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मिर्ज़ा ग़ालिब – यानी बाबा-ए-सुखन

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मिर्ज़ा गा़लिब के यौमे पैदाइश के बारे मे सही इल्म नहीं है। फिर भी जो सनद हासिल हैं उनके ज़रिए मालूम होता है कि 27 दिसंबर 1796 आगरा में इस हस्ती ए अजी़म ने इस धरती में जन्म लिया।
हाँ इसमें सभी का इत्तेफाक है कि 15 फरवरी 1869 को ये शायर ए आज़म इस दुनिया ए फानी से कूच कर गये।
ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे कवि-शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे निराली है।
गालिब के वालदैन बचपन में ही जन्नत नशीं हो गये थे, चाचा ने गालिब का पालन पोषण किया, इसी बीच चाचा भी इन्तकाल कर गये।
ग़ालिब की तालीम के बारे में साफ साफ कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिया था। उन्होने ज़्यादातर फारसी और उर्दू में सौन्दर्य रस पर रचनाये लिखी जो गजल में लिखी हुई है।
13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था।
1850 में शहंशाह बहादुरशाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को चंद खिताब से नवाज़ा
(1) दबीर-उल-मुल्क
(2) नज़्म-उद-दौला
(3)मिर्ज़ा नोशा
उन्हे बहादुर शाह ज़फर बेटे फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया।
बहुत कम लोग जानते हैं ।वे मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।

गालिब की एक खूबसूरत गज़ल

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
मुश्किल कि तुझ से राह-ए-सुख़न वा करे कोई
आलम ग़ुबार-ए-वहशत-ए-मजनूँ है सर-ब-सर
कब तक ख़याल-ए-तुर्रा-ए-लैला करे कोई
अफ़सुरदगी नहीं तरब-इनशा-ए इलतिफ़ात
हां दरद बन के दिल में मगर जा करे कोई
रोने से अय नदीम मलामत न कर मुझे
आख़िर कभी तो `उक़दह-ए दिल वा करे कोई
चाक-ए-जिगर से जब रह-ए पुरसिश न वा हुई
कया फ़ाइदा कि जेब को रुसवा करे कोई
लख़त-ए जिगर से है रग-ए हर ख़ार शाख़-ए-गुल
ता चनद बाग़-बानी-ए सहरा करे कोई
ना-कामी-ए निगाह है बरक़-ए नज़ारा-सोज़
तू वह नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई
हर सनग-ओ-ख़िशत है सदफ़-ए गौहर-ए-शिकस्त
नुक़सां नहीं जुनूं से जो सौदा करे कोई
सर-बर हुई न वदह-ए सबर-आज़मा सेउमर
फ़ुरसत कहां कि तेरी तमनना करे कोई
है वहशत-ए तबी`अत-ए ईजाद यास-ख़ेज़
यह दरद वह नहीं कि न पैदा करे कोई
बे-कारी-ए-जुनूं को है सर पीटने का शग़ल
जब हाथ टूट जाएं तो फिर कया करे कोई
हुसन-ए फ़ुरोग़-ए शम-ए सुख़न दूर है असद
पहले दिल-ए-गुदाख़ता पैदा करे कोई
वहशत कहां कि बे-ख़वुदी इनशा करे कोई
हसती को लफ़ज़-ए-मानी-ए-अनक़ा करे कोई
जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए यार है
आंखों को रख के ताक़ पह देखा करे कोई
अरज़-ए-सिरिशक पर है फ़ज़ा-ए ज़माना तंग
सहरा कहां कि दावत-ए-दरया करे कोई
वह शोख़ अपने हुस्न पह मग़रूर है असद
दिखला के उस को आइना तोड़ा करे कोई

सब आते रहे जाते रहे, मगर गा़लिब जो गये तो वापस न आए। मिल जाते हैं मुझे अपने दीवान में , गज़ल़ों में अशआर में ।

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