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जब कांशीराम ने किया था, मायावती को मुख्यमंत्री बनाने का वादा

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देश में जब कभी पिछड़ी जाति और दलित वर्ग के अधिकारों की बात की जाती है, तो सबसे पहले जुबान पर डॉ. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम का नाम आता है.लेकिन 21वीं सदी में जिस महिला दलित नेता ने ना केवल उत्तर भारत अपितु शेष भारत पर भी अपनी छाप छोड़ी, वह हैं ‘मायावती’. मायावती वो नाम है जो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का बड़ा चेहरा है. उनके बिना यूपी की राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती.आज उनका 62वां जन्मदिन है.इस अवसर  पर आज आईएएस बनने के सपने से लेकर उनके मुख्यमंत्री बनने तक के सफर पर एक नजर डालतें हैं और साथ ही वो बातें जानने की कोशिश करते हैं जो उन्हें खास बनाती हैं.

शुरुआती जीवन

मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 में दिल्ली के लेडी हार्डिंस अस्पताल में हुआ था.दिल्ली में प्रभु दयाल और रामरती के परिवार में जन्मीं चंदावती देवी को आज पूरा भारत ‘बहनजी’ के नाम से जानता हैं. पिता प्रभु दयाल भारतीय डाक-तार विभाग में वरिष्ठ लिपिक थे और मां रामरती गृहणी थीं. मायावती के छह भाई और दो बहनें हैं.दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में मकान के दो छोटे कमरों में उनका पूरा परिवार रहता था. और यहीं खेलते-कुदते मायावती का बचपन गुजरा. मायावती की मां भले ही अनपढ़ थीं, लेकिन अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देना चाहती थी.  रामरती ने अनपढ़ होने के बावजूद अपने आठ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का पूरा जिम्मा उठाया.प्रभु दयाल ने अपनी बेटी को प्रशासनिक अधिकारी के रूप में देखने का सपना संजोया था.पिता का सपना साकार करने के लिए मायावती ने काफी पढ़ाई भी की.
उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कॉलेज से कला विषयों में स्नातक किया.गाजियाबाद के लॉ कॉलेज से कानून की परीक्षा पास की और मेरठ यूनिवर्सिटी के वीएमएलजी कॉलेज से शिक्षा स्नातक (बी.एड.) की डिग्री ली.शिक्षा स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने दिल्ली के ही एक स्कूल में बतौर शिक्षिका के रूप में अपने करियर की शुरुआत की.

कांशीराम ने दी मायावती के जीवन को नई दिशा

इसी दौरान, वर्ष 1977 में उनकी जान-पहचान कांशीराम से हुई.मायावती आज जो कुछ भी हैं उसमें कहीं हद तक कांशीराम का हाथ है.दरअसल, बात 80 के दशक की है जब मायावती की प्रतिभा के बारे में कांशीराम जी को पता चला तो वह सीधे मायावती के घर उनसे मिलने पहुंचे.तब दोनों के बीच बातचीत के दौरान कांशीराम को पता चला कि मायावती कलेक्टर बनकर अपने समाज के लोगों की सेवा करना चाहती हैं, तो इस उन्होंने  मायावती से कहा कि मैं तुम्हें मुख्यमंत्री बनाऊंगा और तब तुम्हारे पीछे एक नहीं कई कलेक्टर फाइल लिए तुम्हारे आदेश का इंतजार करेंगे.
कांशीराम 1934 में पंजाब में पैदा हुए थे, लेकिन 1958 में पूणे आ गए. वहां डीआरडीओ की गोला बारूद की फैक्ट्री में लैब असिटेंट थे, लेकिन महाराष्ट्र में दलित जातियों के साथ भेदभाव की कुछ घटनाएं देखने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और दलितों  के  साथ हुए संघर्षों को अपनी जिंदगी का मकसद बना दिया.इसी मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने 1978 में बामसेफ, 1981 में डीएस-4 का गठन किया. डीएस-4 ने उत्तर भारत में दलितों को संगठित किया. इसके नतीजों से उत्साहित होकर ही कांशीराम ने एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया था.
कांशीराम और उनके बहुजन आंदोलन ने मायावती के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला.मायावती के जीवन में राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों के बढ़ते प्रभाव को देख पिता प्रभु दयाल चिंतित हुए.उन्होंने बेटी को कांशीराम के पदचिह्नों पर न चलने का सुझाव दिया, लेकिन मायावती ने अपने पिता की बातों को अनसुना कर दलितों के उत्थान के लिए कांशीराम द्वारा बड़े पैमाने पर शुरू किए गए कार्यों और आंदोलनों  में शामिल होना शुरू कर दिया.
लगभग सात साल तक कांशीराम से जुड़े रहने के बाद वह 1984 में कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी  में शामिल हो गईं.इस दौरान मायावती ने कांशीराम का खूब साथ दिया और तो और जब घर छोड़ने की नौबत आई तो उन्होंने घर भी छोड़ दिया. कांशीराम ने सबसे पहला दांव पंजाब में चलाया और उसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश में कदम रखा, क्योंकि वह समझ चुके थे कि उत्तर प्रदेश में दलित प्रत्याशियों की संख्या ज्यादा है और फिर उन्होंने उत्तर प्रदेश में बीएसपी की राजनीतिक जमीन तैयार की.वर्ष 1984 में ही मायावती ने मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोकसभा सीट से अपना प्रथम चुनाव अभियान शुरू किया लेकिन उन्हें जनता का साथ नहीं मिला.

