यह लेख उनके लिये है जो पुलिस विभाग में सेवा कर चुके हैं या अभी भी सेवारत हैं। जब हम पुलिस शब्द का उपयोग करते हैं तो, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आसेतुहिमाचल एक वर्दीधारी का चेहरा सामने आ जाता है। रूप, रंग, भाषा में अलग अलग पर यूनिफार्म, कानून, अधिकार और शक्तियों में एक समान। वर्दी कीएकरूपता ही सिपाही से लेकर डीजी तक, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या क्षेत्र के हों, सभी विविधताओं के बीच एक एकता के सूत्र कीतरह गुंथी रहती है। एक ही मैदान, एक ही कमांड, एक ही ड्रिल के कारण हम एक इकाई हैं और हमारी निंदा तथा प्रशंसाभी उसी एक इकाई को सम्बोधित करते हुए होती है। वह इकाई है पुलिस की। इंस्पेक्टरसुबोध हों या आईजी राम कुमार या डीजी ओपी सिंह उसी एक इकाई के ही अंग हैं। यह एकरेजीमेंटेशन है। यह दुनिया भर की सभी वर्दीधारी बलों का अनिवार्य अंग है। जिस दिनयह रेजीमेंटेशन टूटने लगा अनुशासित और प्रशिक्षित यह वर्दीधारी संगठन जिसकीजिम्मेदारी ही है कि वह देश का कानून, विधिसम्मत तरीके से लागू करे, एक अराजक भीड़ बन कर रह जायेगा। वह फिर देश केलिये एक घातक और विनाशक होगा।
अब मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश का यह बयान पढें जो जनसत्ता में छपा है
” हिंसा में मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध सिंह के परिवार से मिलने के एक दिन बाद सीएम योगी ने जिले में हुई मॉब लिंचिंग को मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि, राज्य में कोई मॉब लिंचिंग नहीं है, बुलंदशहर की घटना केवल एक दुर्घटना है।”
सम्भवतः यह निर्णय लिया गया है कि, सरकार पहले बुलंदशहर हिंसा के सुबोध हत्याकांड की जांच के पहले गोकशी की जांच करेगी। यह खबर सोशल मीडिया में भी है और इसे विस्तार से इंडियन एक्सप्रेस ने छापा भी है। आईजी मेरठ का एक वीडियो बयान भी सोशल मीडिया में घूम रहा है जो इसी आशय का है। गौकशी के बारे में एक खबर भी है कि गाय कुंदन नाम के किसी व्यक्ति ने काटी है। जबकि इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या बजरंग दल के गुंडे योगेश राज ने की है। वह मुक़दमें में नामजद मुल्ज़िम भी है। पर न कुंदन पकड़ा जाएगा और न ही यह गुंडा योगेशराज। कुंदन इसलिए नहीं पकड़ा जाएगा क्योंकि फिर यह सारा रहस्य खुल जायेगा कि इस साजिश के पीछे कौन कौन था। इससे सत्तारूढ़ दल असहज हो जाएगा और इसके दूरगामी राजनैतिक परिणाम हो सकते हैं। ये दोनों एक दूसरे के ही चट्टे बट्टे हैं बिल्कुल, चोर से कहो चोरी करो, साव से कहो जागो। ये दोनों देर सबेर अदालत में हाज़िर हो जाएंगे। फिर एकाध महीना या कुछ समय जेल रहेंगे हो सकता है सेशन अदालत से इनकी जमानत न हो पर हाइकोर्ट से तो जमानत हो जाएगी। तफ़्तीश में क्या होगा यह अभी पता नहीं। सुबोध को जो आर्थिक सहायता दी गयीं है वह सेवाशर्तों के अनुसार है। यह सरकार की न तो अनुकंपा, न दया न एहसान। इसी आड़ में पत्थर फेंकने वाला एक मृतक भी मुआवजा पा गया। सरकार को निभाना तो वह भी था न ।
सरकार और राजनीतिक नेतृत्व से मुझे कोई गिला नहीं है। गिला है अपने पुलिस के बड़े अधिकारियों के रवैये से। यह बात अखबारों में छप रही है, सोशल मीडिया पर हर घन्टे अयाँ हो रही है कि पहले गौकशी की जांच होगी फिर सुबोध हत्याकांड की। क्यों ?.क्या गौकशी, मानव हत्या से अधिक महत्वपूर्ण हैं ? क्या भारतीय दंड विधान में मानव हत्या धारा 302 आईपीसी को गौवध निवारण अधिनियम के ऊपर प्राथमिकता दी गयी है ? क्या आईपीसी की प्राथमिकता में एक पशु एक मनुष्य से अधिक महत्व रखता है ? क्या सिर्फ इसलिए कि सुबोध की शहादत, मरी हुई गाय की तुलना में कोई राजनीतिक डिविडेंड नहीं देने जा रही है ? क्या हम राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिये उस भेंड़ की तरह हैं जो ‘दूसरों की ठंड के लिये अपने पीठ पर ऊन की फसल ढोती’ है ?
