पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश, एक ही वतन और एक ही बदन के दो हिस्से थे, अब तीन हैं। 1947 का बंटवारा, एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल, राजनीतिक महत्वाकांक्षा, पागलपन भरे दौर, और अंग्रेजों की साज़िश का दुष्परिणाम था। यह बंटवारा मुझे फ़र्ज़ी, अतार्किक और बनावटी लगता है। लेकिन इधर कुछ बड़ी सकारात्मक चीज़े हुयी हैं। पाकिस्तान के छात्रों ने लाहौर यूनिवर्सिटी में बिस्मिल अजीमाबादी का अमर गीत, ‘ सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है ‘ गाया और भारत मे आईआईटी कानपुर के छात्रों ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का ‘ हम देखेंगे ‘ दोहराया। ढाका में रवींद्रनाथ टैगोर तो गाये ही जाते हैं और, कोलकाता की सड़कों पर काजी नज़रुल इस्लाम गूंजते हैं। यह तीनों देशों की समृद्ध साहित्यिक विरासत का एक उदाहरण है।
पर साहित्य, भाषा, प्रतीक, कथ्य, शिल्प की समझ न हो तो बड़ी असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही हुआ कानपुर के आईआईटी में। हम देखेंगे के कुछ अंश में इस्लाम को ढूंढा गया और उसे हिंदू विरोधी मान लिया गया। एक प्रोफेसर साहब का धर्म प्रेम फड़क उठा और उन्होंने शिकायत कर दी। जब शिकायत हुयी तो जांच बैठ गयी। बेचारे फ़ैज़, जिया ने उन्हें इस्लाम विरोधी समझ कर जेल में डाल दिया, इधर उन पर हिंदू विरोध का इल्जाम आयद है !
कानपुर आईआईटी के इस तमाशे पर फिर से फ़ैज़ याद आ गये और उनका यह शेर भी
वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है”
( फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
कानपुर आईआईटी ने जो यह सनक भरा आदेश, पैनल गठित कर के, जांच करने का दिया है यह शिक्षा संस्थानों में फासिस्ट मनोवृत्ति के घुसपैठ का एक उदाहरण है। फ़ैज़ को जितना लोग पाकिस्तान में पढ़ते होंगे उससे कहीं ज्यादा फ़ैज़ भारत मे देवनागरी हिंदी में पढें जाते हैं। प्रकाश पंडित की मशहूर शायरों की शायरी के संकलन से लेकर फ़ैज़ के सारे लेखन का एक वृहद संकलन ‘सारे सुखन हमारे’ बाजार में है और लोग उसे खरीद रहे हैं और पढ़ रहे हैं। पर अचानक यह ओजपूर्ण रचना, जो अपने प्रतीकों, और गेयता के कारण बेहद लोकप्रिय है, आईआईटी कानपुर के अफसरों को कैसे और क्यों नागवार गुज़र गयी। मेरी समझ से परे है।
आईआईटी में जिन बच्चों का ऐडमिशन होता है, वे बेहद प्रतिभाशाली बच्चे होते हैं। उन्हें अपने विषय का तो ज्ञान होता ही है साथ ही वे अपने विषय से इतर चीजें भी पढ़ते रहते हैं और जानते हैं। यह बात अलग है कि साहित्य की गूढ़ता का उन्हें ज्ञान न हो और न ही उनके पास इतना समय हो कि वे साहित्य का इतना गम्भीर अध्ययन कर सकें। फिर भी जब उन्होंने यह नज़्म गायी, तो उन्हें यह बखूबी पता होगा कि यह नज़्म किसी भी धर्म के विरोध में नहीं है। यह जनविद्रोह को जगाने वाली एक इंकलाबी नज़्म है।
अब इस नज़्म के कुछ अंश पढें, जो धार्मिक आधार पर विवादित बताये जा रहे हैं। मैं इसकी एक व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जब अर्जे खुदा के काबे से,
सब बुत उठवाए जाएंगे,
हम अहले सफा, मरदूदे हरम,
मसनद पर बिठाए जाएंगे,
जब ताज उछाले जाएंगे,
जब तख्त गिराए जाएंगे !
और, नाम रहेगा, बस अल्लाह का,
जो गायब भी है हाज़िर भी,
जो मंजर भी है, नाजिर भी,
और उठेगा अनल हक़ का नारा,
जो मैं भी हूँ, और तू भी है,
और राज करेगी ख़ल्क़ खुदा,
जो मैं भी हूँ, और तू भी है !
