“ज़ाहिद ए तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना है और काफ़िर ये समझता है कि मुसलमान हूँ मैं” जिन्हें ये शेर समझ आ जायेगा वो ओवैसी की राजनीति को समझ जाएगा,ओवैसी को लेकर जिस तरह का प्रचार मीडिया में होता है तो माहौल सीधा सीधा ये बन जाता है कि ये कोई तो “विलेन” है,लेकिन ये “सदर साहब” के लिए इतना ही फायदेमंद भी साबित होता है और बार बार होता है और होगा भी।
लेकिन ये सवाल भी उठता है कि ये कैसी राजनीति है जो उनके बयान से शुरू होती है और “हिन्दू ह्र्दय सम्राट” योगी आदित्यनाथ के बयान पर खत्म? ओवैसी कहते हैं कि “हम योगी आदित्यनाथ को इस बार मुख्यमंत्री बनने नहीं देंगे और बदले में योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि “ओवैसी बड़े नेता है उनका यूपी में स्वागत है”
ये “अनकहा गठबंधन” असल मे उन दलों के लिए खतरा है जो समाजवादी, बहुजन या सेक्युलर राजनीति का झंडा बुलंद रखते हैं,क्योंकि अगर चुनाव हिन्दू मुस्लिम के आधार पर होगा तो बुलन्दी पर कौनसा दल जाएगा? ये सोचने और समझने वाली बात है।
असदुद्दीन कमज़ोर समाज का हाथ थाम रहे हैं?
असदुद्दीन ओवैसी जिस तरह के नेता हैं वो अपने आप को उस कम्युनिटी और समाज से जोड़ते हैं जो पिछड़ा है,कमज़ोर है और खुद को अकेला समझता है,उस समाज के लिए आयोजित जनसभा और राजनैतिक रैलियों में ओवैसी साहब मानो दहाड़ कर कहते हैं कि “मुसलमान किसी का ग़ुलाम नहीं है,अब बात हमारी हिस्सेदारी की भी होगी,हम सिर्फ भाजपा को हराने के लिए वोट नहीं करेंगें”
यही वो लहजा है जिससे ओवैसी मुस्लिम समाज उनसे जुड़ता है और उनके करीब आता और खासकर युवा उनसे अपना जुड़ाव महसूस करते हैं, और बात यहां सिर्फ यहां तक ही नहीं है ओवैसी उन्हें संसद में मुस्लिमों के लिए एक वक्त में सबसे मज़बूत रहें मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं पर बरसते हुए नज़र आते हैं, सीएए के बिल पर वोटिंग करते वक़्त ओवैसी उस बिल की कॉपी खुलेआम फाड़ते हुए नज़र आते हैं।
असल मे इस लहजे और राजनीति के इस एक्टिव मॉड का ओवैसी को भरपूर फायदा मिलता भी है, क्यूंकि उनके ऐसा करने या बोलने से ही उन्हें लेकर चर्चा ज़रूर शुरू होती है, मिसाल के तौर पर एक सीनियर प्रोफेसर कांशीराम साहब के बारे में बोलते हैं कि “ये समाज कमज़ोर था और पिछड़ा था और डरा सा रहता था, और राजनीतिक ऐतबार से इसकी सिर्फ गिनती होती थी,लेकिन कांशीराम साहब ने इस समाज को “लड़ना” सिखाया,खड़े होने सिखाया और यही वजह है कि बहुजन समाज उनके साथ खड़ा हुआ भी था”
“पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है”
ओवैसी ने महाराष्ट्र में चुनाव लड़ा 2014 में और 2 विधायक उनके विधानसभा पहुंच गए,2019 में महाराष्ट्र में फिर से विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन इस बार भी सिर्फ 2 ही रह गए और 6 महीने बाद हुए लोकसभा में चुनाव में ओवैसी की पार्टी औरंगाबाद लोकसभा सीट भी जीत गई,ये बीते करीब 50 सालों से एक सांसद की पार्टी रही “मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन” के लिए डबल खुशी का मौका था।
ओवैसी का कमाल यहीं ही खत्म नहीं होता है,बिहार विधानसभा चुनावों के परिणामों ने सबको चौंका कर रख दिया और 20 सीटों पर लड़ रहे ओवैसी 5 विधायक जिताने में कामयाब रहें,ऐसा क्यों हुआ? या ओवैसी के मामले में ऐसा क्यों हो रहा है इस पर “हेरिटेज टाइम्स” के संपादक और मुस्लिम मामलों के जानकार उमर अशरफ से हमने बात की,उन्होंने कहा कि..
