अति सुकोमल साँझ-
सूर्यातप मधुर;
सन्देश-चिरनूतन,
विहगगण मुक्त:
कोई भ्रांतिपूर्ण प्रकाश
असहज भी, सहज भी,
शांत अरु उद्भ्रांत…
कोई आँख जिसको खोजती थी!
पा सका न प्रमाण;
युतयुत गान;
मेरे प्राण ही को बेधते थे|
शांति और प्रकाश,
उन्मन वे विमल दृग्द्वय
समय की बात पर संस्थित
मुझे ही खोजते थे|
मैं न था,
बस एक उत्कंठा मुझे घेरे खड़ी थी!
व्याप्त करती
श्वास प्रति प्रश्वास
परिरंभण प्रबल था|
आह थी,
तल में अतल था,
रश्मियाँ थीं,
और बड़वानल निहित था!
चुम्बनों से भरा
वह आलोकमंडल-
अभी स्थिर था,
अभी बदला,
बस स्मृति हैं शेष !
क्षणिक आवेग था वह
या कि प्रबल विकास;
चेतन का अचेतन तक?
:— मणिभूषण सिंह