राजगुरू जिनसे अंग्रेज़ डरते थे

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साल 1929 में “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे से सेंट्रल असेम्बली को हिलाने वाले उन तीन नौजवानो को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जिनका चर्चा हमेशा होता रहता है ये नौजवान थे सुखदेव थापर, राजगुरु और सरदार भगत सिंह थे।

बहुत छोटी उम्र में तीनो ने भारत की आज़ादी का सपना देखा और उसे मुकम्मल करने का हर सम्भव प्रयास भी किया था । हालांकि,सेंट्रल असेम्बली वाले वाक्य के दो साल बाद ही तीनों को फांसी दे दी गयी थी।

उम्र भले ही छोटी थी लेकिन तीनो का सीना फौलादी था।आख़िरी समय में जब तीनो फांसी पर थे तब भी ज़ुबान पर इंकलाब जिंदाबाद ही था।वहीं इतिहास में तीनों के नाम स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी के रूप में दर्ज हैं।

इस लेख में इसी तिकड़ी के एक क्रांतिकारी “राजगुरु” के बारे में आज हम आपको कुछ महत्वपूर्ण बातें बताने जा रहे हैं।

महाराष्ट्र में हुआ था जन्म

राजगुरु का जन्म 24 अगस्त को आज ही के दिन 1908 में महाराष्ट्र के पुणे के एक छोटे से गांव खेड़ में हुआ था। उनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था। छह साल के थे जब पिता की मृत्यु हो गयी।

इसी समय राजगुरु वाराणसी आ गए। वहाँ उन्होंने विद्याध्ययन किया।संस्कृत सीखी, हिन्दू धर्म ग्रंथो और वेदों का अध्ययन किया। उन्होंने लघु सिद्धान्त कौमुदी को मुंह ज़ुबानी याद भी कर लिया। ब्राह्मण परिवार में जन्मे राजगुरु का व्यवहार बचपन से क्रांतिकारी था।

“आज़ाद” से हुए थे प्रभावित

राजगुरु को कसरत का बड़ा शौक था वहीं शिवाजी की छापामार युद्ध शैली के भी वो बड़े प्रशंसक थे। वाराणसी उनकी मुलाकात क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद से हुई।आज़ाद से इतने प्रभावित हुए की उनकी “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हो गए।

ये एक क्रांतिकारी संगठन था जो 1928 में गठित किया गया । इसे गठित करने वाले चंद्रशेखर आज़ाद और उनके साथी थे।आज़ाद की इस आर्मी में राजगुरु को ” रघुनाथ” नाम से पुकारा जाता था।

आधिकारियों में ख़ौफ़ पैदा करना चाहते थे

One india.com ने राजगुरु पर लिखी एक रिपोर्ट में इस बात को मेंशन किया था कि राजगुरु को बचपन से ही जंग ए आज़ादी में शामिल होने की ललक थी।

वो HSRA में भी इसी लिए शामिल हुए थे।वहीं अपने साथियों के साथ घूम घूम कर जंग ए आज़ादी के लिए लोगो को जागरूक किया करते थे।उनका एक मात्र मकसद ब्रिटिश अधिकारियों के अंदर ख़ौफ़ पैदा करना था।

बदले के लिए करी थी साण्डर्स की हत्या

1927 में भारत मे साइमन कमीशन आया था जिसका विरोध हर एक भारतीय ने किए।इसका सबसे मुखरता से विरोध अगर किसी ने किया था तो वो लाला लाजपत राय थे । इसी दौरान पुलिस रिमांड में उनकी मौत हो गयी।

19 दिसंबर 1928 को राजगुरू ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या कर दी।इसे लाला लाजपत राय की मौत के बदले में देखा गया।

वाराणसी से था ख़ास लगाव

राजगुरु और उनकी टुकड़ी के सभी लोगो को वाराणसी से लगाव था और हो भी क्यों न आख़िर इन सभी को अपनी भारत की आज़ादी के लिए अपनी सही दिशा यही से मिली थी।

अमर उजाला ने इस संदर्भ में लिखा था कि राजगुरु और बाकियो के लिए वाराणसी मायने रखता था। राजगुरु और भगत सिंह की मुलाकात भी वाराणसी में ही हुई थी । वहीं राजगुरु ने अपनी शिक्षा भी वाराणसी में ही प्राप्त की थी।

गांधी से अलग था तरीका

जंग ए आज़ादी के लिए काम कर रहे इन नौजवानों का तरीका गांधी से बिल्कुल अलग था। जहाँ एक ओर गांधी अहिंसा और सत्याग्रह की बात करते थे।

वहीं इन तीनो ने ब्रिटिश सरकार के दिलों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए 1929 में सेंट्रल असेम्बली ( जो दिल्ली में थी ) बारूद बम फोड़े और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए थे।

1931 में फांसी पर लटका दिए गए

सेंट्रल असेम्बली की उस घटना के बाद तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया। दो साल तक पंजाब (उस समय का लाहौर) के सेंट्रल जेल में बतौर कैदी रहे।

23 मार्च 1931 को उनके साथी क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह और सुखदेव के साथ के राजगुरु को पंजाब के सेंट्रल जेल में ही फांसी पर लटका दिया गया।

तीनो के चेहरे पर चमक थी,फांसी पर लटकने का मलाल बिल्कुल भी नहीं। ऐसा इसलिए था क्योंकि वो जंग ए आज़दी के लिए भारत माँ को समर्पित हो चले थे ।

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