कल सोशलमीडिया पर एक पोस्ट देख रहा था, जिसमे कश्मीर में चुनाव के बाद ड्यूटी से लौटते हुए जवानों के साथ कश्मीरी लड़को की बदतमीज़ी का वीडिओ था, जिसे देख कर बहुत अफ़सोस हुआ। किस तरह से ये लड़के अपने सियासी आकाओं के बहकावे में अपनी ज़िन्दगी और मौत का सौदा कर रहे हैं. शायद वे नहीं जानते कि वे क्या हासिल कर रहे हैं? आज़ादी के 70 साल बाद भी ये मामला जस का तस है। कभी थोड़ा सुधर आता है तो फिर से साज़िशों का दौर शुरू हो जाता है, पाकिस्तान के हस्तक्षेप की वजह से मामला बेहद खराब हो गया है। जब जगमोहन वहां के गवर्नर बना कर भेजे गए और राष्ट्रपति शासन लागू हुआ तो उनकी कार्यशैली से मामला काफी बिगड़ गया, हज़ारो सिविलियन और सैनिक व पुलिस वाले मारे गए। घाटी का निज़ाम नियंत्रण के बाहर हो गया और वहां की पंडित बिरादरी को वहां से बेदखल होना पड़ा। बड़ी मुश्किल से कुछ मामला शांत हुआ और वहां चुनाव कराये गए तो हालात में कुछ सुधार आया, फ़िर उमर अब्दुल्ला के दौर में काफी सुधार हुआ और लोग पर्यटन के लिए भी वहां जाने लगे. लेकिन हुर्रियत वालो का विरोध जारी रहा और कुछ भृष्टाचार की वजह से दोबारा चुनाव होने पर उमर अब्दुल्ला को बेदखल होना पड़ा, फ़िर महबूबा मुफ्ती की सरकार आयी। लेकिन जैसी की उम्मीद थी की इनकी पॉलिसी से समझौते और शांति का माहौल तैयार होगा तो उसका उलट हुआ और हालात दिन ब दिन ख़राब होते गए। रोज़ाना के प्रदर्शन में और फ़ौज और प्रदर्शनकारियों के टकराव में पेलेट गन के इस्तेमाल से सैंकड़ो बुरी तरह घायल हुए और दर्जनों को अपनी आँख गवानी पड़ी। अब हालात ये है कि वहां के लोगो का सिस्टम से और लोकतंत्र से विश्वास ख़त्म हो गया है और अभी उप चुनाव में सिर्फ 7.50 प्रतिशत मतदान हुआ। अब जो चुना जायेगा वो किस तरह प्रतिनिधित्व करेगा। हुर्रियत की राजनीती पूरी तरह विनाशकारी है और कश्मीर और कश्मीरी नौजवानों के भविष्य को बर्बाद कर रही है। जिस तरह से पत्थरबाज़ी ,आगज़नी हो रही है और फौजियों से छेड़ छाड़ और गाली गलौज की जा रही है ये आत्मघाती कदम है। इससे कभी भी समस्या का समाधान नहीं होने वाला,भले ही कश्मीर कब्रिस्तान में तब्दील हो जाये। फौजियौ के साथ की गयी हरकत निंदनीय है और आत्महत्या के सामान है। कश्मीर में कम होता वोटिंग पर्सेंटेज और फिर ये घटना बताती है, कि घाटी में सबकुछ सामान्य नहीं है.
क्या हम कश्मीरियों का विशवास जीतने में नाकामयाब हो रहे हैं, अटल बिहारी वाजपेयी और फिर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कश्मीरी अवाम जिस तरह से खुदको भारत के साथ जोड़ने में ख़ुशी महसूस करती थी और वोट देकर पाकिस्तान और अलगाववादी ताकतों को करारा जवाब देती थी, वैसा अब क्यों नहीं हो रहा. श्रीनगर लोकसभा के 38 बूथों पर दोबारा हुई वोटिंग भी मात्र 2 प्रतिशत का आंकड़ा छू पाई ! वास्तव में ये केंद्र और राज्य सरकार की नाकाम नीतियों का असर है, जो कश्मीरी अवाम अब लोकतंत्र पर भरोसा ही नहीं कर रही. ज़रूरत है कश्मीर और लोकतंत्र को बचाने की.
क्योंकि न सिर्फ कश्मीर भारत का हिस्सा है, बल्कि कश्मीरी भी भारत के नागरिक हैं. अर्थात हर भारतीय के भाई बहन हैं, इसलिए अब ज़रूरत है, अपने भाई बहनों को अपने होने का अहसास दिलाया जाए. जब आप किसी को सौ बार दूसरा बोलकर पराये होने का अहसास दिलाओगे, तो वो आपका नहीं होता पराया बनते जाता है. इसलिए कश्मीरी अवाम को अपनत्व का एहसास कराईये ! कोशिश करिए कि वही विशवास की बहाली फिर से हो, जो पहले थी ! क्योंकि कश्मीर और कश्मीर की अवाम भारत का हिस्सा हैं.
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