नौकरीपेशा लोगों के लिए…या यूं कहिए केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों को छोड़ हर नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए…10 अगस्त 2017 को केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने लोकसभा में The Code on Wages Bill, 2017 पेश किया…इसका उद्देश्य बताया जा रहा है कि असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए पूरे देश में ‘न्यूनतम भत्ता’ निर्धारित करना है…केंद्र सरकार एक बार न्यूनतम भत्ता तय कर देगी तो राज्य सरकार उससे कम भत्ता तय नहीं कर सकेंगी….बताया जा रहा है कि इससे 40 करोड़ से ज़्यादा कामगारों को लाभ मिलेगा…सुनने में ये बड़ा अच्छा लगता है…न्यूनतम भत्ते पर ही सरकार ने सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया…मीडिया ने इसका प्रसार भी खूब किया…
किसी ने ये जानने कि कोशिश नहीं की कि ‘The Code on Wages’ में और है क्या क्या…
अगर ये लागू हो जाता है तो इसके ये-ये असर भी होंगे-
1.ये सारे एक्ट्स खत्म हो जाएंगे- The Payment of Wages Act, 1936, the Minimum Wages Act, 1948, the Payment of Bonus Act, 1965 and the Equal Remuneration Act, 1976 (Clause 60)…
- इसके मुताबिक़ महीने के हिसाब से मेहनताना (पारिश्रमिक) दिए जाने की कोई बाध्यता नहीं रह जाएगी. अब मेहनताना घंटे या दिन या महीने के हिसाब से तय किया जा सकेगा…यानि अब नौकरी घंटों या दिन के हिसाब से भी दी जा सकेगी…
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पे-कमीशन या wage-revision आदि ख़त्म किए जा रहे हैं…सरकार एक ‘सलाहकार बोर्ड’ बनाएगी जो पारिश्रमिक तय करेगा…कोड के हिसाब से हर पांच साल बाद न्यूनतम भत्ता तय किया जाएगा…
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15 साल से नीचे की उम्र के किसी भी कर्मचारी को लेकर जुर्माना नहीं लगाया जाएगा… यानि 15 साल से कम उम्र के लोग भी काम पर रखे जा सकेंगे….
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किसी को भी केवल 2 दिन के नोटिस पर काम से निकाला जा सकेगा…अगर कोई नौकरी छोड़ता है या बर्खास्त किया जाता है तो दो दिन में उसका भुगतान कर दिया जाएगा…
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दिन में 8 घंटे की बाध्यता की जगह काम के कुछ घंटे भी तय किए जा सकते हैं…
- हफ्ते में 6 दिन कामकाजी रहेंगे और 1 दिन छुट्टी का…
श्रम सुधार का पेंच हमेशा से इतना पेचीदा रहा है कि सभी सरकारें इससे बचती रही हैं…1992 में शुरू ‘ग्रेट ग्रेट’ सुधारों में भी इससे बचा गया था…जटिल श्रम कानूनों को आसान बनाना सही दिशा में कदम माना जाता है लेकिन दुर्भाग्य से ये ‘एक समान न्यूनतम भत्ते’ के पेंच पर ही उलझ कर रह जाता है…क्या इसी पेंच को आगे रखकर ये सरकार ऐसे प्रावधान बिना शोरशराबे के कर रही है जिससे कॉरपोरेट के हित साधे जा सकें…
चलिए अब जिस न्यूनतम भत्ते पर इतना जोर दिया जा रहा है उसके एक साइड इफैक्ट पर भी बात कर ली जाए…इससे छटनी में तेजी आ सकती है, नई भर्ती पर रोक लग सकती है या ये दोनों ही काम एक साथ हो सकते हैं…नतीजा बेरोजगारी और बढ़ने के तौर भी सामने आ सकता है…वो भी ऐसी स्थिति में जब भारत में नये रोजगारों का सृजन पहले से ही समस्या बना हुआ है…
