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राफेल घोटाले की अजीब-ओ-गरीब, चौंका देने वाली दास्तान

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साध्वी मीनू जैन

राफेल घोटाले की अजीब-ओ-गरीब, चौंका देने वाली दास्तान…14 आसान पॉइंट्स मे..

  1. वर्ष 2012 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने 126 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के लिए फ़्रांस के साथ सौदा किया.
  2. पूरा सौदा 54,000 करोड़ रूपए में तय हुआ.
  3. एक लड़ाकू विमान की कीमत
    540 करोड़ रूपए मे तय हुई.
  4. सौदे के मुताबिक़ कुल 126 विमानों में से 18 पूरी तरह तैयार अवस्था मे भारत को दिए जाने थे।
  5. हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL), जो भारत सरकार का उपक्रम है, ने शेष 108 विमानों को फ़्रांस के सहयोग से भारत में निर्माण करने के एक क़रार पर हस्ताक्षर किए.
  6. HAL द्वारा स्वदेश में 108 विमानों के निर्माण का मतलब था भारत को जेट विमान निर्माण की उन्नत तकनीक की प्राप्ति और रोजगार सृजन। इसके अतिरिक्त, जो सबसे बड़ा फायदा था वह यह कि जनता का पैसा एक ऐसे उपक्रम के माध्यम से सार्वजनिक हित में खर्च होना था जो अंतत: वापिस लौटकर सरकारी खजाने में ही जमा होता। और वह पैसा देश की जनता के लिए कल्याणकारी योजनाओं में खर्च किया जाता.
  7. वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने 2012 में हुए इस राफेल सौदे को रद्द कर दिया और इसके स्थान पर एक नया सौदा किया.
  8. नए सौदे के तहत भारत को मिलने वाले कुल लड़ाकू विमानों की संख्या 126 से घटाकर 36 कर दी गई.
  9. मगर सौदे की कीमत वही 54,000 करोड़ रूपए रही.
  10. विमानों की संख्या में कमी करने के परिणामस्वरूप एक विमान की कीमत जो 2012 के सौदे के मुताबिक़ मात्र 540 करोड़ रूपए थी, वह बढकर दोगुने से भी ज्यादा यानी 1640 करोड़ रूपए हो गई (अजीब बात है–1640×36, 54,000 करोड़ से कहीं ज़्यादा होता है। मगर टोटल डील की कीमत 54,000 हज़ार करोड़ है! मोदी सरकार कुल विमान की कीमत नही बता रही है).
  11. इस प्रकार दोनों सौदों में एक विमान के खरीद मूल्य में शुद्ध 1100 करोड़ रुपए का अंतर आ गया.
  12. इतना ही नहीं , इस नए सौदे में सरकार ने HAL को बाहर का रास्ता दिखा दिया। और अनिल अम्बानी की कंपनी ‘रिलायंस डिफेन्स’ को जेट विमान बनाने का कांट्रेक्ट दे दिया। हैरत की बात यह है कि अम्बानी की इस कम्पनी को रक्षा उपकरणों के उत्पादन में कोई विशेषज्ञता या अनुभव हासिल नहीं है। फ्रांस के साथ यह नया सौदा तय करने के महज़ दो हफ्ते पहले ही यानी 28 मार्च, 2015 को आनन-फानन में ‘रिलायंस डिफेन्स’ नाम से एक कम्पनी बनाई गई थी.
  13. अब सवाल यह उठता है कि दोनों सौदों के मध्य जो 1100 करोड़ ×36, यानी 39,000 करोड़ से भी ज़्यादा का फर्क़ है, वह किसकी जेब में गया? अमित शाह की जेब में, अनिल अम्बानी की जेब में या खुद मोदी की?
  14. क्या जनता के पैसे पर खुलेआम डाका नहीं डाला गया है? क्या यह सरकारी खजाने की लूट नहीं है? क्या इस लूट के कारण जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसे का टोटा नहीं पड़ेगा? क्या इसका असर किसानों , बेरोजगार युवाओं और भारत की अर्थव्यवस्था पर नहीं पडेगा? क्या यह ‘यारा पूंजीवाद’ (Crony Capitalism) का एक ज़बरदस्त उदहारण नहीं है?

साध्वी मीनू जैन