जब संस्थाएं दीवार की तरह गिरती हैं, तो उनके मलबे में धीरे-धीरे सब दब जाता है … सबसे पहले शुरुआत तार्किकता से होती है, फिर उसकी जगह न्याय का प्राकृतिक सिद्धांत ले लेता है. सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा इस गिरावट को समझने के लिए एकदम मुफीद उदाहरण हैं. परद -दर परत प्याज के छिलकों की तरह इस सड़न की बदबू अखबार में सुर्खियों के शक्ल में रोज दर्ज हो रही है. ऐसे में अब तक जो नज़र सबसे पहले किसी की ओर उठती रही है…वो सुप्रीम कोर्ट की ओर ही जाती रही है…कि कम से कम इस संस्था से तो न्याय मिलेगा. ये तो निगरानी करेगी ही. दुख है कि अब ऐसी उम्मीद भी रखना बेमानी है.
खैर अब एक सच्चा किस्सा सुनिए
एक पत्रकार हैं … नाम है अभिजीत मित्रा. उन्हें पिछले साल गिरफ्तार किया गया था. उनके ऊपर आरोप था कि उन्होंने कोणार्क सूर्य मंदिर को लेकर आपत्तिजनक बातें लिखी थी. खैर वो सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जमानत के लिए. जमानत मिली नहीं, अब उनके वकील ने कोर्ट से कहा कि मित्रा को जान से मारने की धमकी मिल रही है. इस पर चीफ जस्टिस गोगोई ने कहा. अगर ऐसा है तो वो जेल में रहे. जेल से सेफ जगह कोई नहीं. अब ये कहानी इसलिए नहीं सुनाई गई कि मित्रा को जमानत मिलनी.
चाहिए थी या नहीं. कहानी सिर्फ माननीय चीफ जस्टिस के उस बयान को बताने के लिए सुनाई गई जो उन्होंने मित्रा के वकील से कहा. जेल तो सबसे सेफ जगह है. यानि अगर कोई अपनी जान की दुहाई देकर कोर्ट से प्रोटेक्शन की जरुरत बताए तो उसे कहा जाएगा. जेल तो सबसे सेफ़ है. चिट्ठी का लिफाफा ही बता देता है कि उसमें क्या लिखा है. इसलिए उम्मीदें ना पालें. संस्थाएं जब गिरती हैं तो आवाज़ नहीं होती. लेकिन मलबा हटाने में एक अर्सा लग जाता है.