फ़िल्म द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर पर विवाद अनावश्यक है

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फ़िल्म, ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर ( The Accidental Prime Minister )’ का ट्रेलर रिलीज हो गया है और फिल्म पर राजनैतिक बहस भी छिड़ गई है। कांग्रेस के कुछ लोगों ने फ़िल्म को प्रदर्शन से पहले देखने की मांग की है। फ़िल्म के बारे में भाजपा के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट भी किया गया है। फ़िल्म को विजय रत्नाकर गुट्टे ने निर्देशित किया है जो, जीएसटी में धोकाधड़ी के एक मामले में लिप्त हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। बीते अगस्त महीने में विजय रत्नाकर गुट्टे को 34 करोड़ रुपये से ज़्यादा की वस्तु एवं सेवा कर (जीसीटी) धोखाधड़ी मामले में गिरफ़्तार किया गया था। गुट्टे चीनी कारोबार से जुड़े उद्योगपति रत्नाकर गुट्टे के बेटे हैं, उन्होंने 2014 में महाराष्ट्र के परभणी ज़िले के गंगाखेड़ से भाजपा गठबंधन की तरफ से 2014 का विधानसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन उनकी हार हो गई थी। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार गुट्टे की गिरफ़्तारी ऐसे समय हुई है जब उनके पिता की कंपनी पर 5,500 करोड़ रुपये की बैंक धोखाधड़ी का आरोप लगा है।
यह फ़िल्म 11 जनवरी को रिलीज होने जा रही है। संजय बारू जिनकी किताब के आधार पर इस फ़िल्म की कहानी बतायी जा रही है, की भूमिका, अभिनेता अक्षय खन्ना  निभा रहे हैं। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी की भूमिका में जर्मन एक्ट्रेस सुजैन बर्नेट, प्रियंका गांधी के रोल में टेलीविजन एक्ट्रेस अहाना कुमरा और राहुल गांधी के किरदार में, टीवी एक्टर अर्जुन माथुर हैं। यह फ़िल्म डॉ मनमोहन सिंह के दस वर्षीय प्रधानमंत्री के कार्यकाल पर आधारित है।
डॉ मनमोहन सिंह पर बनी इस  फ़िल्म को प्रदर्शित होने से न रोकें और न ही ऐसा करने के लिये कोई अभियान चलाए, बल्कि इसे पर्दे पर आने दें। यह फ़िल्म, जिसे देखना हो देखे जिसे न देखना हो वे न देखे। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न है। अपनी रुचि से, लिखने पढ़ने, देखने की संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता का प्रश्न है। अगर फ़िल्म में कुछ तथ्यविरोधी या असत्य तथ्य दिखाए गए हैं तो भी उससे इतिहास और अतीत का सच बिल्कुल नहीं बदलता। यह एक अच्छी परम्परा है कि हम प्रधानमंत्री पर फ़िल्म बना रहे हैं।
पहले, इंदिरा गांधी पर भी आंधी फ़िल्म बन चुकी है । इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी पर बनी फिल्म किस्सा कुर्सी का, के बनने, नष्ट होने और फिर दुबारा बनने, तथा प्रचार के बावजूद बुरी तरह फ्लॉप हो जाने की खबर भी सबको पता ही है। और अब यह फ़िल्म मनमोहन सिंह पर बनी है।  हो सकता है कल नरेंद्र मोदी जी पर भी कोई  फ़िल्म बने। हो सकता है आज़ादी की लड़ाई में संघ की भूमिका और बंटवारे की राजनीतिक दशा पर भी कोई फ़िल्म बनाये। जो भी हो, पर एक बात सच है, फिल्में यूट्यूब वीडियो क्लिप्पिंग्स और प्रचार के दम पर कोई व्यक्ति, स्टेट्समैन और इतिहास पुरूष नहीं बनता है यह तो अब सबकी समझ मे आ ही गया होगा।
प्रचार एक प्रकार का कॉस्मेटिक मेकअप होता है जो बारिश, आंधी, तूफान, अंधड़, बवंडर में बिगड़ता ही है। किसी भी फ़िल्म पर उठा विवाद अक्सर इसके प्रोड्यूसर को लाभ ही पहुंचाता है और वह चाहता है कि विवाद हो, सरकारें इसे बैन करे फिर न्यायालय में मामला जाय और न्यायलय फिर या तो इसे पास करे या फिर कुछ कट सुझाये और तब फ़िल्म पर्दे पर आए। जब तक यह हंगामा चले फ़िल्म का प्रचार चलता रहे। इस फ़िल्म से जुड़े विवाद की भी यही नियति होगी। देश के पीएम के रूप में डॉ मनमोहन सिंह का कार्यकाल 2004 से 2014 तक का रहा है। सभी को उस काल की अच्छी बुरी बातें पता हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में, अब बहुत कम ही बातें गोपनीय रह पाती हैं। फ़िल्म में अगर कुछ तथ्य विहीन बातें होंगी तो वे स्वतः लोगों के संज्ञान में आ जाएंगी और फ़िल्म की प्रमाणिकता अपने आप ही संदिग्ध हो जाएगी।
फिल्में इतिहास नहीं होती हैं। वे बस कल्पना होती हैं। भारत मे शायद ही तथ्यपूर्ण इतिहास पर कोई प्रमाणिक फ़िल्म बनी हो। यहां तक कि कालजयी फ़िल्म मुगले आज़म भी इतिहास पर आधारित नहीं है। अनारकली खुद ही एक काल्पनिक पात्र रही है। फिर यह फ़िल्म तो इतिहास पर है भी नहीं । यह तो समसामयिक घटनाक्रम पर है।
एक सुदृढ़ लोकतांत्रिक समाज मे, अभिव्यक्ति का उत्तर अभिव्यक्ति और फ़िल्म का जवाब फ़िल्म होना चाहिये न कि सड़क पर धरना प्रदर्शन और तमाशा हो और उसका कोई लाभ भी न हो। आखिर हम रोज़ मिमिक्री और डब की हुई प्रधानमंत्रियों की वीडियो क्लिप्स  देख ही रहें हैं। उनके कार्टून तो रोज़ ही हर अखबार छापते हैं। आखिर यह अभिव्यक्ति की आज़ादी ही तो है । गांधी पर रिचर्ड एटनबरो की क्लासिक फ़िल्म से लेकर मनोरंजक फ़िल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस जिसमे गाँधी का रोचक और मनोरंजक रूप फिल्माया गया है, भी तो बन चुकी है। कम से कम लोग 2004 से 2014 और 2014 से 2019 तक की सरकारों और प्रधानमंत्री की तुलना करने के लिये इसी बहाने अध्ययन तो करेंगे। और सच की खोज करेंगे। जॉन मथाई  की नेहरू पर लिखी किताब के आधार पर न तो कोई जवाहरलाल नेहरू का मूल्यांकन करता है और न ही संजय बारू की किताब तथा अनूपम खेर की फ़िल्म से कोई डॉ मनमोहन सिंह का मूल्यांकन करने जा रहा है।
© विजय शंकर सिंह

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