बीएसपी की राजनीतिक सफलाओं में मायावती

पार्टी गठन के पांच सालों में पार्टी का धीरे-धीरे वोट बैंक तो बढ़ा, लेकिन कोई खासी सफलता नहीं मिली.मायावती ने लगातार चार साल तक कड़ी मेहनत की और वर्ष 1989 का चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचीं. इस चुनाव में बीएसपी को 13 सीटें मिलीं. खुद मायावती बिजनौर लोकसभा सीट से सांसद निर्वाचित हुईं.बीएसपी का कद बढ़ रहा था अब वह एक राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही थी, जो आगामी समय में प्रदेश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने वाली थी.
साल 1993 में प्रदेश की राजनीति में एक अद्भुत शुरुआत हुई. दरसअल, इसे समझने के लिए हमें 1992 के दौर को देखना होगा. बाबरी मस्जिद गिरने के बाद केंद्र में बीजेपी की सरकार गिर चुकी थी. प्रदेश में कांग्रेस के दलित वोट बैंक पर बीएसपी कब्जा कर चुकी थीं.प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए कांशीराम ने एक बड़ा कदम उठाया.उन्होंने समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लिया.कांशीराम की सोच, दलित और पिछड़ों की एकजुटता ये नतीजा रहा कि 1993 में इस गठबंधन को जीत मिली.सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बने और मायावती को दोनों दलों के बीच तालमेल बिठाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी गई.