अगर सुबोध हत्याकांड के मुल्जिमों के लिये कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई तो इसका अत्यंत प्रतिकूल असर पुलिस विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों के मनोबल, मानसिकता और कार्यशैली पर पड़ेगा। पुलिस एक अनुशासित विभाग है। इसमे अपनी व्यथा, बात और पक्ष रखने के लिये पुलिसजन के पास कोई फोरम नहीं है। अपनी पीड़ा कहने के लिये सैनिक सम्मेलन टाइप जैसे मंच आदि की व्यवस्था ज़रूर है पर वे सामान्य सेवागत समस्याओं के समाधान में कारगर तो होते हैं, पर ऐसी असाधारण परिस्थितियों में वे अप्रासंगिक हो जाते हैं। अनुशासन बात बात पर आड़े आ जाता है और न भी आये तो यह बात जता भी जाती है। यह मानवीय स्वभाव कि हम अपनी कड़ी ,बेलाग और बेलौस आलोचना कम ही सुनना चाहते हैं के हम अपवाद भी नहीं हैं। अनुशासन का रेड कार्ड या फाउल की व्हिसिल अक्सर हमें सचेत भी करती रहती है। यह बात सही है कि, अनुशासन की सीमा किसी को भी लांघनी नहीं चाहिये। पुलिस विभाग में अपनी पीड़ा, व्यथा और बात कहने के लिये कोई मंच या फोरम इसलिए भी नहीं है कि पुलिस एक ऐसा विभाग है जो आर्म्ड और प्रशिक्षित है। ट्रेड यूनियन जैसा संगठन पुलिस में संभव भी नहीं है। अगर ऐसा हो गया तो पुलिस के राजनीतिक और अनुशासन हीन हो जाने का एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाएगा,भी जो तँत्र को एक गिरोह बना कर रख देगा। बड़े अधिकारियों के सेवा संघ हैं। वे भी बहुत सक्रिय नहीं है बल्कि एक प्रकार के औपचारिक गेट टुगेदर की तरह ही है। किसी प्रकार के सेफ्टी वाल्व मेकेनिज़्म के अभाव में सभी अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों की सारी आशा अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मुखिया डीजीपी से रहती है जो ऐसे कठिन समय मे न केवल उनके साथ खड़े रहें बल्कि खड़े दिखें भी। अब यह वरिष्ठ अधिकारियों की मानसिकता और कार्यशैली पर निर्भर करता है कि वह किन परिस्थितियों में अपने अधीनस्थों के साथ हैं।
पर जो खबरें आ रही हैं उनसे यह साफ लग रहा है कि वे अपने अधीनस्थ की ओर नहीं बल्कि साफ तौर पर नामजद मुल्ज़िम को बचाने में लगे हुए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हो सकता है मेरा आकलन गलत हो, पर मीडिया और संचार माध्यमों से जैसा लग रहा है, वैसा मैं कह रहा हूँ। सुबोध हत्याकांड में नामजद मुल्ज़िम को यह अवसर दिया जा रहा है कि वह पहले अपनी मासूमियत भरे चेहरे से अपनी सफाई सोशल मीडिया पर फैलाये, कुछ हवा बने, अफवाहबाज़ी हो, और लोगों में अभियोग