कॉलेजों में हिंसा की घटनाएं हों या एकाध ऐसा कानून जो नाइंसाफी से भरा हो ये तो अपवाद हो सकता है पर इस मुल्क में जो चल रहा है वो साफ साफ पैटर्न है। ये लोग खून पसंद करते हैं अब भी नहीं दिख रहा है क्या? ये विचार ही खूनी है जिसे ये देश के गले उतार देना चाहते हैं। इनके प्रेरणा पुरुष खून पसंद करते थे उन्हें कभी पढ़िए तो। ये जो आकर सत्ता की छाती पर चढ़ बैठे इनकी पृष्ठभूमि पूरी की पूरी खूनी है। कितना नज़रअंदाज़ करना है? जब इनके कारकून आपके घर में घुसकर किसी बात पर आपका खून बहाएंगे तब समझ आएगा क्या?
जेएनयू छात्रसंघ की महिला अध्यक्ष को लहूलुहान कर देंगे। फिर ट्विटर पर ताली पीटकर जेएनयू भी ये ही बंद कराएंगे। फिर इनके नेता आकर जिनको सत्ता में होने की वजह से जवाब देना चाहिए था उल्टे दूसरों पर कीचड़ उछालेंगे और इसके बाद फेसबुक पर भी ये ही पूछेंगे कि जेएनयू में ही ये क्यों होता है और कहीं तो नहीं होता?
तो जनाब ये जेएनयू में ही इसलिए होता है क्योंकि ये पुरानी स्ट्रेटेजी है, कि हरा ना सको तो चरित्र पर हमला करो। दो-चार में से एक वही बचा है जहां तुम्हारा बस नहीं चलता तो उसे बदनाम करने की योजना के तहत सारे सिर जोड़कर काम में जुटे हो। फीस का विरोध करने की रीढ़ रखनेवाले संस्थान को नक्सली से लेकर गद्दार तक बताते हो। बाकी तो सारे नौकरी से भी पहले नौकरों की तरह शोर सुनकर भी किताबों में मुंह छिपाए बैठे ही हैं। एक यही है जो “Heil Hitler” नहीं बोल रहा।
अकेला संस्थान था जो दुनिया के प्रतिष्ठित अकादमिक इदारों में जगह पाता था। उसमें भी महिला छात्रों के सिर फूटने लगे हैं। अब भला और कितना न्यू इंडिया चाहिए?
याद रखना। तुम गुलाम हो लेकिन हो सकता है कल तुम्हारा बच्चा बोलना सीख जाए। ये संभव है क्योंकि तुम उसी पीढ़ी के रत्न हो ना जो कभी उन्हें वोट देती थी जो आज विपक्ष हैं तो ये भी मुमकिन है कि कल तुम्हारी संतानें इस खूनी सोच के खिलाफ बोल पड़ें। तब ये लोग उसका भी सिर ऐसे ही फोड़ेंगे। हर बोलनेवाले का सिर ऐसे ही फोड़ा जाता है। फिर अपनी खून पर जश्न मनानेवाली आज की पोस्ट्स और ट्वीट दिखाकर उन्हीं सिर फोड़नेवालों से रहम की भीख मांगना।
जेएनयू की छात्रसंघ अध्यक्षा सुबह ही अपने एक सहपाठी की मारपीट का समाचार लिख रही थीं। रात होते-होते उनकी लहूलुहान तस्वीरें भी सामने आ गईं। और कमाल देखिए कि मीडिया वाले दो गुटों में संघर्ष बता रहे हैं। ये कैसा संघर्ष है जिसमें एक ही तरफ के लोग घायल हो रहे हैं? और अगर ये संघर्ष है तो इसमें आप किधर खड़े हैं?? यहां तो फीस बढ़ोत्तरी का विरोध करनेवाले नकाबपोशों से पिट रहे हैं।
आशुतोष आजतक के जुझारू पत्रकार हैं। उनके साथ जो हुआ वो खतरनाक है। क्या पत्रकार कानून व्यवस्था पर खुले आकाश के नीचे एक टिप्पणी भी करेगा तो उसे नक्सली और आतंकवादी कहकर पीटा जाएगा?
आंख खोलकर पढ़ लीजिए। जब जेएनयू में घायल छात्रों का इलाज करने डॉक्टर पहुंचे तो कैसे गुंडों ने एंबुलेंस को भी नहीं छोड़ा। डॉक्टरों के लिए मरीज़ सिर्फ मरीज़ है पर कौन है जो उन्हें घायलों तक नहीं पहुंचने देना चाहता था। क्या बताने की ज़रूरत है कि जो पीटे गए वो कौन हैं? जब आपको पता है तो ये बताने की ज़रूरत नहीं कि हमलावर कौन हैं?