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चुनावों में गायब हो रहे हैं जीवन से जुड़े मुद्दे

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किसी भी देश मे चुनाव जनमत का अक़्स होता है। यह जनता की राय नहीं होती है यह केवल जनता का इतना मत होता है कि वह अमुक दल या व्यक्ति को चाहती है या अमुक व्यक्ति या दल को नहीं चाहती है। जिस विंदु पर जनता की राय ली जाती है, वह प्रक्रिया जनमतसंग्रह या रेफरेंडम कहलाती है। आज का विमर्श हाल ही में हुये महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनाव और कश्मीर में हुये बीडीसी के चुनाव के सम्बंध में है।

हरियाणा में बेरोज़गारी आसमान छू रही है

हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव 21 अक्तूबर को सम्पन्न हुये और 23 को मतगणना भी हो गयी। महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला जबकि हरियाणा विधानसभा में त्रिशंकु स्थिति रही और किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। लेकिन भाजपा के 40 विधायकों ने दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी 8 विधायको के साथ मिलकर सरकार बनाई है। जेजेपी पूरे चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ थी पर चुनाव के बाद वह भाजपा की सहयोगी पार्टी बन गयी। भारतीय राजनीति के लिये यह कोई अनोखी बात नहीं। हमे यह नहीं भूलना चाहिये कि दल बदल की परंपरा हरियाणा में बहुत पुरानी है। आयाराम गयाराम जैसे मुहावरे का जन्म ही हरियाणा में हुआ था।
यह देखना दिलचस्प होगा कि, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में  जनता किन मसलों पर सरकार से उसका मन्तव्य चाहती थी और सरकार की पार्टी भाजपा ने किन मुद्दों को उनके बीच रखा। हरियाणा में मुख्य मुद्दा बेरोजगारी और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट के कारण, जन असंतोष का था। पिछले पांच साल में हरियाणा में बेरोजगारी की दर बहुत अधिक बढ़ गयी है। नए रोजगार का सृजन तो हुआ नहीं, ऊपर से हरियाणा के फरीदाबाद, गुणगांव के औद्योगिक इलाक़ो के उद्योगों में गिरावट आने से जो नौकरियां थी वह भी कम हो गयीं। सरकार ने इस औद्योगिक उत्पादन के गिरावट को रोकने के लिये कोई कदम भी नहीं उठाया। हालांकि सरकार बहुत कुछ कर भी नहीं सकती थी। इसका कारण, राज्य सरकारों के पास ऐसे मामलों में सीमित विकल्प का होना है। क्योंकि औद्योगिक और निवेश नीति भारत सरकार के आर्थिक नीतियों के आधार पर चलती है। चूंकि पूरे देश मे आर्थिक मंदी का दौर चल रहा है अतः हरियाणा इससे अछूता नहीं रह सकता है।
आंकड़ों के अनुसार, हरियाणा में बेरोजगारी की दर देशभर के बड़े राज्यों में सबसे अधिक है। सैंटर फार मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सी.एम.आई.ई.) द्वारा जनवरी 2019 से अप्रैल 2019 में बेरोजगारी की स्थिति पर जारी रिपोर्ट के अनुसार जहां पूरे देश में बेरोजगारी दर 6.9 प्रतिशत थी, वहीं हरियाणा में यह दर 20.5 प्रतिशत थी जो कि अन्य किसी भी बड़े राज्य से अधिक थी। हरियाणा से अधिक बेरोजगारी दर सिर्फ त्रिपुरा में थी। इसी संगठन की अगस्त 2019 के अंतिम सप्ताह की रिपोर्ट के अनुसार भी यही स्थिति बरकरार थी।
भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर प्रकाशित होने वाली इस सबसे विश्वसनीय रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2019 में हरियाणा में कुल 19 लाख बेरोजगार थे, जिनमें से 16.14 लाख दसवीं पास थे और 3.88 लाख उच्च शिक्षा प्राप्त थे (ग्रैजुएट या ऊपर)। बेरोजगारी की बुरी अवस्था का परिचायक यह भी है कि 10 वीं या 12 वीं पास युवाओं में बेरोजगारी दर 29.4  प्रतिशत जैसे ऊंचे स्तर पर है। सबसे भयावह स्थिति 20 से 24 वर्ष के उन युवाओं की है जो पढ़ाई पूरी कर अब रोजगार ढूंढ रहे हैं। इस वर्ग में 17 लाख में से 11 लाख युवा बेरोजगार हैं और बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड तोड़ गति से बढ़ रही है। इतने भयावह आंकड़े पर दुनिया में कहीं भी मीडिया की सुर्खियां बनतीं, सड़क पर आंदोलन होते लेकिन हरियाणा में अजीब चुप्पी है।
अगर सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले साल भारत सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भी हरियाणा में राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी बेरोजगारी थी। आंकड़ों को भूल भी जाएं तो हर गांव और मुहल्ले में बेरोजगार युवकों की फौज देखी जा सकती है। सरकारी नौकरी का बैकलॉग भरने के वादे की स्थिति यह है कि सरकार इन प्रश्नों का जवाब देने से बच रही है: सत्ता ग्रहण करते समय सरकारी विभागों और अर्ध सरकारी विभागों में नौकरियों का कितना बैकलॉग था, उनमें से कितनी नौकरियां अब तक भरी गईं और कितने पद आज भी रिक्त पड़े हैं, इसका कोई संतोषजनक उत्तर सरकार के पास नहीं है।
एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश के 15 जिलों में ही 15 लाख से अधिक बेरोजगार थे। रोजगार कार्यालय में पंजीकृत इन युवाओं में से मात्र 647 को रोजगार मिला। इस गंभीर स्थिति पर कार्रवाई या सुधार करने की बजाय भाजपा की सरकार ने सूचना देने वाले अधिकारियों पर ही कार्रवाई कर दी। बाद में 26 फरवरी 2019 को विधानसभा में दावा किया कि पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या केवल 6.18 लाख है। इनमें भी सरकार केवल 2461 युवाओं को ही काम दिलवा पाई थी। यानी कि आर.टी.आई. सूचना की मानें या विधानसभा के जवाब को, यह स्पष्ट है कि हरियाणा सरकार रोजगार कार्यालय में पंजीकृत 1 प्रतिशत युवाओं को भी रोजगार नहीं दे पाई।

