मेरठ में एक जगह है, लिसाड़ी गेट थाना इलाका । वहां एक रिहाइश है कांच का पुल कॉलोनी । इस जगह समाज का वो तबका रहता है, जो सब्जी बेचकर, दिहाड़ी पर काम कर, रिक्शा चलाकर अपना गुज़ारा चलाता है। ऐसे में संकरी होती गली के एक छोर पर घर है, अलीम अंसारी, होटल पर खाना बनाकर अपनी और अपने बूढ़े मां- बाप की ज़िंदगी चला रहा था । । पिछले महीने की 20 तारीख से पहले यहां रहने वाले दूसरे लोगों की तरह अलीम का जीवन भी आराम से चल रहा था, वो सुबह जाता, रात के 10-11 बजे घर आता था । गली के पांचवें मकान में, उसके 86 साल के अब्बा, हबीब रोज़ उसका रास्ता देखा करते थे, और उसके आने के बाद ही सोते थे । लेकिन 20 के बाद 86 साल के हबीब और पत्नी रिहाना का इंतज़ार कभी ना खत्म होने वाला हो गया ।
छोटे से कमरे मे एक चारपाई पर सिकुड़े बैठे हबीब की जुबां की मिठास और आंखों की तरलता बताती है, कि उन्होंने अपनी जवानी के वक्त बहुत खूबसूरत जीवन देखा होगा। वो मुझसे पूछते हैं कि मैं कहां से आईं हूं, मैं बताती हूं कि दिल्ली से आई हूं, खबर इकट्ठी करने, तो वो कहते हैं – बेटा हम छोटे थे, लेकिन दिल्ली तब ही देख ली थी, आज़ादी का दिन देखा है। गांधी और सुभाष चंद्र बोस को देखा है। बड़ी-बड़ी कारें और सड़कें देखी। जवानी की दोपहरी में भटकने के बाद वो ज़िंदगी की सांझ की हकीकत में लौट आते हैं और बताते हैं कि ”अलीम हर रोज़ की तरह उस दिन भी होटल पर खाना बनाने गया था । वो कई सालों से वहां काम कर रहा था। लेकिन प्रदर्शन के चलते पुलिस ने उसका होटल बंद करवा दिया था । वो खुश था, काम से छुट्टी मिलने पर सबको खुशी मिलती ही है, उसने फोन पर बताया भी था कि आज जल्दी घर आ रहा हूं , मछली लेकर आऊंगा । पता ही नहीं क्या हुआ लेकिन वो फिर लौटा ही नहीं।
हबीब का गला भर्रा गया, आंखों से आंसू ढलकने लगे तो पास रखी सफेद शॉल से वो आंखों के कोनों को पूछते, भर्राई आवाज़ में ही कहने लगे – मेरा बेटा सीधा सादा सा था, वो किसी जुलूस में नहीं गया था । उसे तो जानबूझ कर मारा गया है, उसे नज़दीक से मारा गया है। अपने हाथ उठाकर वो बताते हैं कि उसे कनपटी पर गोली लगी है। अलीम के परिवार वालों का कहना है कि उसका सीएए विरोधी प्रदर्शनों से कुछ लेना देना नहीं था, उसकी मौत क्यों और कैसे हुई, इस बात का जवाब किसी के पास नहीं। ना पुलिस, ना प्रशासन और ना ही सरकार। परिवारवाले ये भी कहते हैं, कि अलीम के शव को घर नहीं आने दिया गया था, शव देने में काफी आनाकानी की गई थी। बाद में परिवार वालों की कईं कोशिशों के बाद, उसके शव को 21 दिसंबर को घर से दूर कब्रिस्तान में दफ्न कर दिया गया था। इसके बाद वो बुजुर्ग फूट-फूट कर रोने लगे।
हबीब और मां रिहाना की जिम्मेदारी अलीम के ऊपर ही थी, छोटा होने की वजह से वो रिहाना के दिल का टुकड़ा था, लेकिन अब उसकी मां के आंखू के आंसू सूख चुके हैं। उसकी आवाज़ में गुस्सा है, वो कहती है- पुलिसवालों ने जानबूझ कर मेरे बेटे को मारा है। उसकी मौत पुलिस की गोलियों से हुई है। इसके बाद वो बताती हैं कि वो बेटे की महज़ एक झलक ही देख पाईं। इस बात का मलाल उसे ताउम्र रहेगा।
घर के आस पास नज़र दौड़ाने पर महसूस होता है कि इस परिवार और बूढ़े दंपत्ति ने सिर्फ अपना बेटा ही नहीं खोया है, बल्कि सब कुछ खो दिया है। 24 साल का अलीम बूढ़े मां बाप की बुढ़ापे की लाठी था, अब उनके पास कुछ नहीं। यूपी पुलिस पहले ही कह चुकी है कि प्रदर्शनों के दौरान, पुलिस की गोली से कोई घायल नहीं हुआ और ना ही फायरिंग के कोई आदेश दिए गए हैं। इसलिए किसी के पास कोई जवाब नहीं कि आखिर इस परिवार का सबकुछ लुटा तो कैसे?
खैर, शाम ढल आई थी और मेरे जाने का वक्त हो गया था और मुझे मेरठ में पुलिस की जान गंवाने वाले दूसरे परिवारों से भी मिलना था। बूढ़े हबीब कहते हैं कि बेटा रात हो गई है, तुम्हे दिल्ली तक जाना है, ध्यान से जाना। मेरे कदम उस गली से आगे बढ़ चुके थे, लेकिन ज़ेहन अलीम के घर पर ही था, उसके पिता ने 20 दिसंबर को ऐसे ही अलीम से कहा होगा, ध्यान से जाना बेटा। वो शायद ये नहीं जानते थे कि बेटे को वो अब कभी भी नहीं देख पाएंगे।