छह साल से लग्भग हर मुद्दे को सांप्रदायिक रंग सत्तारूढ़ दल, उसका पितृ संगठन, और उत्प्रेरक की भूमिका मे सरकार , देकर ध्रुवीकरण करने की कोरी कोशिश कर रही है। उनके इस एक सूत्री एजेंडे ने सरकार के मूल उद्देश्य और कार्य, गवर्नेंस, यानी सरकार चलाने का कार्य को नेपथ्य मे डाल दिया है। आर्थिक स्थिति चौपट हो रही है, अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में गिरावट है। क्या मजदूर, क्या किसान, क्या व्यापारी, क्या मध्यवर्गीय नौकरीपेशा समाज, क्या कुछ बड़े उद्योगपति भी, सभी के सभी इस गिरावट को भोग रहे है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक निराशा का वातावरण है।
पर इन तमाम विसंगतियों और बुरी खबरों के बीच एक सुकून देने वाली खबर यह है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हो पा रहा है। इनके बरगलाने का कोई खास असर नहीं पड़ रहा है। इसका काऱण या तो लोग धीरे धीरे परिपक्व हो रहे हैं या सब अपने रोजी रोटी पर जो संकट आ रहा है उससे धर्म और संप्रदाय के एजेंडे से दूर हट रहे हैं। मेरी आशंका थी कि कमलेश की हत्या के बाद हो सकता है कुछ गड़बड़ करने की कोशिश हो। पर लोग समझ रहे हैं।
अभी हम पुलिस की ही थियरी पर यकीन करें और गुजरात कनेक्शन और बिजनौर के फतवे देने वाले लोगों को दोषी पाते हैं तो कमलेश तिवारी की हत्या पुलिस के अक्षमता का एक प्रमाण है। हत्या की धमकी नहीं थी वह, हत्या की खुली सुपारी थी। जो मारेगा इतना दिया जाएगा। क्या हम मध्ययुगीन बर्बर समाज मे रह रहे हैं कि एक आदमी खुलकर सुपारी दे रहा है, और उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। होता तो यह कि सुपारी देने वाले के खिलाफ मुकदमा दर्ज होता, उसके अंडरवर्ल्ड कनेक्शन की जांच होती और उसके नतीजों से जो भी मिलता कमलेश तिवारी को समय समय पर आगाह किया जाता, और कमलेश को लगातार, उनके ऊपर खतरे का आकलन कर के सुरक्षा प्रदान की जाती है।
जब कमलेश तिवारी के सिर काटने पर इनाम देने का फतवा दिया गया था, तब फतवा देने वाले लोगों की कोई धरपकड़ और जांच की गयी थी या नहीं, यह मुझे नहीं पता। पर अगर फतवा बाज़ों के आतंकी कनेक्शन की पड़ताल की गयी होती और कमलेश तिवारी की सुरक्षा का स्केल घटाया न गया होता तो हो सकता है कि यह बर्बर हत्याकांड न हुआ होता।
एक तरफ हत्या करने की खुलेआम धमकी, उसकी कोई गम्भीरता से जांच नहीं करना, फिर कमलेश तिवारी की पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था न करना, कमलेश को भी आसन्न खतरे से समय समय पर अपडेट न करना, सुरक्षा व्यवस्था का स्केल कम कर देना, और चौबीस घँटे में ही हत्याकांड का खुलासा कर देना, यह सब सवाल किसी भी प्रोफेशनल पुलिस अफसर के मन मे उठ सकते हैं।
लेकिन ऐसा मुझे लगता है नहीं किया गया। यह एक प्रोफेशनल पुलिसिंग का तरीका है जिसे आजमाया जाता है। कमलेश तिवारी जैसे हाई प्रोफाइल हत्या के मामले में पुलिस को घटना की सूचना मिलते ही उसके हाँथ पांव फूल जाते हैं। सरकार और डीजीपी मुख्यालय तुरन्त इस मोड में आ जाते हैं कि जल्दी केस का खुलासा करो। यह अनावश्यक दबाव और तनाव फेसबुक पर ही मुझसे जुड़े सभी पुलिस अफसर झेल चुके हैं और जो सेवा में हैं वे इसे कभी न कभी महसूस करते हैं। पर यह जल्दबाजी, पुलिस के विवेचक को कभी कभी विचलित भी कर देती है। ऐसे समय मे विवेचना टीम को समय और स्पेस देना चाहिये। प्रेस को जब तक सही दिशा न मिल जाय तक उन्हें भरोसे में लेकर शांत रहना चाहिये।
हत्या की साज़िश और साज़िश को कार्यरूप में बदलना दो अलग अलग चीजें हैं। साज़िश तो खुल गयी। गुजरात की पुलिस से तेजी से काम कर के इसे खोल भी दिया। 6 मुल्ज़िम पकड़ भी लिये गये। लखनऊ पुलिस को बधाई। पर वे कौन थे, जो मिठाई का डिब्बा लेकर अंदर गये और 30 मिनट तक बातचीत, नाश्ता पानी करते रहे ?