किसानों की आत्महत्या, महाराष्ट्र की बड़ी समस्या है

महाराष्ट्र हरियाणा की तुलना में एक बड़ा राज्य है और कृषि के मामले में हरियाणा की अपेक्षा कम विकसित है। पर कुछ क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा है वहां खेती बहुत ही अच्छी है। गन्ना, प्याज, कपास वहां की मुख्य फसल है। फिर भी वहां के किसान हरियाणा की तुलना में बहुत पीड़ित हैं। हाल के वर्षों में सबसे अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र से ही आये हैं। उसमे भी सबसे अधिक विदर्भ से आये मामले हैं। इसका कारण वहाँ सूखा और सिंचाई की पर्याप्त सुविधा का न होना है। इस प्रकार वहां इस चुनाव में मुख्य मुद्दा किसानों की आत्महत्या और उनकी समस्या होनी चाहिये थी। दो बड़े बड़े और प्रभावी किसान लोंग मार्च किसान सभा द्वारा, नाशिक और पुणे से मुंबई तक किसानों द्वारा निकाले गए, सरकार ने कर्ज़ माफ करने, सिंचाई सुविधा को बढ़ाने आदि के लिये वादे भी किये पर कोई उल्लेखनीय लाभ सरकार किसानों तक नहीं पहुंचा सकी। आत्महत्या की दुःखद दर रुक नहीं पायी और अब भी स्थिति जस की तस है।
अब एक नज़र महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या पर डालें। महाराष्ट्र के विदर्भ में पिछले पांच महीने में  504 किसानों ने आत्महत्या की.है। अब भी राज्य में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आंकड़ों के अनुसार, राज्य में पिछले पांच महीने में यानी मई के आख़िर तक 1092 किसानों ने आत्महत्या की है। साल 2017 के मुकाबले यह आंकड़ा सिर्फ 72 कम है। यानी पिछले साल 1164 किसानों ने आत्महत्या की थी। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक ख़बर के अनुसार, राज्य के सूखाग्रस्त इलाके मराठवाड़ा में पिछले पांच महीनों में 396 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि साल 2017 में मई तक इस क्षेत्र के 380 किसानों ने आत्महत्या की थी। किसान संगठनों का मानना है कि जब तक उन्हें, उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक किसानों की आमदनी में कोई भी बढ़ोतरी नहीं होगी।
इस प्रकार हरियाणा में मुख्य मुद्दा होना चाहिये था युवा आक्रोश और बेरोजगारी तथा महाराष्ट्र में मुख्य मुद्दा किसानों की आत्महत्या होनी चाहिये थी। बाकी अन्य मुद्दों को दरकिनार भी कर दें तो यह सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे थे। लेकिन दोनों ही सरकारों ने 21 अक्टूबर 2019 के चुनाव में इन मुद्दों पर चुप्पी साथ ली।

