21 वीं सदी में जब बेबाक़ और प्रसिद्ध नेताओं की गिनती होती है तो उसमें सबसे बड़े नामों में से एक ओवैसी का आता है। टीवी डिबेट्स से लेकर संसद तक असदुद्दीन जब भी बोलते हैं तो उन्हें सुनने वाले उनके मुरीद हुए जाते हैं। ऐसा ही कुछ उन्होंने कल बोला है। उनका कहना है कि “हमारे प्रत्याशी विधायक बनेंगे क्योंकि हमारा संग़ठन यूपी में 50 ज़िलों में हैं।”
ओवैसी ऐसा क्यों कह रहे हैं? ऐसा ओवैसी इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वो दबाव की राजनीति करना चाहते हैं, इस दबाव ही कि वजह है कि 2017 के चुनाव में भी यूपी में लड़ चुके ओवैसी को इस बार सपा के किसी भी बड़े लीडर ने हल्के में नहीं लिया है। बल्कि खुद अखिलेश यादव ने उनसे गठबंधन के सवाल पर कहा था कि “सभी छोटे दलों से गठबंधन की कोशिश की जाएगी।”
औवेसी की पार्टी लगातार कर रही है अच्छा प्रदर्शन
इसका क्या मतलब है? इसका सिर्फ एक ही मतलब है कि ओवैसी की 2017 की स्थिति और अब की स्थिति में फर्क है, बल्कि यूँ कहें कि बहुत फ़र्क़ है। 2017 में ओवैसी की पार्टी के सिर्फ एक सांसद खुद ओवैसी थे और तेलंगाना के अलावा वो बहुत ज़्यादा जगह प्रभाव नहीं डालते थे। लेकिन अब बिहार और महाराष्ट्र में वो आगे बढ़े हैं। बिहार में तो उनकी स्थिति चौंकाने वाली थी। 20 सीटों पर लड़कर 5 विधायक जिताकर लाना कमाल का परफॉर्मेंस था।
अखिलेश यादव यही देख रहे हैं, क्यूंकि यूपी में लगभग वही स्थिति है जो बिहार मे थी यानी एंटी इनकम्बेंसी यहां की सरकार को भी 5 साल होने को आ रहे हैं। कोरोना का भयानक काल देख लिया गया है। किसान आंदोलन अब तक चल रहा है या और भी बहुत मुद्दे हैं। अखिलेश इस स्थिति में सबसे मज़बूत विपक्षी नेता भी दिख रहे हैं तो जिस तरह ओवैसी ने तेजस्वी यादव के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं कहीं उनके लिए न हो जाये।
पार्टी को राष्ट्रीय दर्जा दिलवाना चाहते हैं औवेसी
इसके अलावा असदुद्दीन ओवैसी खुद चाहते भी यही ही हैं। वो यूपी में इतना शोर और दबदबा इसी वजह से बना रहे हैं कि सपा या बसपा के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन हो जाये और 4 से 5 सीटों पर उनके प्रत्याशी जीत कर आ जाएं। क्यूंकि ये वो जीत होगी जो उन्हें और उनकी पार्टी को राष्ट्रीय तौर पर स्थापित करेगी।
ओवैसी की पार्टी के तेलंगाना, महाराष्ट्र और बिहार में विधायक हैं,2 लोकसभा के सांसद हैं। वहीं यूपी में भी अगर वो 4 से 5 विधायक जिता लाते हैं तो उनकी स्थिति बहुत मजबूत हो जायेगी। वरना ओवैसी खुद जानते हैं कि सरकार बनाने की स्थिति में तो वो कही भी नहीं हैं,लेकिन सरकार किसकी बननी है या नहीं इसमें अपना दखल ओवैसी ज़रूर चाहते हैं।
भाजपा के लिए भी औवेसी फायदेमंद
इसी वजह से ओवैसी “भागीदारी” या “हिस्सेदारी शब्द का इस्तेमाल करते हुए नज़र आ रहे हैं और इसका उन्हें फायदा भी मिलता है,क्योंकी इसमें कोई दो राय नही है कि ओवैसी को लोग पसन्द तो करते ही हैं। लेकिन ओवैसी से फायदा भाजपा को भी होता है इसमें भी कुछ गलत नहीं है। क्योंकि ओवैसी वो नेता हैं जो भाजपा के लिए बहुत फायदेमंद साबित होते हैं जैसे आज़म खान हुआ करते थे।
आज़म खान का नाम ले लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश यानी जहां 2013 में सांप्रदायिक दंगे हुए थे,आज़म खान का नाम लेकर भाजपा के नेताओं ने जमकर प्रचार किया था,और दंगों का आरोप उन पर डाला था। इसी वजह से ज़बरदस्त ध्रुवीकरण देखने को मिला था।
ये एक बहुत बड़ी वजह है कि अखिलेश ओवैसी से गठबंधन करने से पहले हाथ पीछे खींचेंगें। क्यूंकि अखिलेश यादव तो अपनी पार्टी के नेता आज़म खान पर भी अगर कुछ बोल रहे हैं तो सोच समझ कर ही..बाकी ठीक है देखते हैं।