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कविता – ये दुनिया आखिरी बार कब इतनी खूबसूरत थी?

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ये दुनिया आखिरी बार कब इतनी खूबसूरत थी?
जब जेठ की धधकती दुपहरी में भी
धरती का अधिकतम तापमान था 34 डिग्री सेलसियस।
जब पाँच जून तक दे दी थी मानसून ने
केरल के तट पर दस्तक,
और अक्टूबर के तीसरे हफ्ते ही पहन लिए थे
हमने बुआ के हाथ से बुने हॉफ़ स्वेटर…

ये दुनिया आखिरी बार……..
जब सुबह आ जाता था आंगन में चावल चुगने
कबूतरों का दल
साँझ छत के ठीक ऊपर से गुजरता था कौओं का झुण्ड
और रात नियम से रोज गाते थे झींगुर…
ये दुनिया आखिरी बार……
जब तरबूज़ में था केवल मीठा रस
नहीं डाला गया था जहरीला लाल रंग
जब कद्दू,नेनुआ,झींगा का स्वाद भादो में मीठा होता था
नहीं फुलाया जाता था सुई दे उन्हें गुब्बारे की तरह।
फूलगोभी में थी गुलाब से ज्यादा सुगंध
और आलू नहीं होता था भुसभुसा और मीठा…
ये दुनिया आखिरी बार….
जब भात के साथ माड़ भी उतरता था चूल्हे से
कच्चे मसाले से गमकती थी तरकारी
नहीं होती थी अरहर की दाल पनछोछर
और बिना फ्रीज असली दूध पर जम जाती थी मोटी छाली…..
ये दुनिया आखिरी बार…….
जब लोग पीते थे भर भर मुट्ठा बीड़ी
नहीं पीते थे किसी का खून,
दो दो डिब्बा खा जाते थे रगड़ के खैनी
नहीं खाते थे एक छटांक भी किसी का हक़।
ये दुनिया आखिरी बार….
जब गाय बहुत गाय होती थी
देती थी चुपचाप दूध
नहीं लेती थी किसी की जान
न था उसे सच में माता होने का भरम
न लगा था उसके माथे कोई खूनी कलंक।
ये दुनिया आखिरी बार….
जब कोई बच्ची दोपहर को ट्यूसन निकली
शाम को खिलखिलाती लौट आयी थी घर
कोई बहन शाम को निकली बाजार
और रात आ गयी थी वापस बिना किसी खंरोच।
ये दुनिया आखिरी बार…..
जब हम खुद खड़े हो गये थे जन गण मन पर
किसी ने पकड़ कर बांह नहीं किया था खड़ा
किसी ने नहीं डाला था मुँह में डंन्टा कि बोल वंदे मातरम।
ये दुनिया आखिरी बार……
जब दीवाली में जल के रौशन हुई थी वो बस्ती
नहीं लगायी गयी थी चुनाव के पर्व में वहां आग
नहीं जला था कोई मकान
नहीं मिलते थे जमींन पर फूटे मसले हुए दीये….
ये दुनिया आखिरी बार……
जब भादो के कादो में धान रोपता था किसान
नहीं बरामद हुआ था एक भी गले का फंदा
खेतों में सुने जाते थे केवल रोपनी के गीत
नहीं सुनाई दिया था एक भी विधवा विलाप।
ये दुनिया आखिरी बार इतनी खूबसूरत कब थी?
या ये दुनिया इतनी खूबसूरत कभी थी ही नहीं….जय हो।
– नीलोत्पल मृणाल
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