प्रज्ञा ठाकुर ने अपने मन का ही सच नहीं बल्कि अपने गिरोह और गिरोह के सरदार सहित सभी लोगों के मन की बात देश की सर्वोच्च पंचायत में कह दी। प्रज्ञा ठाकुर ही नहीं पूरा संघ और उसके समर्थक गोडसे को देशभक्त ही मानते हैं। उनके देशभक्ति की क्या परिभाषा है, यह तो वही बता पाएंगे। एक हत्यारे को वह भी एक ऐसे महान व्यक्ति जो दुनियाभर मे हमारे प्रतीक के रूप में मान्य हो, के हत्यारे को केवल संघी मानसिकता में पले बढ़े लोग ही देशभक्त कह सकते हैं। क्यों कहते हैं, यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिये। जब सरकार और संसद में फर्जी डिग्री वाले, फर्जी हलफनामा देने वाले, हत्या की साज़िश रचने वाले, बम ब्लास्ट के आतंकी मुल्ज़िम पाए जाएंगे तो गोडसे को ही ऐसे तत्व देशभक्त कहेंगे, गांधी को नहीं।
दरअसल, यह गिरोह शुरू से ही बार बार ऐसे शिगूफे छोड़ कर यह टेस्ट करता रहता है कि गांधी के प्रति जनता में कितनी जनभावना अभी शेष है। जब उसे लगता है कि अभी भी गांधी का प्रभाव जस का तस है तो वह तुरन्त पीछे कदम हटा लेता है। माफी मांग लेता है। या हमारा यह आशय नहीं बल्कि यह था, आदि आदि, किंतु परंतु से अपनी बात रखने की जुगत में लग जाता है।
यह बयान भी उसी रणनीति का हिस्सा है।इस तरह की बयानबाजी का एक उद्देश्य यह भी है कि हम सबका ध्यान इन ठगों और हत्यारो की इन्ही सब बातों पर लगा रहे और वे गिरोही पूंजीपतियों को लाभ और जनता को नुकसान पहुंचाते रहें। गांधी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने संघ, हिन्दू महासभा और सावरकर का गेम प्लान असफल कर दिया था। और गांधी की इस उपलब्धि के पीछे उनको प्राप्त अपार जनसमर्थन था।
धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को जितना गहराई से प्रभावित किया है वह दुर्लभ है। गांधी की इस अपार लोकप्रियता का कोई तोड़ संघ के पास न तब था और न अब है। आरएसएस की गांधी से चिढ़ जगजाहिर है। पर ये करें क्या? देश के बाहर तो वह यह कह नहीं कह सकते हैं कि वे गोडसे के देश से आते हैं। इन पर केवल तरस खाइए, और इनसे कहिये बसे रहिये।
प्रज्ञा ठाकुर एक आतंकी घटना की मुल्ज़िम है। मुंबई, 26 / 11 के अमर शहीद हेमंत करकरे उनकी नज़र में देशद्रोही हैं और एक अपराधी। उन्हें प्रधानमंत्री जी ने दिल से माफ तो नहीं किया पर दिल मे बसा ज़रूर लिया। क्या यह संभव है कि प्रधानमंत्री जी जो सदन के नेता हैं की मर्ज़ी के बगैर प्रज्ञा ठाकुर रक्षा मंत्रालय की स्थायी समिति की सदस्य मनोनीत हो जांय? मनोनीत होते समय भले ही न उन्हें पता चल पाया हो क्योंकि यह नियुक्ति लोकसभा के अध्यक्ष करते हैं, पर मनोनयन के बाद तो प्रधानमंत्री जी उन्हें उस स्टैंडिंग कमेटी से हटाने के लिये तो कह ही सकते थे। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ ? गांधी के 150 वी जयंती पर प्रज्ञा ने एक बात सच कही कि वह गोडसे को देशभक्त मानती है और वही नही वह पूरा गिरोह गोंडसे को देशभक्त ही मानता है और उसके जघन्यतम अपराध का बचाव करता रहता है।
