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कविता – बस स्मृति हैं शेष

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अति सुकोमल साँझ-

सूर्यातप मधुर;

सन्देश-चिरनूतन,

विहगगण मुक्त:

कोई भ्रांतिपूर्ण प्रकाश

असहज भी, सहज भी,

शांत अरु उद्भ्रांत…

कोई आँख जिसको खोजती थी!

पा सका न प्रमाण;

युतयुत गान;

मेरे प्राण ही को बेधते थे|

शांति और प्रकाश,

उन्मन वे विमल दृग्द्वय

समय की बात पर संस्थित

मुझे ही खोजते थे|

मैं न था,

बस एक उत्कंठा मुझे घेरे खड़ी थी!

व्याप्त करती

श्वास प्रति प्रश्वास

परिरंभण प्रबल था|

आह थी,

तल में अतल था,

रश्मियाँ थीं,

और बड़वानल निहित था!

चुम्बनों से भरा

वह आलोकमंडल-

अभी स्थिर था,

अभी बदला,

                                                           बस स्मृति हैं शेष !
 

क्षणिक आवेग था वह

या कि प्रबल विकास;

चेतन का अचेतन तक?

:— मणिभूषण सिंह