राजनीति में उखाड़ पछाड़ चलता रहता है। यह सनातन है। उसी तरह से संसदीय लोकतंत्र में हार जीत होती रहती है। बिल्कुल एक बनारसी कहावत की तरह, कभी घनीघना, कभी मुट्ठी भर चना कभी वह भी मना। लेकिन संसदीय लोकतंत्र को पटरी पर बनाये रखने के लिये जिन संस्थाओं का गठन संविधान में किया गया है उनमें भारतीय निर्वाचन आयोग सबसे महत्वपूर्ण है। चुनाव, प्रतितिनिधित्व लोकतंत्र की जान होते हैं और निर्वाचन आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह नियम और कायदे से चुनाव सम्पन्न कराए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 और रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट 1951 के अंतर्गत यह संस्था विधायकों से ले कर राष्ट्रपति तक का चुनाव सम्पन्न करती है। यह चुनाव निष्पक्ष हों इस लिये मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्त को संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है। लेकिन हाल में आयोग के कुछ ऐसे निर्णय सामने आए जिससे इस संस्था की निष्पक्षता पर विवाद उठ खड़ा हुआ है।
निर्वाचन आयोग, टीएन शेषन के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने के पूर्व खबरों में कम ही रहता था। चुनाव के दौरान भी अखबार मुख्य निर्वाचन आयुक्त का नाम ले कर कम ही चर्चा करते थे। विवाद और शिकायतें भी कम ही होती थीं। बूथ लूटने और बूथ छापने की घटनाएं, मूलतः शांति व्यवस्था से जुड़ी घटनाएं होतीं थीं तो उससे पुलिस और मैजिस्ट्रेट ही निपट लेते थे। चुनाव के दौरान कोई नीतिगत विवाद खड़ा भी कम ही होता था। इसका कारण यह भी था, चुनाव लड़ने वाली जमात में नैतिकता बोध शेष था और संचार के साधन केवल अखबार थे या राज्य नियंत्रित दूरदर्शन और आकाशवाणी तो विवाद अगर स्थानीय होता भी था तो वह देशव्यापी नहीं हो पाता था। प्रचार साधन के सीमित होने से वह अधिक फैल भी नहीं पाता था, और लोगों की स्मृति से उतर भी जाता था। लेकिन अब सोशल मीडिया और इस पर सक्रिय लोगों का मित्र समूह भी देशव्यापी क्या विश्वव्यापी हो गया है। केरल के एक छोटे से बूथ की खबर मोबाइल पर लाइव तत्काल देखी जा सकती है और उस पर बहस हो सकती है। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग के समक्ष खुद को साफ सुथरा रखने और खुद को साफ सुथरा दिखाने की एक स्वाभाविक चुनौती आ खड़ी हुई है।
1991 के चुनाव का एक किस्सा है। चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, और टीएन शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त। 21 मई को चुनाव प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी। हत्या की खबर मिलते ही शेषन ने चुनाव के तयशुदा कार्यक्रम में बदलाव कर चुनाव को 15 दिन के लिये असामान्य परिस्थितियों के कारण टाल दिया गया। जब इस कि खबर प्रधानमंत्री को हुयी तो उन्होंने कैबिनेट सचिव से इसके बारे में पूछताछ करने को कहा। प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार को भी यह खबर समाचार माध्यमों से मिली। यह शेषन का अपना निर्णय था। तब आयोग एकल होता था। कैबिनेट सचिव के पूछने पर शेषन ने उन्हें उनकी मर्यादा तो बताई ही साथ मे यह भी बता दिया कि, चुनाव के तिथियों में फेरबदल करने का अधिकार आयोग है। चुनाव की अधिसूचना लागू होने के बाद अदालतें भी चुनाव प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकतीं हैं। उस समय आयोग को असीमित शक्ति मिल जाती है।यह प्राविधान इसलिए किया गया है कि आयोग बिना दबाव और भय के सरकार के शिकंजे से मुक्त रह कर काम कर सके। लेकिन जब आयोग की क्षवि और कार्यप्रणाली पर विवाद उठता है तो संस्था की साख संकट में आती है।