गेस्ट हाउस कांड

अभी एसपी-बीएसपी गठबंधन में बनी सरकार को तकरीबन दो ही साल हुए थे कि प्रदेश में दलितों के साथ अत्याचार होने की घटनाएं बढ़ गईं, जिससे मायावती नाराज थीं. ये बात 1995 की है.इसी दौर में कांशीराम गंभीर रूप से बीमार पड़ गए.उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. दलितों के प्रति होते अत्याचार को देख बीमार कांशीराम ने अपना नजरिया बदला और बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौता किया.
1 जून 1995 को मुलायम सिंह को ये खबर मिली की मायावती ने गवर्नर मोतीलाल वोहरा से मिलकर उनसे समर्थन वापस ले लिया है और वह बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाली हैं,तो मुलायम हैरान रह गए. 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्थित गेस्ट हाऊस के कमरा नंबर-1 में पार्टी नेताओं के साथ अगामी रणनीति तय कर रहीं कि तभी करीब दोपहर 3 बजे अचानक गुस्साए सपा कार्यकर्ताओं ने गेस्ट हाऊस पर हमला बोल दिया.घबराई मायावती ने इस दौरान पार्टी नेताओं के साथ स्वंय को इस गेस्ट हाउस में घंटों का बंद कर लिया. इस घटना ने प्रदेश की राजनीति का रूख हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया.अगर दलित-पिछड़ों का यह गठबंधन बना रहता तो शायद ही प्रदेश में कोई अन्य पार्टी का भविष्य में जीत पाना मुमकिन होता.
गेस्ट हाऊस कांड के तीसरे दिन यानी 5 जून 1995 को बीजेपी के सहयोग से मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली और कांशीराम ने वो अपना सपना पूरा कर किया जो कभी उन्होंने मायावती को दिखाया था. इस समय मायावती की उम्र महज 39 साल की थी. यह एक ऐतिहासिक पल जब था जब देश की प्रथम दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं थी. हांलाकि यह सरकार महज चार महीने चली.
मायावती वर्ष 2001 में पार्टी अध्यक्ष हो गयीं. मायावती ने दूसरी बार 21 मार्च 1997 से 20 सितंबर 1997, 3 मई 2002 से 26 अगस्त 2003 और चौथी बार 13 मई 2007 से 6 मार्च 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कमान संभाली.
जैसे-जैसे मायावती का कद पार्टी और प्रदेश की राजनीति में बढ़ रहा था वैसे-वैसे कांशीराम वक्त के साए में कहीं पीछे रह गए. उनका स्वास्थ्य गिरने लगा. लगातार बीमार रहने के चलते उन्होंने साल 2001 में मायावती को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर दिया. 6 अक्टूबर 2006 को दलितों को रोशनी देने वाला ये दीपक सदा-सदा के लिए बुझ गया.

सोशल इंजीनियरिंग का फंडा

साल 2007 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे.पार्टी जीत के लिए रोडमैप तैयार कर रही थी. मायावती ने देखा कि वह अकेले दलित-मुस्लिम वोटों के बलबूते नहीं जीत पाएंगी. इसलिए उन्होंने अपने गुरु कांशीराम के पुराने फंडे को अपनाया और पार्टी की रणनीति को सर्वसमाज के लिए तैयार किया. जिसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में पार्टी को 2007 के विधानसभा में 206 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला.
उपलब्धियों के साथ-साथ विवादों का मायावती से चोली-दामन का साथ रहा. अपने चौथे कार्यकाल के दौरान मायावती ने राज्य के विभिन्न जगहों पर बौद्ध धर्म और दलित समाज से संबंधित कई मूर्तियों का निर्माण करवाया, जिसमें नोएडा के एक पार्क में बनीं हाथियों की मूर्तियां काफी विवादों में रहीं. मायावती ने अपने राजनैतिक जीवन मे मुश्किल दौर को भी झेला हैं. छह सालों से वे यूपी में सत्ता से बाहर हैं.
मायावती को 2014 के लोकसभा चुनाव में सबसे तगड़ा झटका लगा. बीते लोकसभा चुनाव में पार्टी अपना खाता भी नहीं खोल पाई. कमोबेश पार्टी का यही हाल दिल्ली, बिहार और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में रहा.अब पार्टी की नजर उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों पर है. बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में बीएसपी बस 19 सीटों पर सिमट गई. पार्टी के पास इतने भी एमएलए नहीं हैं कि वे अपने बहिनजी को राज्य सभा भेज सकें.
लोगों ने तो बीएसपी को ख़त्म ही मान लिया था ,लेकिन हाल में हुए यूपी के नगर निकाय चुनाव मे मायावती ने यह दिखा दिया कि यूपी की राजनीति मे विरोधी उन्हे नजर अंदाज तो कर सकतें हैं पर समाप्त नही. मेरठ और अलीगढ़ में उनकी पार्टी के नेता मेयर का चुनाव जीत गए. सहारनपुर और आगरा में भी बसपा ने काँटे का मुक़ाबला किया.पार्टी के अभी हाल में हुए प्रदर्शन को देख जहन में बड़ा सवाल पैदा होता है कि क्या मायावती एक बार फिर प्रदेश की राजनीति में कोई कीर्तिमान रच पाएंगी.उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनाव मे एकबार फिर वह चौंकाने वाले अंदाज मे वापसी करेंगी.