जब तक इन लोगों को पकड़ा नहीं जा सकेगा तब तक गुजरात कनेक्शन, फतवा वाले लोगों के पकड़ने से राजनीतिक मक़सद भले ही हल हो जाय, पर हत्याकांड की गुत्थी सुलझती हुयी नज़र नहीं आती है।
पर हो सकता है लखनऊ पुलिस उन तक पहुंच भी गयी हो और अभी उसका खुलासा करने में मुक़दमे पर असर पड़े, इसलिए बताया न जा रहा हो। तफतीश के कई पहलू होते हैं जब तक सब रहस्य खुल न जाँय तब तक उन्हें बताया भी नहीं जाता और बताया भी नहीं जाना चाहिये। धमकी के बाद भी अगर वह धमकी कार्यरूप बदल जाती है तो यह पुलिस के कार्यप्रणाली को संदेह के घेरे में ही डालती है। फिलहाल तो यही मीडिया और सोशल मीडिया पर आ रहा है।
हिन्दू महासभा के नेता कमलेश तिवारी की हत्या दुःखद और निंदनीय। मैं कमलेश तिवारी को थोड़ा बहुत जानता था। वे अक्सर अपने साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारों के कारण विवादित भी रहे। मैं उनके विचारधारा से कत्तई सहमत नहीं हूं, पर उनकी हत्या को निंदनीय और कायराना हरकत मानता हूं । समाज मे अगर हिंसक घृणा का माहौल जानबूझकर बनाया जाता रहेगा, तो उसका खामियाजा उनको भी भुगतना पड़ेगा, जो इस हिंसक और साम्प्रदायिक कट्टरपंथी विचारधारा के पोषक है। गांधी का यह कथन याद कीजिए, अगर आंख के बदले आंख लेने की हिंसक मनोवृत्ति बनी रही तो, पूरा समाज एक दिन विकलांग हो जाएगा।
कमलेश तिवारी के दफ्तर मे एक चित्र टँगा है जो गांधी के हत्यारे गोडसे का है। उसके नीचे लिखा है मैंने गांधी को क्यों मारा। यह किताब गोडसे के जघन्य कृत्य को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए अक्सर उसके समर्थक उद्धृत करते हैं। जिनका बौध्दिक दर्शन ही हिंसा और घृणा की पैरवी करता है वे यह नहीं जानते कि वे भी कभी इसके शिकार हो सकते हैं। लखनऊ पुलिस के लिये दिनदहाड़े हुआ यह जघन्य कृत्य एक बड़ी चुनौती है। मुल्ज़िम पकड़े जांय, उनके खिलाफ सुबूत जुटाए जांय और अदालत में उन्हें पेश किया जाय और सज़ा दिलाई जाय, यह सबसे अधिक ज़रूरी है। किसी भी महानगर में दिनदहाड़े होने वाली घटना के बाद पुलिस तुरन्त आलोचना और भर्त्सना के केंद्र में आ जाती है।
सोशल मिडिया पर कमलेश की माता जी का एक वीडियो एबीपी न्यूज़ के माध्यम से तैर रहा है। उसमें उन्होंने किसी शिव गुप्ता पर अपना सन्देह जताया है। इस आदमी से किसी मंदिर का विवाद है। हो सकता है पुलिस इस एंगल पर भी काम करे। यह भी हो सकता है सुपारी देने वाले और इन हत्यारो के बीच कोई सीधा सम्बंध हो। पर जब तक हत्या का अपराध यानी गोली मारने और गला रेत देने वाले व्यक्ति पकड़ में नहीं आते हैं, और वे अपराध की स्वीकारोक्ति कर के हत्या में प्रयुक्त हथियार बरामद नहीं करा देते हैं, तब तक इस अपराध के खुलासे पर न तो जनता को यकीन होगा, न कमलेश के घर वालों को और न ही अदालत ही संतुष्ट हो सकेगी।
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