वासिफ़ हैदर केस में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदी अखबार से कहा है – कि इस मामले में क़ानून का बड़ा सवाल है, इसलिए इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है
3 अप्रैल, 2018 को, न्यायमूर्ति चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने वासिफ हैदर द्वारा किए गए मानहानि के मुकदमे में उत्तर भारत के बड़े हिंदी दैनिक अखबार दैनिक जागरण के खिलाफ मुकदमा चलाया है।
कानपुर के रहने वाले वासिफ हैदर को गलत तरीके से आतंकी गतिविधियों में फंसाया गया था। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद वह न्यायालय द्वारा सभी आरोपों से निर्दोष घोषित किए गए और उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया।
बरी होने के बावजूद यह अखबार उन्हें आतंकी लिखता रहा। जिसके खिलाफ वासिफ ने न्यायालय से गुहार लगाई थी। वासिफ ने अखबार के संपादक के साथ-साथ प्रकाशक के खिलाफ भी मुकदमा चलाने के लिए एक मामला दायर किया था।
दैनिक जागरण ग्रुप के एक समाचार पत्र दैनिक जागरण ने बार-बार वासिफ हैदर को ‘आतंकी वासिफ’ लिखा। एक साल की अवधि में उनके खिलाफ झूठी कहानियां लिखीं। कहानियों में कभी बनारस विस्फोट तो कभी उत्तर प्रदेश में कहीं भी विस्फोट होने में प्रमुखता से उनकी भूमिका बताई जाती। साथ ही साथ उन्हें अन्य आतंकवादी गतिविधियों से भी जोड़ा जाता।
अखबार द्वारा लिखी कोई भी कहानी तथ्यों या पुलिस जांच पर आधारित नहीं थी। एडवोकेट प्रशांत भूषण ने अदालत के समक्ष संबंधित मामले में तर्क दिया कि यह मुद्दा सिर्फ किसी एक के निर्दोष होने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह मामला कई मामलों में दोहराया गया एक बना बनाया पैटर्न है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए अदालत को इसपर समग्र रूप से विचार करना चाहिए।
प्रशांत भूषण की टीम के सदस्य एडवोकेट गोविंद ने कहा, ” सवाल यह है कि एक अखबार या मीडिया हाउस किसी व्यक्ति विशेष को एक आतंकवादी के रूप में कैसे प्रचारित कर सकता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति पर एक दफा आतंकवाद का झूठा आरोप लग चुका था। इस मसले पर कानून की धारा 499 और 500 से स्पष्ट है।
इस मामले से सद्भाव और जनता का अच्छा होना दोनों गायब हैं क्योंकि समाचार पत्र का रूख स्पष्ट रूप से दुर्भावनापूर्ण हैं।‘’ वासिफ हैदर एक शिक्षित युवा (बीएससी स्नातक) थे, जो वर्ष 2001 में बैक्टन डिकिन्सन कंपनी में क्षेत्रीय बिक्री प्रबंधक के रूप में काम कर रहे थे।
उस वक़्त उनका इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी), दिल्ली पुलिस, स्पेशल सेल और स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की टीमों द्वारा अपहरण कर लिया गया था। उत्तर प्रदेश की लंबी और कठिन कानूनी और निष्पक्ष प्रक्रिया के दौरान उन्होंने तीसरे डिग्री की यातना, अवैध नज़रबंदी और मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न सहना किया।
उनपर कुल 11 अलग-अलग आरोप लगाए गए थे। जिसमें वह बारी बारी रिहा हुए। वर्ष 2009 में, जेल में आठ साल रहने के बाद वासिफ हैदर को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया था।
राइटर एंड इन्नोसेंस नेटवर्क की सदस्य मनीषा सेठी ने कहा कि ‘मीडिया का काम जनमत निर्माण का होता है। जो अपने आप में बहुत मज़बूत काम है। यह नागरिकों को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार देता है और उनके अधिकारों का हनन होने से रोकता है। लेकिन इस मामले में और ऐसे कई मामलों में यह बिल्कुल गलत साबित हुआ।
निर्दोष होने के बाद भी, निर्दोष लोगों को आतंकी लिखा गया। आतंक के मामले में बाइज़्ज़त हुए लोगों की रिपोर्टिंग ही बहुत कम होती है। निर्दोष लोग ऐसे मीडिया हाउस की आंखों में दोषी की तरह ही होते हैं। भले ही वे कानून की दृष्टि में निर्दोष हों।
इस मामले में,अखबार के एक बेहद दुर्भावनापूर्ण इरादे दिखाई देते हैं। अदालतों को निश्चित रूप से इसके बारे में संज्ञान लेना चाहिए।
यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी वेबसाईट livelaw.in में छपा है, जिसका हिंदी अनुवाद लेखक एवं democracia.in की एडिटोरियल डायरेक्टर मनीषा भल्ला ने किया है.
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