कंपनियां कामगारों को अधिक भत्ता देने की जगह अब मशीनों पर ज्यादा दांव खेल सकती हैं जो दीर्घकालिक दृष्टि से उनके लिए फायदे का सौदा रहेगा…अमेरिका में वाल मार्ट स्टोर्स इंक ने कैशियर की पोस्ट पर इंसानों को रखने की जगह सेल्फ चेकआउट मशीन का इस्तेमाल शुरू कर दिया है…मैक्डॉनल्ड जैसी फूड चेन्स ने भी कैशियर की जगह ऐप्स और ऑर्डिरिंग कियोस्क का इस्तेमाल शुरू कर दिया है…
नोटबंदी हो या सब्सिडी हटाने के ताबड़तोड़ फैसले, या ‘The Code on Wages’ ये सब क्या दर्शाता है… दरअसल, नव उदारवादी नीतियों को लागू करना मोदी सरकार की मजबूरी है…अभी हाल में एक घटनाक्रम हुआ…नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद से अरविंद पनगढ़िया ने ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि वे 31 अगस्त के बाद इस पद पर नहीं बने रह सकते…पनगढ़िया ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में दोबारा पढ़ाने को अधिक तरजीह दी…अरविंद पनगढ़िया के स्थान पर मोदी सरकार ने अर्थशास्त्री डॉ राजीव कुमार चुना है…अगले महीने से वे सरकार के शीर्ष थिंक टैंक की अगुआई करेंगे…रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के प्रबल समर्थक रहे डॉ राजीव कुमार एयर इंडिया के निजीकरण की भी जोरदार वकालत करते रहे हैं…
आर्थिक मुद्दों पर गहरी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार राजेश रपरिया ने डॉ राजीव कुमार के बारे में अपने एक लेख में लिखा- “कई टीवी बहसों में राजीव कुमार का सान्निध्य मिला है. पर उनका दिल कभी गरीबों के लिए नहीं धड़कता है…गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी पर उनसे कभी मतैक्य नहीं हो पाया. उन्हें कॉरपोरेट सेक्टर को मिलने वाली औसतन पांच लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी से कभी कोई ऐतराज नहीं रहा…”
मोदी सरकार के केंद्र में सत्ता में आने से करीब एक महीना पहले 21 अप्रैल 2014 को ‘नवभारत टाइम्स’ में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था- ‘आख़िर किसके अच्छे दिन आने वाले हैं?’ उसी लेख का एक अंश यहां उद्धृत कर रहा हूं-
“मोदी के मददग़ारों में सबसे बड़ा नाम भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के कॉरपोरेट मॉडल का लिया जा सकता है…कॉरपोरेट जगत के बड़े खिलाड़ियों का एकसुर में मोदी की शान में कसीदे पढ़ना संयोग नहीं है…नव उदारवादी नीतियों को देश पर थोपने के लिए कारोबारियों को मोदी से ज़्यादा मुफ़ीद नेता अब और कोई नही दिख रहा… वेलफेयर स्टेट की धारणा के तहत चलने वाले महंगे सामाजिक कार्यक्रम अब कॉरपोरेट जगत की आंख की किरकिरी बन गए हैं…”
अब उस लेख के करीब साढ़े तीन साल बाद देश में जिस तरह की परिस्थितियां हैं उस पर गौर कीजिए…2014 में मोदी की जीत में कॉरपोरेट शक्तियों के समर्थन ने भी अहम भूमिका निभाई थी…अब इन्हीं शक्तियों का जोर है कि आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण को जोरशोर से शुरू किया जाए जिसमें वेलफेयर सब्सिडी जैसा कोई प्रावधान शेष ना रहे…
ऐसा करते हुए ये भूला जा रहा है कि सब कुछ मैनेज किया जा सकता है लेकिन जन-भावनाओं के अंडर करंट को नहीं…2004 के ‘इंडिया शाइनिंग’ से अच्छी मिसाल और क्या हो सकती है?