर और गुलजार के सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब में इसे नसीरुद्दीन शाह पर फिल्माया गया है। यह ग़ज़ल सूफी गायकी की परंपरा में भी बहुत मशहूर हुयी है। ग़ज़ल का यह शेर, ग़ालिब की तरह श्लेषार्थक है।
इस शेर के अर्थ को ग़ालिब अपने सुखन से भी जोड़ कर देखते हैं। ग़ालिब अपने काव्य को समकालीन उर्दू साहित्य में स्वयं ही अत्यंत उत्कृष्ट कोटि का मानते थे। वह कहते भी थे,
हैं और भी, दुनिया मे सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि, ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और !!
अंदाज़ ए बयानी, जिसे साहित्य में अभिव्यक्ति शैली कहते हैं। कथ्य और शिल्प की विशिष्टता और विविधता से भरी ग़ालिब की यही अंदाज़ ए बयानी, उन्हें सबसे अलग और विशिष्ट बना देती है। ग़ालिब, अपने अंदाज़ ए बयान को सबसे अलग मानते थे और थे भी वे। उनका कहना था कि उनका काव्य लोगों के दिल ओ दिमाग में अंदर तक पैठे , इसके लिए समय चाहिए। वे मानते थे कि उन्हें समझना आसान नहीं है। अतः जब तक लोग उनके काव्य को समझ कर सराहना करने लगेंगे, तब वह दिन देखने के लिए, शायद वे जीवित ही नहीं बचें।
ग़ालिब थे तो आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह ज़फर के दरबार के शायर, पर मिज़ाज उनका दरबारी नहीं था। ज़फर खुद भी एक शायर थे। उस समय ग़ालिब के समकालीन उसी दरबार मे एक और शायर ज़ौक़ भी थे। ज़ौक़ का रुतबा भी अधिक था। ज़ौक़ और ग़ालिब में प्रतिद्वंद्विता भी थी. इनसे थोड़े पहले मीर तक़ी मीर हो चुके थे। मीर को ग़ज़लों का बादशाह कहा जाता है। प्रेम की अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति मीर के कलाम में हुयी है। पर आज इन सब के बीच ग़ालिब सबसे अधिक चमकते हैं। उनके हर कलाम में कुछ न कुछ रहस्यात्मकता छिपी हुयी है। कुछ न कुछ ढूँढने की एक अदम्य जिज्ञासा ग़ालिब के साहित्य गगन की सैर हम ज़बको कराती रहती है। ग़ालिब , खूद को तो अलग और समकालीनों में श्रेष्ठ मानते ही थे, वक़्त ने भी उनके अंदाज़ ए बयाँ का लोहा माना और वे उर्दू साहित्य के महानतम शायर स्वीकार किये गए।
ग़ालिब के हर शेर का अर्थ और भाव अलग अलग होता है। शिल्प इतना सुगढ़ और सधा हुआ कि एक भी मात्रा घटी या बढ़ी तो सब कुछ भरभरा कर गिर जाता है। काव्य मन के कोमलतम भावों की अभिव्यक्ति होती है। आदि कवि वाल्मीकि की वह प्रथम रचना, मा निषाद याद कीजिये, जो मिथुन रत क्रौंच युग्म के एक साथी को शर लग जाने के बाद अकस्मात उनके मुख से प्रस्फुटित हो गयी थी ? जैसे ग्लेशियर पिघल कर सरित प्रवाह बना देता है वैसे ही मनोभाव शब्दों के रूप में बह निकलते हैं और वही कविता बन जाती है। यहां ग़ालिब नें उसी को आह कहा है। पर उस आह को कोई पहचाने , और माने भी तो। उस आह को एक उम्र यानी पर्याप्त समय चाहिए ताकि वह लोगों की ज़ुबान पर चढ़ सके और जेहन में जगह बना सके। पर इतना समय किस के पास है ! शायर के पास इतना वक़्त नहीं है । एक अर्थ में उसके पास इतनी आयु नहीं है कि वह अपने सुखन की प्रसिद्घि को देख पाए। यह उनकी निराशा थी या पराजय या भावुक मन का डोलता हुआ आत्मविश्वास , कुछ भी कह लें और जो भी कहें पर आज (27 दिसंबर) ग़ालिब के जन्मदिन पर उन्हें याद ज़रूर करें।