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कविता – मुझे कागज़ की अब तक नाव तैराना नहीं आता

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तुम्हारे सामने मुझको भी शरमाना नहीं आता
के जैसे सामने सूरज के परवाना नही आता

ये नकली फूल हैं इनको भी मुरझाना नही आता
के चौराहे के बुत को जैसे मुस्काना नही आता

हिजाबो हुस्न की अब आप क्यों तौहीन करते हो
किसी को सादगी में यूँ गज़ब ढाना नहीं आता

फकीरों की जमातों में मैं शामिल हो गया हूँ पर
मुझे वोटों की खातिर हाथ फैलाना नहीं आता

हकीकत की जमीनो में ही मैं चलने का आदी हूँ
मुझे कागज़ की अब तक नाव तैराना नहीं आता

“ख़ान”अशफाक़ ख़ान

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