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा ने राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाया था

भाजपा जिस मुद्दे को लेकर जनता के बीच गयी, वह मुद्दा था अनुच्छेद 370 के हटाने का। पाकिस्तान की बरबादी का और कश्मीर में आतंकवाद का। प्रधानमंत्री सहित सभी भाजपा के नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान अनुच्छेद 370 को हटाने, पाकिस्तान के थर थर कांपने को अपनी उपलब्धि बताया और इसे चुनावी मुद्दा बनाकर जनता से वोट मांगे। अनु 370 भाजपा के ही कार्यकाल में 5 अगस्त 2019 को जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल के संसद से पारित होते ही निष्प्रभावी हो गया। यह भाजपा का एक चुनावी वादा भी था और निश्चय ही भाजपा इसे अपनी उपलब्धि मान भी सकती है, और है भी। पर इस उपलब्धि से हरियाणा और महाराष्ट्र की मूल समस्याओं जिनका उलेख मैंने ऊपर किया है का समाधान तो नहीं हो सकता है। अगर यही चुनाव जम्मूकश्मीर विधानसभा का होता तो निश्चय ही, अनु 370, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद आदि जो सीधे उंस राज्य से जुड़े हैं, या देश की लोकसभा का होता तो, यह  महत्वपूर्ण मुद्दे होते और चुनाव परिणाम उस मुद्दे पर कुछ हद तक रायशुमारी भी होते।