“देखिये बिहार में लालू को और यूपी में मुलायम को मुसलमान क्यों वोट देते थे,क्योंकि वो उनके मुद्दे पर बोलते थे,लेकिन अब कौन बोलता है? सिर्फ ओवैसी बोलते हैं खुल कर बोलते हैं,होता क्या है कि जब कोई क़ौम एहसासे कमतरी का शिकार होती है और कोई नेता उससे जुड़ी बात करता है या उसके हक़ की बात करता है तो वो जुड़ाव महसूस करती है और कर रही है।
उमर अशरफ आगे कहते हैं कि “लालू यादव के कार्यकाल से आज के लोगों का कोई खास मतलब है नहीं क्योंकि उन्होंने ये काल देखा नही है, लेकिन आज के युवा ओवैसी को देख रहे हैं, सुन रहे हैं समझ रहे हैं,और जो मुस्लिमों के हक़ के लिए बोलेगा उसे उसका फायदा भी मिलता है और वोट भी फिर चाहें वो अखिलेश हो,तेजस्वी हो या ओवैसी हों”
क्या है ओवैसी का यूपी प्लान,क्या चौंका देंगे सबको?
भागीदारी संकल्प मोर्चे में ओमप्रकाश राजभर के साथ मिलकर गठबंधन करने वाले ओवैसी असल मे उसी तरह का सामाजिक ताना बाना बनाना चाहते हैं जैसा उन्होंने बिहार में बनाया था, और उसका उन्हें फायदा भी मिला था, लेकिन बिना किसी मज़बूत संग़ठन के ओवैसी चुनाव कैसे जीतेंगे?
क्या यूपी के 75 जिलाध्यक्ष तक उनके प्रदेश अध्यक्ष चुन पाए हैं? वो ये जान पाए हैं कि मुस्लिमों ही के मुद्दे क्या है? क्यों उनकी समस्याएं हैं? या उन्होंने अपनी राजनीति सिर्फ सपा को कोसने भर को अपना चुनावी मुद्दा बना कर रखा है? ये सवाल ओवैसी साहब से होना चाहिए कि ये कौनसी राजनीति है जो सिर्फ हवाओं में चल रही है? या फिर वाक़ई ही मे ओवैसी की पार्टी को लेकर शोर शराबा सिर्फ मीडिया बना रहा है जिससे यूपी में बढ़िया करके पोलराइजेशन हो?
इस मुद्दे पर सीनियर पत्रकार और मुस्लिम राजनीति को समझने वाले वसीम त्यागी से बात की उनका कहना है कि “भाजपा ये चाहती है कि सिर्फ दो पार्टी मैदान में रहें जिसमे एक हिन्दू की बात करें और दूसरा मुसलमानों की,और ओवैसी साहब क्या ये नहीं कर रहे हैं? ओवैसी साहब के साथ मसला ये है कि वो बहुत अच्छे डिबेटर हैं,जो टीवी डिबेट में बोल लेते हैं वहां अपने तर्कों से सबको धराशायी कर देते हैं लेकिन ये भी सच है कि ओवैसी वो लीडर नहीं हैं जो उन्हें होना चाहिए”
आगे वसीम अकरम त्यागी कहते हैं कि “ओवैसी को ये मौका मिल रहा है क्योंकि सेक्युलर,समाजवादी और बहुजनवादी दल उन्हें ये मौका दे रहे हैं,ये लोग मुसलमान वोटर्स को अछूत समझ रहे हैं,जिनके बारे में बोलने से, बात करने से “हिन्दू” वोटर्स इनसे दूर भाग जाएगा, लेकिन इन्हें ये पता ही नही है कि भाजपा को हराने की बात करने वाले है दल राजनीति को ऐसे स्तर पर ले आये हैं जहां मुसलमान इनके लिए वोट के अलावा कुछ नही है,और इसलिए ओवैसी को लेकर मुस्लिम पॉज़िटिव हुआ है”
दो और दो क्या 5 हो रहे हैं?
असदुद्दीन ओवैसी की एक खूबी है और वो ये है कि संसदीय भाषा से हट कर या गैर कानूनी वो कोई बात तक नहीं करते हैं और बयानात इस तरह से देते हैं कि मशीन भी उनकी गलती न पकड़ पाए, ऐसे में ये कहना तो बिल्कुल जायज़ है कि जिस तरह कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ता है वो भी लड़ रहे हैं,हार जीत तो जनता तय करती है।
लेकिन बहुत बड़ा और अहम सवाल ये है कि असदुद्दीन ओवैसी चुनाव लड़ कर ज़्यादा फायदा पहुंचा सकते हैं या न लड़ कर ज़्यादा फायदा पहुंचेगा? ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई शक़ नही है कि ओवैसी जब “अपने” वोट के हक़ की बात करते हैं तो “दूसरा” वोट मन मे सवाल तो ज़रूर उठता ही होगा कि ये जीत जायेंगे तो क्या होगा?
तो सवाल यही है कि 2 और 2 पांच बनेंगें? कैसे बनेंगें? इसका जवाब हम इस आर्टिकल के तीसरे भाग में जानने की कोशिश करेंगे। इस लेख के पहले भाग को पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें ।