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युवाओं की आकांक्षा की हत्या का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट – रविश कुमार

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भारत से अमरीका पढ़ने जाने वाले छात्रों की संख्या में इस साल 12.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। चीन से जाने वाले छात्रों की संख्या में 6.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लगातार तीन साल से अमरीका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ती जा रहीहै। 186,267 छात्र अमरीका गए हैं। अमरीकी यूनिवर्सिटी में पचास फीसदी छात्र भारत और चीन से पढ़ रहे हैं।
बिजनेस स्टैंडर्ड में विनय उमरजी की रिपोर्ट है। यह वृद्धि तब है, जब अमरीका ने वीज़ा मिलने की प्रक्रिया को जटिल और धीमा कर दिया है।  जिन्हें पढ़ना है और जो सक्षम हैं, वो यहां से निकल लिए। उन्हें पता है कि भारत की यूनिवर्सिटी किसी लायक नहीं बची है। उनका भरोसा सिर्फ नेता में रह गया है। स्कूल कालेज और अस्पताल में नहीं। यह सही भी है कि भारत की यूनिवर्सिटी कबाड़खाने से ज़्यादा नहीं हैं। पिछले दिनों फाइनेंशियल एक्सप्रेस में एक और रिपोर्ट आई थी। भारत की उच्च शिक्षा का बजट 25,000 करोड़ है। अमरीका में भारतीय छात्र जो अपनी पढ़ाई के लिए निवेश कर रहे हैं वो 42,000 करोड़ से ज़्यादा है।
अब भी आप हिन्दू मुस्लिम टापिक में ही धंसे रहना चाहते हैं तो आपकी मर्ज़ी। भविष्य बर्बाद हो रहा है और नेता आपका इतिहास टीवी पर करेक्ट करवा रहा है। धंसे रहिए इस दलदल में।
कम से कम आई टी सेल के लिए ट्रोल की कमी नहीं होगी। जो लोग आईआईटी नहीं कर पाते हैं वो आज कल आईटी सेल में चले जाते हैं।  दो चार आई आई टी हैं, आई आई एम हैं, कुछ कालेज हैं, उन्हीं को पिछले बीस साल से साल में दस बार गिना जा रहा है। इन्हें फिर से गिनने के लिए एक और रैंकिंग आई है। हमारे देश में फ्राड ख़ूब चलता है।
क्लास के क्लास में योग्य शिक्षक नहीं हैं। शिक्षकों की भर्ती होती नहीं, होती है तो राजनीतिक मुख्यालयों से पर्ची कटाकर हो रही है। हमारे नौजवान किसी भी शिक्षक को स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि वे इस लायक ही नहीं होते हैं कि अच्छे शिक्षक और बुरे शिक्षक में फर्क कर सकें। जिन स्कूलों से कालेज आते हैं वहां भी कहां सबको अच्छे शिक्षक मिलते हैं।
यह कैसा युवा है जो क्लास न हो तो मंज़ूर, परीक्षा में चोरी हो तो मंज़ूर, टीचर न मिले, लैपटॉप मिल जाए तो वह मंज़ूर, लाइब्रेरी न हो, वह भी मंंज़ूर। कितने लोगों का ढंग से पढ़ने का सपना रोज़ ध्वस्त होता होगा।
कस्बों में दूर- दूर से लड़कियां बसों में आती हैं कि कालेज में पढ़ाई होगी, नहीं होती है। लड़के भी जाते हैं मगर किसी को पता ही नहीं कि घटिया मास्टर ने घटिया पढ़ाकर उल्लू बनाया है। ऐसे नौजवान टीवी पर बांचे जा रहे कचरे की तरह इतिहास को किताब न समझेंगे तो कौन समझेगा। सिस्टम ने जिस लायक बनाया है, ज़्यादातर उसी लायक परफार्म कर रहे हैं।
इसलिए भारत के युवा चाहें जितने प्रतिशत हैं, नेता उन्हें बोरी में रखे आलू से ज़्यादा नहीं समझते हैं। युवा भी नेताओं को ग़लत साबित नहीं करते हैं। भारत के नौजवानों को उल्लू बनाना सबसे आसान है। जो न बनाया उसने नेतागिरी ही क्या की। क्या किसी का कलेजा नहीं फटता कि हम इन युवाओं की क्षमता का किस निर्ममता से हत्या कर रहे हैं? क्या युवाओं को ही फर्क नहीं पड़ता है क्या?