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बिलक़ीस बानो – "हिम्मत और बहादुरी की मिसाल"

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क़ुदरत नें हिन्द के खज़ाने में किसी चीज़ की कमी शायद नही छोड़ी, यहाँ हर फ़िल्ड के माहिर मिलते हैं, यहाँ की औरतें भी हर दौर में हर समय अपनी मिसाल, अपनी पहचान की छाप एैसी छोड़ जाती हैं जिसे एक लंबे समय तक भुलाने वाले चाह कर भी भुला नही पाते हैं।
ये हिन्द की ही सर जमीं है जहाँ रज़िया सुल्ताना पैदा हुई जो किसी भी मुल्क पर हुकूमत करने वाली पहली औरत थी, उस दौर से आगे बढ़ते हुए जब आप आधुनिक भारत की तरफ़ बढेगें तो आपको हज़रत महल, रानी लक्ष्मीबाई, भोपाल की नवाब बेगम, कसतुरबा गांधी, सरोजनी नायडू, बी अम्मा, अरुणा आसफ़ अली, मातांगनी हाजरा, सुरैया तैय्यब, इंदिरा गांधी, प्रतिभा पाटिल, कल्पना चावला, सुषमा स्वराज जैसी बड़ी बड़ी हस्ती मिलती हैं।
इनमें से हर किसी ने अपने फ़िल्ड में अपनी छाप छोड़ी, ये सब हिन्द की बहादुर हिम्मत वाली औरतों में शुमार होती हैं लेकिन एक नाम ऐसा है एक चेहरा है जिसकी हिम्मत के आगे, जिसकी बहादुरी के आगे, जिसके सबर के आगे सब फीका है, सबका रंग जहाँ मधम हो जाता है वो नाम है बिलक़िस बानो का, हाँ वो औरत बिलक़िस बानो हैं।
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मैं चाहकर भी उस चीज़ को लिख नही पा रहा, ज़हन में लफ़्ज़ नही मिल रहे, जिस चीज़ को बिलक़िस ने बर्दाश्त किया, याद रखिएगा इस बात को वो गर्भवती थी, उसकी दो साल की बेटी को मार दिया गया, उसकी माँ को मार दिया गया, जिसकी रपट को लोकल पुलिस वाले ने लिखने से इंकार कर दिया, जिसने अपना सब कुछ खोने के बाद एक लड़ाई लड़ी हो उससे ज्यादा बहादुर कौन हो सकता है?
जिसे धमकी की वजह से अपना केस दूसरे स्टेट में ट्रांसफर कराना तो मंज़ूर हुआ लेकिन ख़ामोश रहना मंज़ूर नही किया, भला उसकी हिम्मत के सामने कौन खड़ा हो सकता है? बिलक़िस बानो इस देश के लिए हिम्मत बहादुरी की मिसाल है, उसने वो कर दिखाया जिसका लोग सोच भी नही पाते, उसने हर सवाल को जिस सबर के साथ झेला उसकी मिसाल किताबों में भी आपको नही मिलेगी.

आज Women’s Day है, मैनें इस दिन अक्सर देखा है, किसी फ़िल्मी स्टार या किसी खिलाड़ी को लड़कियों का रोल माडल बता कर सेलिब्रेट किया जाता है. उसकी वजह ये बताई जाती है कि ये बहुत हिम्मत वाली है, इन्होंने हालात से माहौल से सबसे लड़ा है, हो सकता है सबकी बातें सही हो लेकिन जब भी मैंने हिन्द की तारीख़ में अपने माहौल से लड़ने वाली औरत को तलाश किया तो बिलक़िस बानो को ही पाया.
बिलकिस बानो को अपनी लड़ाई पंद्रह साल लड़नी पड़ी और ये सत्तर साल में आज़ाद हिन्द की तारीख़ में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी दंगे के गैंग रेप केस में मुजरिमों को सज़ा सुनाई गई हो. ये बिलक़िस की हिम्मत थी क्युंके उसके इरादे फ़ौलाद से भी ज़्यादा मज़बूत थे.