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नज़रिया – समाजवाद, मुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष सियासत

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2014 के आम चुनाव में पूरे देश से लगभग 23 मुस्लिम लोकसभा सदस्य चुने गए थे, और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ये सभी लोग वहीं से जीते थे जहाँ मुस्लिमों की आबादी उस लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक थी। एक भी सीट ऐसी जगह से नहीं जीते जहाँ इनकी आबादी 30% से कम थी, बल्कि बहुत सी ऐसी सीटें जहाँ इनकी आबादी सत्तर प्रतिशत से अधिक थी फिर भी दूसरे समुदाय को जिताते रहे हैं, लगभग पचास सीटें ऐसी हैं जहाँ इनकी आबादी साठ प्रतिशत से अधिक है फिर भी आधी से ज़्यादा सीटों पर दूसरों को हमेशा जिताते रहे हैं

लगभग पंद्रह प्रतिशत आबादी में शेयर रखने के बावजूद सिर्फ़ चार प्रतिशत लोग ही जनप्रतिनिधि बन पाते हैं, ऐसा क्यों है? क्योंकि जब मुसलमान होते हैं तो यही सामाजिक न्याय की बात करने वाले उन्हें वोट ही नहीं देते हैं।सामाजिक न्याय का दंभ भरने वालों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा है कि जिस समुदाय का वोट लेकर बरसों सत्ता का सुख भोगा, जिस समुदाय के दम पर पिछड़ा एवं दलित नेतृत्व इस देश में उभरा वही लोग मुसलमानों को कहीं का नहीं छोड़े, और आज मौक़ा मिलते ही वही लोग “नाम मिटा दो बाबर का नारा लगाते हुये” संघी खेमे में घुस गये हैं।
सच्चाई यही है कि समाजवादी दलों की बुनियाद में ईंटें नहीं बल्कि मुसलमानों का ख़ून-पसीना शामिल मिलेगा, निःस्वार्थ होकर समाज के प्रति इनका संघर्ष मिलेगा, त्याग एवं बलिदानी का इतिहास मिलेगा। उसी बुनियाद का सहारा लेकर यही समाजवादी दल बरसों सत्ता का सुख भोगे, पूरा परिवार सायरन और हूटर लगाकर बरसों नवाबी काटा, उनका पूरा समाज मुख्यधारा में आ गया। पर सेक्युलरिज़म और समाजवाद की राजनीति करने वालों से बदले में मुसलमानों को क्या मिला? बुरा लगेगा लेकिन सच यही है कि मुसलमानों को घण्टा मिला. क्या मिला? घंटा मिला.
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