उपरोक्त पंक्तियों में अगर प्रतीकों को नही समझा गया तो निश्चित ही अर्थ का अनर्थ हो सकता है। और इसे गलत समझा जा सकता है।
अब इन पंक्तियों के बारे में भी थोड़ी चर्चा की जाय। नज़्म की पृष्ठभूमि में काबे से मूर्ति हटाने की बात कही गयी है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य भी है। यहां काबा और बुतों के हटाने से, हिंदू धर्म का कुछ भी लेना देना नहीं है। न तो काबा हिन्दू धर्म मे कोई महत्वपूर्ण स्थान रखता है और न ही वहां के हटाये गये बुत। लेकिन यह सीधा अर्थ भी इस पंक्ति का नहीं है। काबा और बुत यहां सत्ता और सत्ता में बैठे लोगों को कहा गया है। जब ऐसी स्थिति आएगी कि जनता त्रस्त और परेशान होकर विद्रोह कर बैठेगी तो, सत्ता के बुत यानी सत्तानशीं लोग उस काबा जिसे यहां सत्ता का केंद्र कहा गया है,से हटाए या उठवाये जाएंगे ।
अगर इस्लाम का इतिहास देखें तो काबा में बहुत सी मूर्तियां, इस्लाम के पहले से ही थीं। खुद काबा का अस्तित्व हजरत इब्राहीम के समय से है जो तीनों धर्मो, यहूदी, ईसाई और इस्लाम के पैगम्बरों के परंपरा में आते हैं। तब के अरब में बहुदेववाद प्रचलित था। इस्लाम का एकेश्वरवाद उस बहुदेववाद के खिलाफ एक विद्रोह था। उसी प्रतीक को फ़ैज़ ने यहां लिया है। इस संदर्भ और इस वाक्य का हिन्दू या किसी भी धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है।
अहले सफा, यानी शुद्ध जनता। सफा शब्द से ही सूफी निकला है। मरदूदे हरम का अर्थ है वे लोग जो वंचित है,यानी गरीब और ठुकराए हुये लोग हैं । हरम का एक अर्थ काबा भी होता है। यानी सत्ता में जड़ जमाये सत्ताधारी समूह को अधिकारों से वंचित जनता उसी प्रकार हटा देगी जैसे काबा से बुत हटवा दिए गए थे, और उन्हे हटा कर खुद मसनद पर बैठे जाएगी। मसनद यहां तकिया नहीं बल्कि सत्ता का प्रतीक है। तभी फ़ैज़ आगे कहते हैं, जब ताज उछाले जाएंगे, यानी राजमुकुट उछाल दिए जाएंगे और तख्त यानी सिंहासन गिराए जाएंगे। यह पूरा प्रतीक ही विद्रोह या क्रांति का है। यह पंक्तियां लोकशाही की बात करती हैं, किसी धर्म की नहीं।
आगे कहा गया है, बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो गायब भी है, हाज़िर भी, मंजर भी है नाजिर भी है। इसमे अल्लाह शब्द के उल्लेख को हिन्दू विरोधी मान लेना या इसे इस्लाम के पक्ष में रख कर देखना, भी परम नासमझी होगी। अल्लाह, अरबी भाषा मे ईश्वर का समानार्थी शब्द है। वैसे ही जैसे गॉड, अंग्रेजी में ईश्वर का समानार्थी शब्द है। नज़्म अगर संस्कृत या हिंदी में लिखी जाती तो निश्चय ही अल्लाह की जगह ईश्वर शब्द होता और अंग्रेजी में लिखी जाती तो गॉड का उल्लेख किया जाता है। यहां एक दार्शनिक पुट है। अंत मे केवल ईश्वर ही शेष रहेगा। यह उसी दार्शनिक चेतना पर है जिसे कहते हैं, ईश्वर के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है। इसे अरबी में अल्लाह हो बाकी, मिल कुल्ले फानी कहा गया है । और आगे गायब और हाज़िर, मंजर और नाजिर के रूप में ईश्वर के ही गुणों की प्रशंसा की गयी है। यानी वह निराकार या नहीं दिखने वाला और सर्वत्र उपस्थित यानी हाज़िर दोनों ही है। वही दृश्य, यानी मंजर है और वही नाजिर यानी देखने वाला है। यहां इसका आशय है कि अल्लाह या ईश्वर सब कुछ देख रहा है। कुछ भी उसके नज़रों से ओझल नहीं है।