जम्मू कश्मीर में बीडीसी इलेक्शन पर प्रधानमंत्री की प्रातक्रिया

अब एक नज़र हाल ही में हुये जम्मूकश्मीर के ब्लॉक डेवलपमेंट कॉउंसिल (बीडीसी) के चुनाव के परिणामों पर डालें। यह चुनाव अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद हुये हैं। गुरुवार, 24 अक्टूबर 19 को हुये बीडीसी के चुनाव में, भाजपा को राज्य की 280 ब्लॉक सीटों में से सिर्फ 81 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। वहीं भाजपा का मजबूत गढ़ माने जाने वाले जम्मू क्षेत्र में भी भाजपा को 148 ब्लॉक सीटों में से सिर्फ 52 सीटों पर ही जीत मिल सकी। फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, ( एनसी ) महबूबा मुफ्ती की प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट, ( पीडीपी ) और कांग्रेस ने जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 जिस प्रकार से पारित किया गया है, उसके तरीके और जम्मूकश्मीर राज्य में लंबे समय से चले आ रहे, नागरिक आज़ादी  पर प्रतिबंधों के कारण विरोध स्वरूप इन चुनावों का बहिष्कार कर दिया था। इस चुनाव में भाजपा के समक्ष कोई दलगत विपक्ष नहीं था। उसके खिलाफ चुनाव लड़ने वालों में केवल निर्दलीय ही थे। भाजपा को कश्मीर क्षेत्र की 137 ब्लॉक सीटों में से 18 पर ही जीत हासिल हुई। जम्मू में यह आंकड़ा 148 में से 52 सीटों का रहा। वहीं पैंथर पार्टी ने आठ और बाकी सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की। साल 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जम्मू की 37 विधानसभा सीटों में से 25 पर जीत दर्ज की थी।
राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के अनुसार,  करीब 26,000 पंचों और सरपंचों ने चुनाव के दौरान वोट डाले और वोटिंग प्रतिशत 98% से ज्यादा रहा। यह भी तब, जब मतदाताओं को बुलेटप्रूफ पुलिस गाड़ियों में मतदान केन्द्र तक लाया गया। काकापोरा इलाके में एक पंचायत घर की सुरक्षा में 100 से ज्यादा की संख्या में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे। इस सीट पर कुल 9 मतदाताओं में से 8 कश्मीरी पंडित थे। जम्मू के 20 ब्लॉक जो कि 11 विधानसभा सीटों में फैले हैं, इनमें साल 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अब ब्लॉक चुनावों में भाजपा को सिर्फ 9 सीटों पर जीत मिली। कठुआ जिले में 19 ब्लॉक में भाजपा को 9 सीटों पर जीत मिली, जबकि विधानसभा चुनावों में यहां कि पांचों विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी।
अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ के अनुसार , प्रधानमंत्री जी ने शुक्रवार को जम्मू और कश्मीर में हुए बीडीसी चुनाव में “98% की ऐतिहासिक भागीदारी” की प्रशंसा की और इसे “ऐसी खबर जो हरेक भारतीय को गौरवशाली बनाएगी” कहा। इसका संबंध उन्होंने 5 अगस्त को जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति खत्म करने से जोड़ दिया। पीएम ने ट्वीट किया, “भारत की संसद को इस बात पर गर्व होगा कि इस साल अगस्त में लिए गए उसके ऐतिहासिक निर्णय के कारण जम्मू और कश्मीर के लोग बेजोड़ उत्साह के साथ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर पाए जिसका पता 98% की ऐतिहासिक भागीदारी और वह भी बिना किसी हिंसा या गड़बड़ी के, से चलता है।” लेकिन प्रधानमंत्री जिस चुनाव में भागीदारी का जिक्र कर रहे थे वह प्रत्यक्ष चुनाव नहीं है बल्कि अप्रत्यक्ष चुनाव है जिसमें मतदाता स्वयं निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं , राज्यसभा या राष्ट्रपति के चुनाव की तरह जिसमें भागीदारी आमतौर पर 100 प्रतिशत के करीब रहती है। कौंसिल पंचायती राज व्यवस्था का दूसरा चरण है।
हालांकि, बीडीसी के चुनाव परिणाम जनता की रायशुमारी नहीं कही जा सकती है पर हवा  की दिशा का अनुमान ज़रूर उससे लगाया जा सकता है। जिस प्रकार से जम्मू क्षेत्र में भाजपा को कम सीटों पर सफलता मिली है उसे देखते हुये यह कहा जा सकता है अनुच्छेद 370 के हटाये जाने पर जनता अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। मुझे यह नहीं पता कि इस बीडीसी के चुनाव में भाजपा ने अनुच्छेद 370 को कोई मुद्दा बनाया था या नही , पर जनता कुछ मुद्दे स्वयं स्पष्ट करती है और एक अंडरकरेंट उन मुद्दों की जनमन में प्रवाहित होती रहती है। हो सकता है ऐसा भी हो, पर विधानसभा की तुलना में बीडीसी का चुनाव बहुत छोटा और अप्रत्यक्ष होता है जिससे पब्लिक का मूड भले ही भांप लिया जाय, पर उसके आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना, जल्दीबाजी ही होगी।

महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव पर क्या कहता है एडीआर का अध्ययन

इस चुनाव की समीक्षा में एडीआर ने भी अपना एक त्वरित और रोचक अध्ययन किया है। अपने अध्ययन में, महाराष्ट्र और हरियाणा में दागी विधायकों की बढ़ी संख्या पर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने चिंता जताई है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म एक संस्था है जो चुनाव में भाग लेने वाले प्रत्याशी और अन्य आंकडो पर अध्ययन करती रहती है और के अपनी रिपोर्ट देती है। यह संस्था मुख्यतः चुनाव सुधारो पर काम करती है। लोकतंत्र के लिये यह परमावश्यक है कि चुनाव न सिर्फ निष्पक्ष हों बल्कि जो चुने जांय उनकी भी क्षवि साफ सुथरी हो।
एडीआर की वेबसाइट के अनुसार महाराष्ट्र चुनाव में चुनकर आए 285 विधायकों में से 176 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 113 विधायकों पर गंभीर अपराध के मामले हैं। बीजेपी के 105 विधायकों में से 65 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। शिवसेना के 55 विधायकों में से 31 पर आपराधिक मामले दर्ज है। एनसीपी 53 विधायकों में से 32 पर आपराधिक मामले दर्ज है। कांग्रेस के 44 विधायकों में से 26 आपराधिक मामले दर्ज हैं। निर्दलीय 12 विधायकों में से छह विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
हरियाणा चुनाव में चुनकर आए 90 विधायकों में से 12 विधायकों ने अपने हलफ़नामे में आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें से 7 विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के 31 विधायकों में से चार विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बीजेपी के 40 विधायकों में से 2 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के 10 विधायकों में से 1 विधायकों पर आपराधिक मामला दर्ज हैं। वही निर्दलीय 7 विधायकों में से 3 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

दोनों राज्यों में 348 विधायक करोड़पति

महाराष्ट्र विधानसभा में चुनकर आए 285 विधायकों में से 264 विधायक करोड़पति हैं। औसतन एक विधायक के पास 22 करोड़ की संपत्ति है। बीजेपी के 105 विधायकों में से 100 विधायक करोड़पति हैं। शिवसेना के 55 विधायकों में से 51 विधायक करोड़पति हैं। एनसीपी के 53 में से 47 विधायक करोड़पति हैं वही इंडियन नेशनल कांग्रेस के 44 में से 42 विधायक करोड़पति हैं। बीजेपी की टिकट पर चुनाव लड़ने वाले पराग शाह जो कि घाटकोपर ईस्ट से चुनाव जीत कर आए हैं, महाराष्ट्र के सबसे रईस विधायक हैं। इनकी घोषित संपत्ति 500 करोड़ से अधिक है। वहीं विनोद भीमा निकोल सीपीआईएम के दहानू पालघर से विधायक हैं, उनकी कुल संपत्ति मात्र ₹51082 है। जो कि संपत्ति के मामले में सबसे कम संपत्ति वाले विधायक हैं।
हरियाणा विधानसभा के चुनकर आए 90 विधायकों में से 84 विधायक करोड़पति हैं। विधायकों की औसत संपत्ति 25.26 करोड़ है। बीजेपी के 40 विधायकों में से 37 विधायक करोड़पति हैं। कांग्रेस के 31 विधायकों में से 29 विधायक करोड़पति हैं। जननायक जनता पार्टी के चुनकर आए दसों विधायक करोड़पति हैं। वही चुनकर आए 7 निर्दलीय विधायकों में से 6 निर्दलीय विधायक करोड़पति हैं।
मेहम और रोहतक विधानसभा से चुनकर आए निर्दलीय विधायक बलराज कुंडू सबसे अधिक संपत्ति वाले विधायक हैं। इनकी कुल संपत्ति 141 करोड़ (लगभग) है। वहीं इंडियन नेशनल कांग्रेस की टिकट पर इसराना पानीपत से चुनाव जीत कर आये विधायक बलबीर सिंह सबसे कम संपत्ति वाले प्रदेश के विधायक हैं, इनकी कुल संपत्ति लगभग ₹40 लाख हैं। ADR की मध्यप्रदेश समन्वयक रोली शिवहरे कहती हैं चुनावों में धनबल का अपना महत्व है जिसने आम आदमी को प्रतिनिधित्व से बहुत दूर कर दिया है। अब पैसे के बिना चुनाव लड़ना तो दूभर है ही, जीतना नामुमकिन सा दिखता है।
महाराष्ट्र के चुने गए 117 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता पांचवी से 12वीं के बीच हलफ़नामे पर घोषित की हैं। वही 157 विधायक ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक या उससे अधिक घोषित की है। हरियाणा के 90 मे से 27 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता 5वीं से 12वीं के बीच घोषित की हैं। वहीं 90 विधायकों में से 62 विधायकों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक या उससे अधिक घोषित की है। महाराष्ट्र में 285 विधायकों में से 24 महिला विधायक चुनी गई हैं। वहीं हरियाणा में 90 विधायकों में से महिला विधायकों की संख्या 10 हैं। पिछले चुनाव की अपेक्षा दोनों राज्यों में महिला विधायकों की संख्या बड़ी तो है, पर यह बढ़ोतरी काफी सामान्य है और अभी भी बराबरी से बहुत दूर है।

