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टीवी और राजनीति जो ज़हर बो रहा है, उसका पेड़ उग आया है – रविश कुमार

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राजस्थान के राजसमंद में एक इंसान को काटा, फिर जला दिया। वीडियो भी बनाया और सबको दिखा दिया। जो काटा गया, जला दिया गया, मुसलमान था, जो मार रहा था वो हिन्दू था। टीवी और राजनीति जो ज़हर बो रहा है, उसका पेड़ उग आया है। सांप्रदायिकता आपको मानव बम में बदल देती है। एक ऐसी असुरक्षा पैदा कर देती है जिसके चलते आप हर वक्त हिंसा का सहारा लेने लगते हैं। ऐसे बहुत से मानव बम हमारे बीच घूम रहे हैं। इसका लाभ उठाकर चार लोगों का गैंग राज करेगा, बाकी हत्या के बाद मुकदमा झेलेगा। जिनके यहां मौत होगी, उनके ग़मों की परवाह न करने की ट्रेनिंग आपको रोज़ टीवी से दी जा रही है। कोई केरल का उदाहरण देगा तो कोई कहीं का मगर हिंसा को निंदा के बाद सब पालेंगे क्योंकि आज की राजनीति के लिए बहुत से हत्यारों की ज़रूरत है। समाज कितना बेचैन है हत्यारा बनने के लिए।

एक की तो सिर्फ मौत हुई है, उसकी नागरिकता हर ली गई है मगर ऐसा करने के लिए दूसरे समाज के भीतर कितने हत्यारे पैदा किए जा चुके हैं। क्या आप चाहेंगे कि आपके घर का कोई किसी की भी हत्या करके लौटे। भले उसकी विचारधारा की सरकार बचा ले मगर क्या आप उसके साथ रह पाएंगे? इसकी चपेट में कौन आएगा, आपको पता नहीं। मुमकिन है स्कूल से लौटते वक्त, कालेज में खेलते वक्त, किसी मामूली झगड़े में हिंसा का यह ख़ून सवार हो जाए और बात-बात में आपके घर का कोई हत्यारा बन जाए। उसे यह शक्ति उसी राजनीति और सोच से मिल रही है जिसे आप टीवी और सोशल मीडिया पर दिन रात पाल पोस कर बड़ा कर रहे हैं। धर्मांधता और धार्मिक पहचान की राजनीति के लिए अपने भीतर से बहुत से हत्यारे चाहिए जो दूसरे पर हमला करने के काम आ सकें। राजनीति से धर्म को दूर कर दीजिए वरना आप इंसानियत से दूर हो जाएंगे।

वायरल वीडिओ से लिया गया स्नेपशॉट


जिन्हें आप ट्रोल कहते हैं, दरअसल यही सोच समाज में कुल्हाड़ी और माचिस लिए घूम रही है। तभी कहता हूं कि हमारी आंखों के सामने पीढ़ियों के बर्बाद होने की रफ़्तार काफी तेज़ हो गई है।
ऐसी बहसें बेलगाम हो चुकी हैं। आम आदमी इन्हें सुनते हुए संभालने की ताकत नहीं रखता। लिहाज़ा वो मानव बम की तरह कहीं जाकर फट जाता है। हत्यारा में बदल जाता है। मेरी इस बात को अगर समझना है तो इस पेज के किसी भी पोस्ट के बाद दी गई गालियों की मानसिकता को देखिए। भारत की राजनीतिक संस्कृति बदल गई है। पहले भी ये सब तत्व थे। अतिरेक भी था मगर अब यह नियमित होता जा रहा है। तो इसे लेकर किसी को शर्म भी नहीं आती है।
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार के फ़ेसबुक पेज से लिया गया है)