आपके आसपास कोई मुस्लिम बस्ती है क्या? वही, जिसे आपके शहर का ” मिनी पाकिस्तान कहते” हैं। कभी देखिएगा ध्यान से, शायद ही ऐसी बस्ती “पॉश” कही जा सकती हैं। इनके हालात Ghetto से बेहतर नही होते।
Ghettoization शब्द का बड़ा दागदार इतिहास है। घेट्टो एक तरह की चाल होती है, मुम्बई की चाल आपने सुनी होगी। सामुदायिक किस्म के अपार्टमेंट , जिसमे निम्न मध्यवर्ग रहता है। घेट्टो कुछ वैसा ही है।
नाजीयों के राज में घेट्टो बनाये गए थे। ज्यूस को सोसायटी से निकाल कर यहां रखते। बेहद घटिया सिविक कन्डीशन में ये एक तरह की जेलें थी। यहां से लोगो को ट्रेनों में भरकर कंसन्ट्रेशन कैम्पो में पहुंचा दिया जाता। कंसेंट्रेशन का मतलब होता है- इकट्ठा करना। कैम्प में पहुंचते ही स्त्री बच्चे बूढ़े तत्काल नहाने भेज दिए जाते। बाथरूम के शावर से “ज्य्क्लोन-बी” नाम की गैस निकलती, सब मर जाते। कार्यक्षम लोग कुछ माह, भूखे कमजोर होने के बाद गैस चेम्बर जाते।
भारतीय मुस्लिम अपने खुद के बनाये घेट्टो में रहते हैं। इनका निर्माण अलग अलग कालक्रम में अलग ढंग से हुआ। पुराने शहरों में सुलतानों-नवाबों के महलों के गिर्द मुस्लिम बस्तियां मिलेंगी। मुस्लिम सत्ता के दौर की सिविल लाइन या ऑफिसर्स कालोनी समझिये। वैसे आज इनके भी हाल किसी घेट्टो की तरह है।
मगर आजादी के बाद का घेट्टोकरण दुर्भाग्यपूर्ण था। विभाजन के बीज दंगो की शक्ल में फूटते रहे, मुसलमान अपने मे सिमटते गए। लेकिन 70-80 का दशक आते आते स्थिति बदली. फिर से गर्माहट आती है,1992 के बाद। कास्मोपोलिटन समझे जाने वाले शहरों में भी मुसलमान अच्छी कालोनियों से निकलकर उन जगहों पर चले गए, जिन्हें मुस्लिम बहुल इलाका माना जाता हो।
सुरक्षा की तलाश में ये समाज आत्म-घेट्टोकरण का शिकार हुआ, आज वही इलाके मिनी पाकिस्तान करार दिए जाते हैं। इन घेट्टो के अंदर क्या होता था, क्यों होता है, इसकी सूचनाये कम हैं, धारणाए ज्यादा। गोद मे बैठे मीडिया की खबरें है, कि कहीं पाकिस्तान के नारे लगे, ये कि कहीं आतंकवादी पैदा हो रहे हैं, कि किसी मस्जिदों में भारत विरोधी तकरीर हो रही।
घेट्टो का युवा भ्रमित है, अंदर एकता का जोश, बाहर अल्पसंख्यक होने की कमतरी। मौजूदा राजनीति ने इन्हें धमकाने, भयाक्रांत करने में कोई कसर नही छोड़ी। जनमानस के एक हिस्से ने खुलकर इस धारा को अपना लिया है। समाज के अलग अलग हिस्से जब भी एक दूसरे से दूर होते हैं, एक दूसरे के खिलाफ अविश्वास और कबीलाई आक्रामकता स्वतः जन्म लेती हैं। घेट्टो की सीमाओं के दोनो ओर युद्धोन्माद का पूरा समान मौजूद है।
ये युद्धोन्माद लाशों के ढेर की ओर बढ़ता दिखाई देता है। वही लाशें जो नफरत की सियासत को खाद पानी देती है। लाशों का धर्म नही होता, उंसके तमाशबीनों की ताली से सत्ता निकलती हैं। आज भारत मे उसी नाजीज्म का सस्ता वर्जन है, नकली देशभक्ति है, झूठ का बोलबाला है, नफरत की सियासत है, प्रोपगंडा चैनल हैं, निशाने पर लाया गया एक समाज है, जिसके आत्मनिर्मित घेट्टो भी हैं। न्यूरेमबर्ग-नुमा कानून और डिटेंशन कैम्प भी जुटा लिए गये हैं।
मगर आगे की राह में थोड़ा फर्क है। नाजियों को शर्म थी, छुपाकर गैस चेम्बर्स में ले जाते थे. यहाँ शर्म की जरूरत नही. बस्तियों को ही एक्सटर्मिनेशन कैम्प में तब्दील करते इन्हें देखा है. फर्क मगर खास ये, कि आम जर्मन इसके खिलाफ खड़े नही हुए थे, हम खड़े हो गये हैं। ये याद करके कि हम भारतीय हैं, और “हम भारत के लोग” किसी तानाशाह की आवाज पर होलोकॉस्ट के समर्थन में खड़े होने वाली ब्रीड नही।
तब ये पहले आपकी भारतीय होने की पहचान छीनना चाहते हैं। फिर धीमे से याद दिलाते हैं – “आप तो हिन्दू हैं, आपके लिए कानून में छूट है” उन्हें कह दीजिये – साहेब, हम सगर्व हिन्दू हैं.. वसुधैव कुटुम्बकम वाले।
आखिर पनाह छीनना, जान लेना.. एक हिन्दू की तासीर नही। इससे पहले कि वे किसी घेट्टो को चुनें, आप पहले चुन लीजिये. बार्डर क्रास कीजिये, उन्हें हाथ पकड कर बाहर लाइए, अपने बीच घुला मिला लीजिये। और तब, गर्व से कहिये, हम हिन्दू हैं।
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