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नज़रिया – क्या दलितों और पिछड़ों का झुकाव उग्र हिंदुत्व की तरफ है ?

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आरक्षण से पहले जातिगत आधार पर हिंदुओं का ध्रुविकरण होता था, आरक्षण के उपरांत आरक्षण प्राप्त जातियों के भीतर का आक्रोश आखिर कहां फूटता, वह मुसलमानों के विरूद्ध इस्तेमाल होने लगा। पिछड़े,दलित तथा आदिवासियों का जीवन स्तर जितनी तेजी से सुधरा वे उतनी ही उग्रता से हिंदुत्व की ओर बढ़े। हिंदू बनने की इस होड़ में गली मोहल्ले में नए नए उत्सव त्योहार की शक्ल लेने लगे। दलितों तथा पिछड़ों की बस्तियों में देवी-देवता की चौकियां नब्बे के दशक से पहले या तो होती नहीं थी या फिर नाममात्र की होती थी।
जातिय आंदोलन का पूरा फोकस हिंदुत्व अर्थात ब्राह्मणवाद के विरोध पर टिका हुआ था। हक़ मिला तो समाज के हाशिए पर पड़े लोग उठ कर आगे आने लगे। अब होड़ मची हिंदू बनने की, इस पर किसी भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल या वैचारिक संगठन ने ध्यान नहीं दिया। महाराष्ट्र में इस पर अम्बेडकरवादियों ने भले ही कार्य किया हो परंतु यूपी-बिहार में उनकी मौजूदगी का कोई भी असर नहीं पड़ सका।
आज गुजरात में जातिय गोलबंदी हो रही है। कांग्रेस जो कि खुद ब्राह्मणवाद पर टिकी राजनैतिक पार्टी है,वह झोली फैला कर जातिगत आधार पर वोटबैंक की भीख मांग रही है लेकिन वहां भी सांप्रदायिकता के सवाल पर चुप्पी है। यह चुप्पी ख़तरनाक न सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए है बल्कि देश के संवैधानिक चरित्र के लिए संकट पैदा करने वाली है।
खाया पिया आदमी धर्म रक्षा के लिए सबसे ज्यादा उत्तेजित रहता है, खाली पेट सबसे पहले भूख मिटाने का इंतज़ाम करता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोग जब तक हाशिए पर रहते हैं तभी तक उनमें दंगाई प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, लेकिन यह भी सच है कि आरएसएस-भाजपा के प्रति जिस तेजी से यह वर्ग आगे बढ़ रहा है वह उनके भीतर हिंदू बनने या उससे अपनी पहचान करवाने की ललक साफ समझ आती है।

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