जिन राजा राम मोहन राय की पेंटिंग के सामने मैंने तस्वीर खिंचाई और दो दिन पहले लगाई आज उनको याद करने का दिन है। 4 दिसंबर 1829 के दिन उनके अथक प्रयास रंग लाए थे और तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने सती प्रथा को कानूनन प्रतिबंधित कर दिया था। ये दीगर है कि 1857 के संग्राम में जो लोग अंग्रेज़ों से असंतुष्ट होकर विद्रोही हुए थे उनमें से कुछ सती प्रथा पर रोक से भी नाराज़ थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इन सब तरीकों के ईसाई लोग हिंदू रीति-रिवाज़ में दखल दे रहे हैं।
वैसे सती हिंदू समाज में रचा बसा पुराना रिवाज़ था। पति अगर मर गया तो पत्नी को भी उसकी चिता पर ज़िंदा जलकर प्राण देने ही होते थे। ये सब धर्म की आड़ में किया गया और इसके लिए समर्थन शिव की पत्नी सती के जलकर मर जाने की कथा से जुटाया गया। कालांतर में राजपूत सेनाओं की हार के बाद क्षत्राणियों के जौहर से भी इसकी प्रेरणा ली गई जबकि जौहर का संदर्भ एकदम अलग था। फिर भी महिलाओं को चिता पर सती करने का सिलसिला चलता रहा। मुगल बादशाह के तख्त पर बैठने के बाद हुमायूं ने सबसे पहली बार सती प्रथा को रोकने की कोशिश की जिसके बाद अकबर ने आधिकारिक तौर पर आदेश निकालकर इसे पूरी तरह महिला की मरज़ी पर छोड़ दिया कि वो पति की चिता पर बैठकर जान देना चाहती है या जीना चाहती है।
इसके बाद हिंदुस्तान में यूरोपियन देशों ने अपने उपनिवेश बना लिए। सबसे पहले पुर्तगालियों ने अपने शासित इलाके गोवा में ये प्रथा बंद करवा दी। वो साल 1515 ई था। डच और फ्रेंच लोगों ने भी ऐसा ही किया मगर भारत के अधिकांश भागों में शासन करनेवाले अंग्रेज़ों के लिए इसे प्रतिबंधित करना उतना आसान नहीं था।
22 मई 1772 में राजा राम मोहन राय का जन्म हुआ। राजा की उपाधि उन्हें मुगल बादशाह से मिली थी। जब राजा ने अपने बड़े भाई जगमोहन की मौत के बाद भाभी अलकामंजरी को जबरन सती करने का दृश्य देखा तो उनके रोंगटे खड़े हो गए। ये 1811-12 का समय था। राजा ने सभी से विनती की लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी और अलकामंजरी चिता के साथ चीखती हुई राख हो गई। राजा ने कसम खाई कि वो इस प्रथा को खत्म करके दम लेंगे।
इसके बाद वो घर छोड़ समाज के बीच निकल गए और सैकड़ों साल पुरानी प्रथा पर सवाल खड़े कर दिए। इसे धर्म आधारित माननेवालों को उन्होंने धार्मिक पुस्तकों से ही जवाब दिया। उन्होंने इस बारे में एक पर्चा ‘A Conference Between An Advocate For and An Opponent of the Practice of Burning Widows Alive’ 1818 ई में छपवाया। चारों ओर सनसनी फैल गई क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों के गहरे अध्ययन के बाद पर्चा इन दलीलों से भर डाला कि सती प्रथा का संबंध धर्म से नहीं है।
साल बाद फिर उन्होंने पर्चा छपवाकर बंटवा दिया। इस बार वो धार्मिक दलीलों के साथ महिला अधिकारों की भी बात कर रहे थे। इसके अतिरिक्त राजा लगातार अपने अखबार में लिख रहे थे, भाषण दे रहे थे, समर्थकों को इकट्ठा कर रहे थे। उन्होंने सती प्रथा को गैर हिंदू करार दिया। साल 1829 तक डेढ़ दशकों की उस लड़ाई का नतीजा आना शुरू हुआ। राजा कोलकाता के श्मशानों में जाकर विधवाओं को भी समझाते कि उन्हें मरने की ज़रूरत नहीं है।
गवर्नर जनरल को उन्होंने याचिकाएं भेजी तो प्रथा पर प्रतिबंध लग गया पर प्रथा के समर्थकों ने भी “धर्मसभा” नाम का संगठन बनाकर “समाचार चंद्रिका” के नाम से पत्र निकालना शुरू कर दिया। राजा के खिलाफ माहौल बन गया। गाली गलौच आम थे लेकिन प्रयास उनकी हत्या तक के हुए। इस संगठन ने तो अपने लोगों को बेंटिंक की शिकायत करने लंदन तक भेजा। ये राजा का साहस था जिसने अंत में सरकार को भी सहारा दिया कि इस कुप्रथा को अपराध करार दे। राजा ने बेंटिंक को सती समर्थकों से निपटने के लिए धार्मिक आधार उपलब्ध कराए।
इसके अलावा राजा ने महिला शिक्षा, संपत्ति में महिला को अधिकार, अंतर्जातीय विवाह, विधवा पुनर्विवाह की जमकर पैरवी की और वो भी हिंदू धर्मग्रंथों से ही तर्क और उदाहरण खोजकर। उनकी विद्वत्ता को चुनौती देना बहुत कठिन काम था। वो बाल विवाह और बहुविवाह के खिलाफ भी खड़े हो गए। बंगाल का बड़ा तबका उनसे बहुत गुस्सा था लेकिन राजा ने महिला अधिकारों की लड़ाई जारी रखते हुए 1822-23 में ‘Brief Remarks Regarding Modern Encroachment on the Ancient Rights of Females According to Hindu Law of Inheritance’ नाम का लेख भी लिखा था। 1830 में उनका प्रसिद्ध निबंध ‘Essay on the Rights of the Hindoos over Ancestral Property According to the Law of Bengal’ छपा।
राजा सती प्रथा के इतने खिलाफ थे कि एलान कर दिया यदि बिल को ब्रिटिश संसद ने पास ना किया तो वो ब्रिटिश साम्राज्य ही त्याग देंगे। 1830 में वो मुगल बादशाह के दूत के तौर पर लंदन पहुंचे। वो पक्का करना चाहते थे कि बेंटिंक का सती प्रथा संबंधी कानून पलटा ना जाए। इसके अलावा वो मुगल बादशाह के खर्च की रकम भी बढ़वाना चाहते थे जो अंतत: तीस हजार पाउंड हो भी गई। राजा फिर कभी देश नहीं लौटे। ब्रिस्टल के समीप स्टेप्लेटन गांव में उनकी मौत 27 सितंबर 1833 को हो गई। वहीं उनको दफनाया भी गया लेकिन “भारत में समाज सुधार के जनक” राजा राम मोहन राय हमेशा के लिए अमर हो गए, यहां तक कि जिस बंगाल में उनका ज़बरदस्त विरोध हुआ वो उसकी जागरुकता के अगुवा स्वीकारे गए।
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