यादव जाति से ताल्लुक रखने वाले नेताओं को समाजवादी पार्टी के लिए एक बलिदान देने की ज़रूरत है। चूंकि समाज का बड़ा तबका अब इस जाति की राजनैतिक महत्वकांक्षा का उतना ही विरोधी बन गया है जितना कभी ब्राह्मणों का विरोधी था। सबसे ज्यादा यादवों का विरोध पिछड़ी जाति के कुर्मी,मल्लाह, कोईरी,कुशवाहा, केवट आदि करने लगे हैं, वे सपा द्वारा यादव तुष्टिकरण से इतने खिन्न हुए कि मजबूरी में भाजपा के साथ हो गए।
समाजवादी पार्टी का शुरूआती दौर यादवों को सबल बनाने में बीता, सबने स्वागत किया। लेकिन उसके बाद यादवों में सत्ता के प्रति जो लालच उत्पन्न हुई उसने अन्य जातियों के हक़ और हुकूक को पूरी तरह से पार्टी के भीतर से समाप्त कर दिया। यादव होना ही सबसे बड़ी मेरिट बन गई। पिछले पांच सालों का राजनैतिक समीकरण यदि देखा जाए तो सत्ता के लालची यादवों ने भाजपा का दामन खुल कर थामा।
यादवों की इस हरक़त का मुसलमानों ने दबे स्वर में विरोध तो किया लेकिन भाजपा भय ने उन्हें खुल कर समाजवादी पार्टी का विरोधी नहीं बनने दिया। यूपी निकाय चुनाव में पश्चिम यूपी समेत पूरे उत्तर प्रदेश में सपा के इस यादवीकरण का मुसलमानों ने विरोध किया और शहरी मुसलमानों ने समाजवादियों को बड़े स्तर पर नकारते हुए कांग्रेस-बसपा की तरफ रूख कर दिया।ग्रामीण इलाक़ों में भी मुसलमानों ने यादवीकरण के विरोध में निर्दलीय प्रत्याशी को वोट दे दिया लेकिन समाजवादी को नकार दिया।
यदि समाजवादी कार्यकर्ता अथवा नेता इसके पीछे ओवैसी फैक्टर या फिर मुसलमानों की गद्दारी को वजह बताते हैं तो यह उनकी मूर्खता होगी। जो लोग दूसरों की दया पर कुर्सी पर बैठे होते हैं उन्हें दान-दक्षिणा देने वालों को गद्दार नहीं कहना चाहिए। मुसलमानों के सब्र को सलाम कीजिए, सबक़ सीखिए न कि ऊंगली उठाइए।
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