जनता अपनी मूल समस्याओं की अपेक्षा हर सरकार से करती है

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनाव जनापेक्षा का आईना होता है। हालांकि अभी चुनाव घोषणापत्र बहुत अधिक महत्व और प्रासंगिक नहीं होते है, जिनपर जनता खुलकर अपनी राय दे। वह बौद्धिक बहस के ही इर्दगिर्द केंद्रित रहते हैं। जनता अपनी मूल समस्याओं, रोज़ी, रोटी, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की अपेक्षा हर सरकार से करती है, पर जब वह वोट देने अपने मतदान केंद्र पर जाती है तो जीवन से जुड़े यह मुद्दे गौण हो जाते हैं और वह धर्म जाति के मुद्दों के पचड़े में उलझ जाती है और उसका चयन बटन इन्ही दिशा में चला जाता है।
वह सरकार से असंतुष्ट तो दिखती है, उसे कोसती भी है फिर उसके दिमाग में, खून, पानी से गाढ़ा होता है, का भाव उन सभी मुद्दों को दबा देता है, और जाने अनजाने जिन मुद्दों पर वह सरकार के खिलाफ कभी आंदोलनरत रही होती है, समय आने पर वह मुद्दों पर अपनी बात कह नहीं पाती है। राजनीतिक दलों को रोज़ी, रोटी, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे बराबर असहज करते रहे हैं। इसीलिए वे उन मुद्दों पर जनता को नही जाने देने की कोशिश करते हैं और उन भावुकता भरे धर्म और जाति के मुद्दों पर घसीट लाते हैं, जिसमे उन्हें कुछ करना ही नहीं है, बस लनतरानी हाँकनी हो।
लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी जनता मूल मुद्दों के आधार पर अपना फैसला सुना ही देती है। हरियाणा और महाराष्ट्र में यही हुआ है। हरियाणा में सरकार बन गयी है और महाराष्ट्र में अभी गृहकलह जारी है। देखते हैं आगे क्या होता है। जनमत के दृष्टिकोण से, जम्मूकश्मीर में हुये बीडीसी के अप्रत्यक्ष चुनाव का कोई विशेष महत्व नहीं है। अनुच्छेद 370 के इस परिवर्तन और जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक 2019 को वहां की जनता किस रूप में लेती है यह तभी पता लगेगा जब वहां स्थिति सामान्य होगी। फिलहाल तो, हरियाणा और महाराष्ट्र की जनता ने इस विंदु को बहुत भाव नहीं दिया है।

© विजय शंकर सिंह