हाल ही में चुनाव आयोग के कुछ फैसलों को ले कर विवाद हुआ है। उसमें सबसे पहला विवाद ईवीएम को ले कर हुआ है। मैं खुद चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा रहा हूँ और ईवीएम तथा मतपत्र दोनों से ही चुनाव कराए हैं, लेकिन यह आज तक समझ नहीं पाया कि ईवीएम हैक कैसे हो सकती है। दिल्ली विधानसभा में विधायक सौरभ भारद्वाज ने ईवीएम हैक कर और उसे लाइव दिखा कर के सनसनी भी फैला दी थी, पर जब आयोग ने अपनी ही मशीनें हैक कर के दिखाने की चुनौती दी तो, कोई भी सामने नहीं आया। इस अविश्वसनीयता और विवाद से बचने के लिये ही वीवीपीटी मशीन जिसमे से डाले गए वोट की कागज़ी प्रति निकलती है को हर ईवीएम के साथ लगाए जाने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। ईवीएम मशीनें दुनिया भर के अनेक देशों से हटा ली गयीं है पर अभी भी हमारे यहां है। अब ईवीएम और वीवीपीएटी का मिलान कर के जोड़ने के बाद अगर कोई अंतर नहीं आता है तभी इन मशीनों पर कोई विवाद उठने की संभावना नहीं होगी। विवादों को नज़रअंदाज़ किया भी नहीं जाना चाहिए क्यों कि इससे न केवल संदेह पुख्ता होता है बल्कि साख पर संकट और गहराता भी है।
अभी कैराना में चुनाव के दिन ही भारी संख्या में मशीनें खराब हो गयी। कहा गया कि गर्मी से ये मशीनें खराब हो गईं हैं। गर्मी का असर हो सकता इन उपकरणों पर पड़ता हो, पर अगर ऐन चुनाव के दिन ही यह कहा जायेगा तो इसका मज़ाक़ उड़ेगा ही। आयोग को मशीन का स्पेशिफिकेशन जारी कर क्या सावधानी रखना है, यह बताना चाहिये। उसे यहां भी आगाह करना चाहियें था कि कितने तापक्रम पर मशीनें काम करना बंद कर सकती हैं। 20 सालों से ईवीएम से चुनाव हो रहे हैं, लेकिन आज तक गर्मी से मशीन हैंग कभी नहीं हुयी । यह भी पहली बार ही हुआ है कि गर्मी से ईवीएम कैराना में तो खराब हुई पर महाराष्ट्र जहां गर्मी कम नहीं पड़ती है, वहां से ईवीएम के गर्मी से खराब होने की खबर नहीं आयी। मशीनों का खराब हों जाना बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं है पर खराबी के बारे में बिना सोचे समझे और जांचे, कारण बता देना उसे अस्वभाविक बना देता है। एक अच्छा निर्णय आयोग ने यह लिया कि कैराना में जहां मशीनें खराब हो गयीं थीं उन 73 स्थानों पर पुनर्मतदान करा दिया।
आयोग की साख पर सबसे गहरा झटका मुख्य निर्वाचन आयुक्त, एके जोति के उस फैसले से लगा जो उन्होंने अपने अवकाश ग्रहण के दिन, बिना आरोपी को अपनी बात कहने का अवसर दिए, दिल्ली के कुछ विधायकों को, लाभ के पद में मानते हुए अयोग्य घोषित कर दिया। बाद में इसी झटके में राष्ट्रपति ने भी अधिसूचना भी जारी कर दी। पर एक बेहद ज़रूरी कानूनी नुक्ते कि, इस मामले में न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना की गयी है के आधार पर हाई कोर्ट ने उसे निरस्त कर दिया। इससे यह संदेश गया कि आयोग ने किसी के दबाव में यह फैसला लिया है। दबाव का प्रमाण हो या न हो पर अगर परिस्थितियों का गहन अध्ययन किया जाय तो संदेह स्वभावतः उठता है।
यही बात कैराना में प्रचार बन्द हो जाने के बाद प्रधानमंत्री जी के रोड शो पर भी उठाया जा सकता है। तकनीकी रूप से सड़क के लोकार्पण और रोड शो को अनुचित नहीं कहा जा सकता है और उस पर अंगुलियां भी नहीं उठती, अगर यही लोकसभा का उपचुनाव लगे हुए क्षेत्र के बजाय कहीं दूर का होता तो।
कर्नाटक के चुनाव की घोषणा चुनाव आयोग 11 बजे की प्रेस कॉन्फ्रेंस में करने वाला होता है तभी उस दिन सुबह 8 बजे बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख, अमित मालवीय यह घोषित कर देते हैं कि 11 मई को चुनाव होंगे। उनके ट्वीट के तुरंत बाद ही टाइम्स नाउ यही खबर ट्वीट कर देता है। ज़्ब सोशल मीडिया पर हंगामा मचता है तो आयोग खिसोयाते हुए कहता है कि यह लीक कैसे हो गया, इसकी जांच कराई जाएगी। आज तक यह पता नहीं चला कि उस जांच में हुआ क्या है। अगर शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त होते तो सरकार को गोपनीयता भंग करने के आरोप में अमित मालवीय की जांच कराते और वह यह भी हो सकता था कि तिथि ही रद्द कर दूसरी तिथि की घोषणा करते ताकि आयोग की साख बनी रहे।