आगे कहा गया है उठेगा अनल हक़ का नारा। हक़ का अर्थ, सत्य होता है। इसका एक अर्थ अधिकार भी है और सत्य ही ईश्वर को भी कहा गया है। सत्यम शिवम सुंदरम। यानी जो सत्य है वही शिव है यानी कल्याणकारी और वही सुंदर है। इसी प्रकार हक़ का अर्थ यहां खुदा है। सूफी संत मंसूर को अनल हक़ कहने के कारण सूली पर लटका दिया गया था। क्योंकि उस समय भी सत्ताधीशों ने अनल हक़ का यही अर्थ निकाल लिया था कि, मंसूर ने कहा मैं ही खुदा हूँ। अब खुदा तो दो हो नहीं सकता। बस मंसूर की मौत आ गयी। मंसूर अल हल्लाज एक कवि और तसव्वुफ़ के प्रवर्तक विचारकों में से एक थे जिनको सन 922 में अब्बासी ख़लीफ़ा अल मुक़्तदर के आदेश पर फ़ांसी पर लटका दिया गया था।
अन अल हक़ का शाब्दिक अर्थ अहम ब्रह्मास्मि होता है। जो भारतीय और सनातन परंपरा में एकेश्वरवाद को प्रतिपादित करता है। आगे कहा गया है, राज करेगी ख़ल्क़ ए खुदा, यानी जनता। ईश्वर की जनता । जिसे फ़ैज़ कहते हैं, मैं भी हूँ, और तू भी है, यानी हम सब है। यह विद्रोह करके जनता के राज की घोषणा है। लोकतंत्र की बात फ़ैज़ यहां कह रहे हैं। क्योंकि जब यह नज़्म लिखी गयी थी तो पाकिस्तान में जिया उल हक की फौजी तानाशाही हुक़ूमत थी। यह सारे प्रतीक उसी तानाशाह को लेकर के हैं।
अब इस बेहद ओजपूर्ण नज़्म में हिन्दू विरोध कहाँ से आ गया ? जिया उल हक के कट्टरपंथी मातहतों ने इसमे इस्लाम की बेइज्जती ढूंढ ली औऱ हिन्दू कट्टरपंथी सोच के आईआईटी प्रशासन ने इसमे, हिन्दू धर्म का अपमान ढूंढ लिया। हम एक ऐसे गहरे गड्ढे में जा रहे हैं जहां केवल धर्म और धर्म भी नहीं धर्म का विकृत रूप ही शेष बचेगा। आज कबीर होते तो उनकी लिंचिंग अब तक बनारस के किसी घाट पर हो गयी होती। उस लिंचिंग मे केवल हिंदू ही नहीं रहते, मुस्लिम भी रहते और अगर कट्टरपंथी सोच की सरकार रहती तो, सरकार के कारिंदे भी रहते। यही हश्र ग़ालिब का होता। तुलसी तो बनारस में यह सब भोग ही चुके हैं।
साहित्य में जनविद्रोह या जनजागरण को व्यक्त या आवाह्न करने के लिये धर्म के प्रतीकों का प्रयोग, कबीर से लेकर धूमिल तक सभी जनवादी और प्रगतिशील कवियों ने किया है। ग़ालिब, निराला, मुक्तिबोध, नज़रुल इस्लाम, नागार्जुन, दुष्यंत कुमार, आदि आदि अनेक कवि और लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में यह प्रतीक मिलते हैं।
जब जेएनयू के कुलपति राष्ट्रवादी चेतना जगाने के लिये कैम्पस में टैंक लगाने की मांग सरकार से कर सकते हैं तो आईआईटी के निदेशक, अब सभी महत्वपूर्ण साहित्य में धर्म ढूढने के लिये कोई नया विभाग ही गठित कर दें तो हैरान न होइएगा। फासिस्ट और तानाशाही के दौर की शुरुआत इतिहास में ऐसे ही होती है। हमें इस कूपमंडूकता और संकीर्णता के स्वार्थी दौर से मुक्त होना पड़ेगा। अन्यथा हम एक बेहद दकियानूसी समाज मे बदल जाएंगे।