हमारी महान मातृभाषा हिंदी हमारे अपने ही देश हिंदुस्तान में रोजगार के अवसरों में बाधक है। हमारे देश की सरकार का यह रुख अभी कुछ अरसा पहले ही सामने आया था। बोलने वालों की संख्या के हिसाब से दुनिया की दूसरे नंबर की भाषा हिंदी अगर अपने ही देश में रोजगार के अवसरों में बाधक बनी हुई है तो इसका कारण हमारी सोच है। हम अपनी भाषा को उचित स्थान नहीं देते हैं, बल्कि अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग करने में गर्व महसूस करते हैं।
मेरे विचार से हमें अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। हमें कार्यालयों में ज्यादा से ज्यादा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कोरिया, जापान, चीन, तुर्की एवं अन्य यूरोपीय देशों की तरह हमें भी अपने देश की सर्वाधिक बोले जाने वाली जनभाषा हिंदी को कार्यालयी भाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए और उसी स्थिति में अंग्रेजी प्रयोग करने की अनुमति होनी चाहिए, जबकि बैठक में कोई एक व्यक्ति ऐसा हो, जिसे हिंदी नहीं आती हो। कोरिया का उदहारण लें तो वह बिना इंग्लिश को अपनाए हुए ही विकसित हुआ है और हम समझते हैं की इंग्लिश के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी भाषा को छोड़कर दूसरी भाषाओं को अधिक महत्व देते हैं। अंग्रेजी जैसी भाषा को सीखना या प्रयोग करना गलत नहीं है, लेकिन अपनी भाषा की अनदेखी करना गलत ही नहीं, बल्कि देश से गद्दारी करने जैसा है।
अपनी भाषा को छोड़कर प्रगति करने के सपने देखना बिलकुल ऐसा है, जैसे अपनी मां का हाथ छोड़ किसी दूसरी औरत का हाथ पकड़ कर चलना सीखने की कोशिश करना। हो तो सकता है कि हम चलना सीख जाएं, लेकिन जब गिरेंगे तो क्या मां के अलावा कोई और उसी तरह दिल में दर्द लेकर उठाने के लिए दौड़ेगी? हम दूसरा सहारा तो ढूंढ़ सकते हैं, लेकिन मां के जैसा प्रेम कहां से लाएंगे? पृथ्वी का कोई भी देश अपनी भाषा छोड़कर आगे बढ़ने के सपने नहीं देखता है।
एक बात और, हिंदी किसी एक प्रांत, देश या समुदाय की जागीर नहीं है, यह तो उसकी है, जो इससे प्रेम करता है। भारत में तो अपने देश की संप्रभुता और एकता को सर्वाधिक महत्व देते हुए वार्तालाप करने में हिंदी को प्राथमिकता देनी चाहिए। कम से कम जहां तक हो सके, वहां तक प्रयास तो निश्चित रूप से करना चाहिए। उसके बाद क्षेत्रीय भाषा को भी अवश्य महत्व देना चाहिए। आज महान भाषा हिंदी रोजगार के अवसरों में बाधक केवल इसलिए है, क्योंकि हमें अपनी भाषा का महत्व ही नहीं मालूम है।
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