गुजरात विधानसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री द्वारा वोट डालने के बाद सड़क पर जनता से मिलते हुए घूमना जिसे विरोधी दलों ने रोड शो का नाम दिया था और आयोग से शिकायत की थी पर आयोग की चुप्पी खलने वाली थी। प्रथमतः तो प्रधानमंत्री जी को स्वयं यह आचरण नहीं करना चाहिए था, और अगर ऐसा हुआ भी तो आयोग को शिकायत के बाद नोटिस जारी करना चाहिये था।
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव की मतगणना 15 को होने वाली थी। भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बीएस येदुरप्पा यह घोषणा भी कर देते हैं कि वे 17 मई को शपथ लेंगे। और उन्होने 17 मई जो बिना बहुमत के ही सबसे बड़ी पार्टी के नेता की हैसियत से मुख्यमंत्री के पद की शपथ भी ले लिए। यह अलग बात है कि सर्वोच्च न्यायालय की दखल और कांग्रेस तथा जेडीएस की रणनीति के कारण बहुमत सिद्ध होने के पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। येदुरप्पा ज्योतिष में विश्वास करते हैं और उन्होंने मुहूर्त देख कर यह घोषणा की थी हम 17 को ही शपथ लेंगे, अगर यह तर्क मान भी लिया जाय तो भी उनके इस सार्वजनिक घोषणा से शक आयोग की कार्यशैली पर ही गया।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त एके जोति की नियुक्ति पर भी लोगों ने अंगुलियां उठायी। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति इनकी नियुक्ति करते है। लेकिन राष्ट्रपति भी सरकार की सलाह से ही नियुक्ति करते हैं। यह कहना कि जोति इसलिये मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाये गए क्यों कि वे प्रधानमंत्री ने नज़दीक थे। गुजरात कैडर का होने के कारण भी उन्हें यह पद मिला था। अगर ऐसा हुआ भी है तो यह बिल्कुल भी अस्वाभाविक नहीं है। सरकार सभी संवैधानिक और मुख्य पदों पर अपने विश्वसनीय लोगों को नियुक्त करती ही है। टीएन शेषन भी कांग्रेस और राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट सचिव रह चुके थे और सरकार के नज़दीक भी थे। उनकी भी नियुक्ति सरकार ने अपना समझ कर ही किया होगा। लेकिन टीएन शेषन ने अपनी क्षवि एक कड़क, कानून से चलने वाले और एक निष्पक्ष प्रशासक की बनाई। उनके उत्तराधिकारी जेएम लिंगदोह भी अपनी कडक और निष्पक्ष क्षवि के लिये जाने गये। लेकिन एके जोति अपनी क्षवि और रुख निष्पक्ष नहीं रख पाए।
किसी भी संस्था की साख बनी रहे, यह दायित्व और कर्त्तव्य उस संस्था के प्रमुख का है। निर्वाचन आयोग सरकार का अंग नहीं है और न ही वह सरकार के आधीन है। सरकार चुनाव के लिये संसद से कानून पारित कर सकती है, आयोग के मानने पर सुरक्षा बल तथा अन्य अफसरों की फौज उतार सकती है, लेकिन जैसे ही चुनाव की तिथियों की घोषणा होती है, आयोग एक सुपर बॉस के रूप में आ जाता है। अगर आयुक्तों के मन में कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा या राज्यपाल या बड़े राष्ट्रों में राजदूत बनने की सुप्त आकांक्षा न हो, और उसकी कोई कमज़ोर नस सरकार के पास न दबी हो तो बिना दबाव के कार्य करने में आयुक्तों के समक्ष कोई बाधा नहीं है। संविधान के निर्माता, आयोग की कार्य प्रणाली के प्रति संवेदनशील थे इसी लिये इस संवैधानिक पद के लिये उन्होंने संवैधानिक संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की है। पर इतने संरक्षण के बाद भी, अगर कोई अफसर डोल जाय तो, यह तो मेरुदंड की क्षीणता ही कही जाएगी।
आयोग को 2019 का आम चुनाव कराना है। यह चुनाव काफी गहमागहमी भरे भी होंगे। आयोग के हर कदम पर विरोधी दलों की नज़र रहेगी। साख टूटती तो है एक झटके से पर उसे बनाने में बहुत समय लगता है। आयोग को इस तरफ भी ध्यान देना होगा। उसे एक कुशल रेफरी की तरह जो भी फाउल खेले सीटी बजा देनी होगी और कार्ड दिखाना होगा। दर्शक दीर्घा में बैठे दर्शक जब मनोयोग से खेल में रमे रहते हैं तो, रेफरी की हर हरकत साफ नजर आती है। साख बचाना या न बचाना यह संस्थान का काम है। सरकारें तो आती जाती रहेंगी।
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