तथा अभियुक्त के प्रति जो धारणा बनी है वह कुंद हो और लोग किसी अन्य मसले में मुब्तिला हो, इसे भुला दे। फिर ये खबरें भी खबरों की आर्काइव में पहुंच जाएंगी। गोकशी कोई जघन्य अपराध नहीं है पर गाय के साथ लोगों की भावनाओं के जुड़ाव के कारण यह एक गम्भीर अपराध बन जाता है। पुलिस इस मामले को गम्भीरता से लेती है। क्योंकि इससे व्यापक हिंसा और कानून व्यवस्था के भंग होने की संभावना हो जाती है। पर यहां, कानून व्यवस्था पहले ही भंग हो गयी है और मौके पर जो पुलिस अफसर कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने गया था उसकी हत्या हो चुकी है। गौकशी ने अपना दुष्प्रभाव दिखा दिया है। अब इन दो अपराधों में पुलिस अफसर की हत्या का अपराध अधिक महत्वपूर्ण है जिसमे कार्यवाही की जानी चाहिये। अगर मुल्ज़िम नामजद न होते तो उनका पता लगाने और सुबूत जुटाने में समय लगता, पर यहां तो पुलिस ने ही एफआईआर लिखवाया है और पुलिस ने ही नामजदगी की है फिर इतना सन्नाटा क्यों ?
अब एक काल्पनिक परिस्थिति से रूबरू हों। अगर यही ह्त्या सुबोध कुमार सिंह पुलिस इंस्पेक्टर के बजाय किसी ऐसे व्यक्ति की हुयी होती जो पुलिस के बजाय किसी ऐसे विभाग का कर्मचारी होता जहां ट्रेड यूनियन या संगठन जैसे मंच होते तो क्या सरकार और पुलिस के बड़े अफसरों का यही रवैय्या होता ? बिल्कुल नहीं। यही अफसर गाय बैल भूल कर मुल्ज़िम को कहीं न कहीं से ढूंढ लाते और वे अपनी वाहवाही के किस्से बखानते। अब तक अभियुक्त के गिरफ्तार न करने के आरोप में कोई न कोई निलंबित हो जाता।क्यों कि वे संगठन अब तक हड़ताल पर चले जाते । सरकार फिर गाय बैल को भूल पहले मुल्ज़िम के पीछे पड़ जाती। पर आदेश की अवहेलना और हड़ताल आदि पुलिस की संस्कृति में ही नहीं है। पुलिस विभाग में ऐसा करने की कोई सोच भी नहीं सकता है। करना तो दूर की बात है। और उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिये। पुलिस जब ऐसा नहीं कर सकती तो उसके मुखिया और अफसरों की यह जिम्मेदारी है कि वे ऐसे कठिन समय मे एक बॉस नहीं बल्कि एक अभिभावक की तरह रहें। आज भी पुलिस में बॉस को एक अभिभावक की ही नज़र से मातहत देखते हैं। पर इस मामले में दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। योगेश राज और नामजद मुल्जिमों के बारे में सख्ती से कदम क्यों नहीं उठाया जा रहा है , यह अफसोस की बात है। क्या सिर्फ इसलिए कि वह सत्तारूढ़ दल से जुड़ा है और उसके दल तथा संगठन के लोग यह नहीं चाहते कि वह पकड़ा जाय ? अगर ऐसा है तो यह बेहद दुखद है और शर्मनाक है।
© विजय शंकर सिंह