देश कोई भी हो, उसके भविष्य निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका उसके किसान, मजदूर, छात्र और नौजवान ही निभाते हैं, खासकर किसान। चांद और मंगल पर पहुंच जाने के बावजूद दुनिया जिनके द्वारा उत्पादित अन्न का कोई विकल्प नहीं तलाश पाई है। लोगों के पेट की आग अभी भी अन्न से ही बुझती है और अन्न उनके खेतों में ही पैदा होता है, कारखानों में नहीं। अपने देश की बात करें तो इसमें किसानों का, उनकी बड़ी संख्या के कारण, सरकारें चुनने में भी कुछ कम योगदान नहीं है। इसलिए जो भी सरकार सत्ता में आती है, ‘उनकी’ होने का दावा करती ही करती है। भले ही ट्रैक बदलकर अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार के लिए खुद को उद्योगपतियों के भारी भरकम निवेशों की मोहताज बनाये रखती हो, जानती है कि संकट के वक्त उसकी गिरावट को थामने का दायित्व भी किसान ही निभाते हैं। वह इसे अतीत में आई मंदी और नोटबंदी वगैरह के वक्त तो देख ही चुकी है, अभी भी देख रही है, जब कोरोना और लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था औधे मुंह जा गिरी है और कृषिक्षेत्र बड़ी सीमा तक उससे अप्रभावित है।
हालांकि इस सरकार ने 2017 के अप्रैल महीने में ही संकेत दे दिये थे कि कुछ भावनात्मक फंसंतों को छोड़कर उसके पास किसानों को देने के लिए कुछ भी नहीं है। तब, जब महीने भर से राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रहे तमिलनाडु के किसानों का धैर्य इस कदर टूट गया था कि उन्होंने साउथ ब्लॉक स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया, लेकिन प्रधानमंत्री ने कोई शर्म नहीं महसूस की थी। तब भी नहीं, जब किसानों ने भयंकर सूखे व कर्ज के बोझ से जिन्दगी हार जाने वाले अपने परिजनों की खोपड़ियां हाथों में लेकर, सिर मुड़वाकर और साड़ियां पहनकर प्रदर्शन किया और स्वमूत्रपान की कोशिश भी की।
बाद में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व दूसरे कई राज्यों में अनसुनी से आजिज किसान अपनी उपजों के वाजिब दाम और कर्जमाफी वगैरह की मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे तो भी सरकार उनसे अपनों की तरह नहीं ही पेश आई। किसानों की सहनशीलता देखिये कि उन्होंने फिर भी सदाशयतापूर्वक अपने धैर्य के बांध को टूटने से बचाये रखा, लेकिन अब वह कृषि सुधारों के नाम पर सरकार द्वारा उठाये जा कदमों से पुरी तरह टूट जाने की ओर बढ़ता लगता है।
लगे भी क्यों नहीं, इन सुधारों के तहत अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू वगैरह न ‘आवश्यक वस्तुएं’ हैं और न ही इनकी जमाखोरी या कालाबाजारी कानूनन अपराध है। सरकार बता रही है कि किसानों की इन उपजों को उनके भले के लिए ही ‘मुक्त’ बाजार के हवाले किया गया है, लेकिन यह नहीं बता रही कि अब इनकी खरीद-बिक्री में बड़ी रिटेल कंपनियां प्रमुख खिलाड़ी होंगी, जो किसानों से अपनी शर्तों पर इन्हें खरीदेंगी और बेचेंगी। यानी न किसानों के हितों का संरक्षण आवश्यक होगा, न उपभोक्ताओं के हितों का। और यह ’एक देश, एक कृषि मार्केट’ के नाम पर होगा।
पता नहीं इस सरकार को ‘एक देश, एक…’ की तुकबन्दी से कितना लगाव है कि कभी वह ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात करती है, कभी ‘एक देश, एक राशनकार्ड’ की, कभी ‘एक देश, एक भाषा’ की और कभी ‘एक देश, एक बाजार’ की। अगर यह सारे देश को एक डंडे से हांकने की उसकी किसी परियोजना का हिस्सा है तो उसे समझना चाहिए कि विविधताओं से भरा यह देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि न सारे देश में एक जैसे हालात हैं और न वक्त की नजाकतें ही। इसलिए सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि वह अपनी तुकबन्दी को ‘एक देश, एक आय’ जैसी किसी योजना तक क्यों नहीं पहुंचाती?
बहरहाल, किसान इतने भर से ही खफा नहीं हैं। इसलिए भी खफा हैं कि इन कृषि सुधारों के तहत सरकार उन्हें मंडियों के बाहर भी उपज बेचने की जो ‘सहूलियत’ दे रही है, वह भी ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ की तरह उनके लिए कोढ़ में खाज ही सिद्ध होगी। तिस पर अनुबंध आधारित खेती को कानूनी वैधता उन्हें अपने ही खेतों में मजदूर बनाकर छोड़ेगी।
बात को इस तरह समझ सकते हैं कि ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ के तहत किसानों को देश में कहीं भी उपज बेचने की ‘आजादी’ प्रचार में जितनी आकर्षक नजर आती है, उतनी वास्तव में है नहीं। क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गेंहू उत्पादक किसान के लिए अच्छी कीमत के लालच में अपनी दस कुन्तल उपज किसी दूसरे सूबे की मंडी या बाजार में ले जाना और बेचना इतना दुस्साध्य व समय साध्य होगा कि उसके फायदे को नुकसान में बदल दे। यह किसान तो अनेक विवशताओं के कारण अपनी उपज को निकटवर्ती मंडी तक भी मुश्किल से ही पहुंचा पाता है। तिस पर उसके पास उसके ज्यादा दिन तक भंडारण की सुविधाएं भी प्रायः नहीं ही होतीं।
यकीनन, ऐसे में तथाकथित कृषि सुधारों के तहत बिचौलियों और व्यापारियों की भूमिका बढ़नी ही है और कृषि उपजों की मंडियों से बाहर खरीद-बिक्री का मतलब किसानों को ब़ड़े गल्ला व्यापारियों के रहमोकरम पर छोड़ देने के अलावा कुछ नहीं है। दरअस्ल, ये व्यापारी ही ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ के वास्तविक लाभार्थी होंगे, जो किसानों से औने-पौने दाम में उनकी जिंसें खरीदकर अपनी सुविधा व लाभ के अनुसार देश के किसी भी हिस्से में बेचेंगे। यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि इस खरीद-बिक्री के कारोबार की बेहतर सुविधाएं बड़े पूंजीपतियों के पास ही हैं और अब वे किसानों की मजबूरियों का पहले से ज्यादा फायदा उठाएंगे।
ऐसे में साफ है कि किसानों का नये बंटाढार के अंदेशों से हलेकान होना व सड़कों पर उतरना अकारण नहीं है। बेहतर होगा कि सरकार इन सुधारों पर अड़ी रहकर निवेशकों व पूंजीपतियों के हितों का पोषण करती रहने के बजाय किसानों को आश्वस्तिकारी संदेश देने के लिए अपने कदम पीछे खींच ले। इस कठिन समय में बेरोजगारों व युवाओं के साथ किसानों को भी उद्वेलित करना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं होगा। क्योंकि वे राजद्वार ऊंचे करते रहने के लिए हमेशा अपनी झोंपड़ियां झुकाते नहीं रह सकते।