गुजरात में चुनाव प्रचार चरम पर है. वैसे तो कई राजनैतिक दलों ने मैदान में ताल ठोकी है, पर मुख्य रूप से मुकाबला दो ही दलों के बीच का है. भाजपा और कांग्रेस. कांग्रेस के प्रचार की कमान राहुल गाँधी ने थाम राखी और भाजपा की प्रधानमंत्री मोदी ने. दोनों ने प्रचार में पूरी ताकत झोंक रखी है. भाजपा के लिए तो गुजरात का चुनाव नाक का सवाल बन चुका है और साथ पटेल वोटबैंक की चिंता सता रही है. वहीं दूसरी और कांग्रेस के लिए गुजरात चुनाव खुद को साबित करने का है और खोने के लिए कुछ नहीं है. चुनाव है तो तो मूद्दों पर ही होना चहिये और हो भी रहा है, पर मूल मुद्दों से इतर. पिछले दिनों राहुल गांधी की रजिस्टर में एंट्री को लेकर कुछ सवाल उठे. फिर क्या था, दोनों पार्टियां आपस में राहुल गांधी केहिन्दू होने या नहीं होने को लेकर भिड़ं गई.
भाजपा कहने लगी की राहुल गांधी हिन्दू नहीं है और कांग्रेस के कुछ नेता तो उन्हें सबसे बड़ा और जनेऊ वाला हिन्दू साबित करने पे उत्तर आये. तमाम तरीके के कागजात पेश किये गये. अब सवाल उठता है कि राहुल गांधी का हिन्दू होना या नहीं होना इस चुनाव का मुद्दा कैसे हो सकता है? हमारे संविधान में तो लिखा है हम सेक्युलर देश है तो उसका क्या? यदि कोई दल का नेता हिन्दू नहीं है तो क्या वो चुनाव प्रचार नहीं कर सकता? क्या किसी हिन्दू नेता के होने भर से ही उस क्षेत्र की सभी समस्यायों का हल हो जायेगा? तो गुजरात में जो ‘गुजरात मॉडल’ के आसरे वोट क्यों नहीं मांग रहे?
और दूसरी तरफ कांग्रेस भी अब सॉफ्ट हिन्दुत्व के आसरे ही गुजरात को साधने में लगी है. और बीजेपी के बिछाए जाल में फंसकर राहुल गाँधी को हिन्दू साबित करने में लगी है.
नरेंद्र मोदी कभी सोमनाथ मंदिर पर नेहरू पर निशाना साधते नजर आते है तो कभी नाक पर रुमाल को लेकर इंदिरा गांधी पर. तो नेहरु और इंदिरा इस चुनाव के मुद्दें में शामिल कैसे हो सकते है? कायदे से तो उन्हें अपने गुजरात में अपने किये हुए कामों के आसरे वोट मांगने चाहये. गुजरात मॉडल, जिसका प्रचार कर वो भारत के प्रधानमंत्री बने है.
क्या है गुजरात के मूल मुद्दे?
हम लोकतंत्र है और लोकतंत्र में चुनाव मूल और स्थानीय मुद्दों पर ही होना चाहिए. गुजरात में बेरोजगारी चरम पर है. स्थानीय मुद्दे जैसे कि पेयजल, स्वास्थ्य और शिक्षा. व्यापारियों के लिए gst की समस्या. बच्चों के कुपोषण की दर गुजरात में उच्चतम है.
अंत में योगेन्द्र यादव की वो चाँद लाइनें याद आती है ‘ चाहे कोई भी जीते या हारे अंत में हार तो जनता और जनता के मूल मुद्दों की ही होनी है.