प्रज्ञा ठाकुर की क्या निंदा की जाय! टिकट भले ही उन्हें भाजपा ने दिया हो, उनके मस्तिष्क में ज़हर भले ही देश का सबसे बड़ा गिरोही और अपंजीकृत संगठन आरएसएस ने भरा हो पर उन्हें संसद में तो भेजा भोपाल की जनता ने ही न! लोकतंत्र की यह भी एक खूबी है कि हम देश के सबसे महानतम प्रतीक के हत्यारे का महिमामंडन करने वाली और बम ब्लास्ट के आतंकी घटना के मुल्ज़िम को चुन कर संसद में भेज देते हैं और वह उस पवित्र सदन में जो कहता है वह नेशनल ऑनर एक्ट के अंतर्गत अपराध हो तो भी, उसके खिलाफ कोई वैधानिक कार्यवाही इसलिए नहीं हो सकती है कि सदन में कही गयी किसी बात पर कोई कानूनी कार्यवाही, संसदीय नियमों के अनुसार, हो ही नहीं सकती है। उस कथन को बस सदन की कार्यवाही से निकाला जा सकता है, जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से, सदन की कार्यवाही से निकाल भी दिया गया। लोकतंत्र का एक पक्ष यह भी है।
जब संसद का अधिवेशन चल रहा हो तो, सरकार को ऐसे शिगूफे लगभग, हर रोज़ चाहिये, विशेषकर तब, जब एक एक कर के सारी नवरत्न सरकारी कंपनियां सरकार द्वारा बेची जा रही हो, अनुमानित कर संग्रह का आधा ही राजकोष में आया हो, वित्त मंत्री को यह तो पता है कि विकास थम गया है पर यह कहने और स्वीकार करने का उन्हें साहस न हो, कि देश आर्थिक मंदी के चपेट में है, कश्मीर में मरीज का ऑपरेशन कर के पेट तो खोल दिया गया है पर अब आगे क्या करना है, यह पता न हो तो, ऐसे ही शिगूफे सरकार की जान बचा सकते हैं और तात्कालिक राहत दे सकते हैं।
प्रज्ञा ठाकुर या आरएसएस की विचारधारा में पले बढ़े, किसी भी व्यक्ति के मुंह से अगर यह सुनने की आप की प्रत्याशा है कि गोंडसे हत्यारा और आतंकी था तो आप यह भूल कर रहे हैं। विनम्र से विनम्र और विधिपालक मानसिकता का संघी भी गोडसे की चर्चा होने पर, सुभाषितों से सम्पुटित अपनी वाणी में, गोडसे के पक्ष में ही खड़ा नज़र आएगा, और गोडसे की किताब ‘गांधी वध क्यों’ के कुछ उद्धरण ज़रूर सुना जाएगा। यह उनकी प्रिय पुस्तक है।
आपने नितिन गडकरी को नहीं सुना ? वे गांधी हत्या नहीं गांधी वध कहते हैं। बचपन से जो उन्होंने सुना है वही तो कहेंगे वे। हत्या और वध समानार्थी हैं पर शब्द का प्रयोग करने वाले की मानसिकता को वे उधेड़ कर अनावृत कर देते हैं। जान तो दोनों में ही जाती है, पर वध हत्या का औचित्य कुछ हद तक सिद्ध करता प्रतीत होता है, और अपराध को एक सम्मानजनक कवर दे देता है, इसलिए वे अपनी सर्किल में यही कहते हैं। ठगों और अपराधियों की भाषा बोली थोड़ी अलग होती है जो मुझे भी कुछ कुछ समझ में आती है।
गोडसे का लॉकेट यह पूरा गिरोह गले मे धारण कर ले या जितना मन करे, उस आतंकी हत्यारे का महिमामंडन कर ले, पर गांधी विश्व पटल और देश के जनमानस में जहां प्रतिष्ठित हैं वहीं रहेंगे। यह यथार्थ, इनको भी पता है और हम सबको भी। इसे थोड़ा दरकिनार कीजिये और जो ज्वलंत मुद्दे इस समय देश और समाज के समक्ष है, विशेषकर आर्थिकी, एलेक्टोरेल बांड , राजनीतिक चंदे, कश्मीर में बिगड़ते हालात, दुनियाभर में बिगड़ती अंतरराष्ट्रीय क्षवि, देश के अंदर घटता इनका जनाधार, छात्र, किसान, मजदूरो के असंतोष के, उनपर डटे रहिये, यह सब शिगूफा है। एक गेम है। ठग विद्या है।
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